Religion and Spirituality: कहां से आता है प्रकाश?

Dhruv Gupt
ध्रुव गुप्त
पूर्व IPS ऑफिसर

तमाम धर्म और अध्यात्म (Religion and Spirituality) कहते हैं कि प्रकाश हमारा स्वभाव है। अंधेरा और कुछ नहीं, प्रकाश के अभाव का नाम है। दुनियावी अनुभव बताते हैं कि अंधकार ही हमारा स्वभाव है। वह हमारे आसपास हर कहीं बिखरा है। हमारे बाहर भी और हमारे भीतर भी। हम हर समय उसे महसूस करते हैं। उससे भयभीत होकर उससे मुक्त भी होना चाहते हैं और बार-बार उसकी तरफ लौट भी जाना चाहते हैं। बिना किसी प्रयास के अंधेरे में पड़े रहना हमें आसान लगता है। हमारे चारो तरफ रौशनी भी है, लेकिन अंधेरे से हमारी पहचान इतनी गहरी है कि हम उसे महसूस नहीं कर पाते। वह क्षण भर के लिए कौंधता है और लौट जाता है। प्रकाश को अर्जित करना होता है। उसके लिए अपने भीतर तीब्र इच्छा जगानी होती है।

अपने भीतर के प्रकाश को पहचानने का उपाय क्या है ? जो धार्मिक है, उनके लिए प्रकाश का रास्ता भजन-कीर्तन, मंदिर-मस्जिद, पूजा-पाठ, कर्मकांडों से होकर जाता है। जो आध्यात्मिक है, उनका प्रकाश तक पहुंचने का साधन अनासक्ति, वैराग्य, योग, ध्यान और समाधि है। दोनों की ही दृष्टि जीवन के प्रति नकारात्मक है। उनके लिए संसार मिथ्या है, अंधकार है। वह अंधकार जिसमें जाने कितनी सदियों, कितनी योनियों से हम सब भटक रहे हैं। इस मिथ्या संसार में आवागमन से मुक्ति, मोक्ष या निर्वाण (Salvation, Moksha or Nirvana) ही प्रकाश है। यह जीवन के अस्वीकार का दर्शन है। ध्यान, समाधि, पूजा-पाठ मानसिक शांति और एकाग्रता तक के लिए तो ठीक है, उनके माध्यम से अगर आप संसार का अतिक्रमण कर किसी काल्पनिक मोक्ष या परम प्रकाश की तलाश में हैं तो यह आत्मरति के सिवा कुछ नहीं। तमाम अस्तित्व, मोह-माया, बंधन, इच्छाओं और गति से परे कोई मोक्ष है तो वह शून्य की ही कोई स्थिति हो सकती है और कोई भी शून्य अस्तित्व या ऊर्जा के पूरी तरह नष्ट हो जाने से ही संभव है। ऊर्जा चाहे जीवन की हो या पदार्थ की, कभी नष्ट होती नहीं। उसका रूपांतरण होता चलता है। हम विराट ब्रह्मांडीय ऊर्जा के अंश हैं। हम सब छोटी-छोटी ऊर्जाएं हैं जो रूप बदल-बदलकर सदा इसी प्रकृति में बनी रहेंगी। अगला कोई जीवन हमें इस रूप में शायद नहीं मिले, लेकिन किसी न किसी रूप में मिलेगा जरूर। मोक्ष या निर्वाण की अवधारणा जीवन से पलायन का धर्मसम्मत तरीका है। सदियों से जारी प्रकाश की हमारी तलाश अगर कभी पूरी होनी है तो इसी जीवन में, इसी संसार में पूरी होनी है।

प्रकाश दरअसल स्वयं को और अपने आसपास की चीजों को देखने, समझने की वह सहज, सरल और ममत्वपूर्ण दृष्टि है जिसे पूजा या योग से नहीं, गहरी संवेदना से हासिल किया जा सकता है। उसे पाना है तो इस सोच को अपने भीतर गहरे उतारना होगा कि हम सब एक ही कॉस्मिक एनर्जी (Cosmic energy) के अंश हैं और इसीलिए यह समूची सृष्टि हमारे परिवार का विस्तार है। सृष्टि से संपूर्ण तादात्म्य और उस एकत्व से उत्पन्न संवेदना, प्रेम और करुणा ही उस प्रकाश को पाने का एकमात्र रास्ता है। यह संसार माया या मिथ्या नहीं है। अगर ईश्वर सच है तो उसकी कृति मिथ्या कैसे हो सकती है ? यही संसार हमारा घर है और यही गंतव्य। प्रकाश की हमारी तलाश भी यहीं पूरी होगी।

हमारी खूबसूरत प्रकृति उस प्रकाश की प्रतिच्छवि है। सूरज, चांद और तारों में उसका नूर है। जुगनुओं में उसकी टिमटिमाहट। फूलों पर उतरती किरणों में उसकी मुस्कान। बच्चों की हंसी में उसकी मासूमियत। स्त्रियों में उसकी कोमलता और ममत्व। नदी, समुद्र, झरनों की गर्जना और पक्षियों के संगीत के पीछे वही प्रकाश है। बादलों में है उसका वात्सल्य। ओस की पाकीज़ा बूंदों में उसकी करुणा। प्रकृति से संपूर्ण सामंजस्य और उसकी संतानों के बीच परस्पर प्रेम और सहकार से वह प्रकाश प्रस्फुटित होता है। यही उपलब्धि स्वर्ग है, यही मोक्ष और यही निर्वाण। इसे देखने और महसूस करने के लिए दुनिया भर के ज्ञान, धार्मिक कर्मकांड या देह को गला देने वाली साधना की नहीं, छोटे बच्चों की चमकती आंखों और मासूम दिल की दरकार होती है।

तो आईए, इस दिवाली बाहर मिट्टी के दीयों के साथ अपने भीतर ईश्वर की इस सृष्टि के साथ प्रेम, करुणा, ममत्व, सामंजस्य और सहकार के दीए भी जलाएं ! उससे जो प्रकाश फैलेगा, उसकी रौशनी में हमारी ही नहीं, हमारी बदरूप होती दुनिया की शक्ल भी बदल जाएगी !

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