आज विश्व सर्वहारा के नेता, दार्शनिक और कार्ल मार्क्स के अभिन्न साथी Frederick engels के जन्मदिन की दूसरी शतवार्षिकी है। किसी भी महापुरुष को याद करने का सबसे बेहतरीन तरीका उनके विचारों को जन जन तक पहुँचाना है।
प्रस्तुत है उनकी अनमोल रचना इंग्लैण्ड में मजदूर वर्ग की दशा का एक अंश जो 175 साल बाद आज भी उतना ही प्रासंगिक है–1845 के स्वतन्त्र अंग्रेज मजदूर के हालात और 1145 के नॉर्मन कुलीनों के कोड़े के अधीन जी रहे रोम के भूदासों के बीच तुलना।
भूदास ग्लेबी एड्सक्रिप्टस, यानी जमीन से बन्धे होते थे, वैसे ही स्वतन्त्र मजदूर फैक्टरी कॉटेज सिस्टम से बन्धे हैं।
भूदास अपने मालिक के जुस प्रिमी नोक्टिस, यानी पहली रात का अधिकार देने के लिए बाध्य होता था— स्वतन्त्र मजदूर को अपने मालिक की माँग पर सिर्फ उतना ही नहीं, बल्कि हर रात का अधिकार समर्पित करना जरूरी होता है। भूदास कोई सम्पत्ति नहीं हासिल कर सकता था, जो कुछ भी वह हासिल करता, उसका मालिक उससे ले सकता था; स्वतन्त्र मजदूर के पास कोई सम्पत्ति नहीं होती, प्रतियोगिता के दबाव में वह कुछ हासिल भी नहीं कर सकता और जो काम नॉर्मन कुलीन भी नहीं करते थे, वह आधुनिक कारखानेदार (Modern factory Owner) करता है। ट्रक सिस्टम के जरिये, मजदूरों को रोज ब रोज जिन चीजों की तात्कालिक जरूरत होती है, उनको नियन्त्रित करके उससे कमाई करता है।
भूदास के साथ भूस्वामी का सम्बन्ध प्रचलित रिवाजों से तय होता था और उन नियमों से जिनका पालन किया जाता था, क्योंकि वे उनसे मेल खाते थे. स्वतन्त्र मजदूर का अपने मालिक के साथ सम्बन्ध उन नियमों से तय होता है जिनका पालन नहीं किया जाता, क्योंकि वे न तो मालिक के स्वार्थ से मेल खाते हैं, न प्रचलित रिवाजों से। भूस्वामी अपने भूदास को जमीन से अलग नहीं कर सकता था, न ही उससे अलग किसी को बेच सकता था और चूँकि सारी की सारी जमीन जागीर थी और पूँजी थी ही नहीं, व्यवहार में वह बिलकुल ही नहीं बेच सकता था। आधुनिक पूँजीपति मजदूरों को अपने आप को बेचने के लिए बाध्य करता है।
गुलाम उस जमीन का दास था, जिस पर उसका जन्म हुआ था, मजदूर अपनी जिंदगी की जरूरतों का दास है और उस पैसे का जिससे वह उन चीजों को खरीदता है— यानी दोनों ही किसी चीज के दास। भूदास को सामन्ती समाज व्यवस्था में अपने जीविका के साधनों की गारन्टी थी जिसमें हर सदस्य के लिए अपना स्थान तय था। स्वतन्त्र मजदूर को किसी भी चीज की गारन्टी नहीं होती क्योंकि समाज में उसके लिए तभी कोई जगह है जब पूँजीपति उसका इस्तेमाल कर सके; दूसरे सभी मामलों में उसको नजरंदाज किया जाता है, अस्तित्वहीन की तरह व्यवहार किया जाता है।
भूदास का मालिक एक बर्बर था जो अपने भूदास को जानवरों का सिर समझता था; कामगारों का मालिक सभ्य है और उसके “हाथ” को मशीन समझता है। संक्षेप में दोनों की स्थिति कोई सामान होने से ज्यादा अलग नहीं है और अगर इनमें से कोई भी नुक्सान में है, तो वह स्वतन्त्र मजदूर ही है।
गुलाम तो दोनों ही हैं, सिर्फ इतना ही फर्क है कि एक में कोई छल-कपट नहीं, खुला और ईमानदार; दूसरे में चालाकी, धूर्तता, भेष बदले हुए, खुद से और दूसरों से भी धोखे से छिपाया हुआ, एक पाखंडी गुलामी जो पुराने से भी बदतर है। परोपकारी टोरी सही थे जब उन्होंने कारीगरों को गोरा गुलाम कहा था।
लेकिन पाखंडी भेष बदली हुई गुलामी, स्वतंत्रता के अधिकार को मान्यता देती है, कम से कम बाहरी रूप में; स्वतन्त्रता-प्रेमी लोकमत के आगे नतमस्तक होता है और यही पुरानी गुलामी की तुलना में ऐतिहासिक प्रगति की स्थित है कि स्वाधीनता को सैद्धांतिक स्वीकृति (Principle Acceptance) मिल चुकी है और दलित-शोषित लोग एक दिन जरूर इसे व्यवहार में लागू होते हुए भी देखेंगे।
(फ्रेडरिक एंगेल्स – इंग्लैण्ड में मजदूर वर्ग की दशा)
साभार – दिगम्बर