किसानों के साथ खड़े होने का समय !
यह अजब देश है जहां शराब, सौंदर्य प्रसाधन, जहरीले कोल्ड ड्रिंक्स, विलासिता की सामग्रियां बनाने वाले लोग, मक्कार राजनेता, सियासी दलाल, रिश्वतखोर अफसर और परजीवी साधु-संत अरबों-खरबों में खेलते हैं और देश का अन्नदाता किसान अपने उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी के लिए सड़कों पर पुलिस की बर्बरता झेल रहा है। जहां क्रिकेट की एक-एक गेंद पर अरबों का सट्टा लगता है और वाज़िब दाम के अभाव में किसान अपने आलू-टमाटर सड़कों पर फेंकने को मजबूर ,होते हैं ! क्या हमें आश्चर्य नहीं होता कि हमारे देश के कृषि कानून भी किसानों से संवाद किए और उनकी मुश्किलें जाने बगैर बना दिए जाते हैं ? अगर सरकार को लगता है कि उसके बनाए नए कृषि कानून किसानों के उत्पादों को अधिक मूल्य दिलाने के लिए लाए गए हैं तो इसकी क्या गारंटी है कि आने वाले दिनों में मंडियों को निष्प्रभावी कर बड़े व्यावसायी कृषि उत्पादों के मनमाने मूल्य ख़ुद नहीं तय करने लगेंगे ? सरकार समय-समय पर फसलों के जो न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है, उनकी कानूनी हैसियत क्या है ? किसानों का संदेह दूर करने के लिए समर्थन मूल्य को बाध्यकारी और उनके उल्लंघन को संज्ञेय तथा अजमानतीय अपराध बना देने में सरकार को क्या मुश्किल है ? किसानों की मांग पर अनाजों के अलावा जल्दी नष्ट होने वाली सब्जियों के लिए भी समर्थन मूल्य क्यों नहीं निर्धारित किए जा सकते ? ऐसा क्यों लग रहा है कि सरकार किसानों के साथ नहीं, कृषि व्यापार में उतरने वाले बड़े व्यवसायियों के साथ खड़ी है ?
अन्नदाता किसानों के संदेह और उनकी मांग नाजायज़ नहीं है। यह वक़्त उनके साथ खड़े होने का है। अगर किसी को लगता है कि नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन (Farmers’ movement) राजनीति से प्रेरित है तो ऐसी सकारात्मक राजनीति का स्वागत होना चाहिए।