नई दिल्ली (यथार्थ गोस्वामी): पौष मास के कृष्ण पक्ष में पड़ने वाली एकादशी तिथि को सफला एकादशी (Saphala Ekadashi) के नाम से जाना जाता है। स्थापित सनातन मान्यताओं के मुताबिक यदि कोई साधक सम्पूर्ण विधि-विधान के साथ इस व्रत का पालन करता है तो, उसकी सभी मनोकामनाओं पूरी होती है। इस व्रत के अमोघ प्रभाव से कई पीढ़ियों के पापों का मोचन होता है। पद्म पुराण के अनुसार इस एकादशी का पालन करने से कुल की आगामी पीढ़ियां यशस्वी और तेजवान होती है। साधक को भौतिक परिपूर्णता (Physical fullness) के साथ अक्षय आध्यात्मिक लाभ मिलता है।
सफला एकादशी का मंगलमय शुभ मुहूर्त
एकादशी तिथि का आरम्भ – 08 जनवरी 2021 की रात्रि 9 बजकर 40 मिनट पर
एकादशी तिथि की समाप्ति – 09 जनवरी 2021 की संध्या 7 बजकर 17 मिनट पर
नोट- सभी भक्त 10 जनवरी दिन रविवार को प्रात: 07:15 से 09:21 के बीच व्रत का पारायण कर ले। इसी दिन पौष मास की कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि गोधूलि बेला में 04:52 बजे तक है।
व्रत के दौरान इन बातों का रखे खास ध्यान
- साधारण फलाहार करें। घर के दूसरे सदस्य जो व्रत नहीं कर रहे है, उन्हें भोजन में चावल और प्याज-लहसुन का सेवन ना करने दे।
- झूठ बोलने और शारीरिक संबंध बनाने से बचे। संयम के साथ कड़े ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करें।
- भूमि का शयन करते हुए ब्रह्ममूहूर्त में शयन त्याग करें। पीपल के पत्ते तोड़ने से बचे।
- दाढ़ी बाल कटवाने से बचे। साफ-सफाई के दौरान झाड़ू का इस्तेमाल वर्जित है।
- जाने-अन्ज़ाने में हर प्रकार से जीव हत्या करने से बचे। गृह क्लेश और दामपत्य जीवन के विवाद इस व्रत के फल को क्षीण कर देते है।
सफला एकादशी की कथा
सफला एकादशी की कथा का वर्णन पद्म पुराण में वर्णित कथा में आता है। जो कि इस प्रकार है। चम्पावती नगरी का राजा महिष्मान अपने पांच पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र लुम्भक के तामसिक कार्यों (Vindictive works) के बहुत उद्विग्न था। लुम्भक को मांस खाने, मदिरा पीने और पाप कर्मों में लिप्त रहने का शौक था। इन्हीं बातों को देखते हुए राजा ने लुम्भक को राज्य से बेदखल कर दिया। जिसके बाद वो वन में जाकर रहने लगा।
कालांतर में पौष की कृष्ण पक्ष की दशमी की रात्रि में कड़ाके की ठंड के मारे वो सो ना सका। प्रात:काल लुम्भक शीत प्रकोप के कारण मूर्च्छित और प्राणहीन सा हो गया। थोड़ा दिन निकलने पर उसकी चेतना लौटी। जिसके बाद वो जंगल में जाकर जंगली फल इकट्ठे करने लगा। संध्या बेला में उसने अपने दुर्भाग्य को जमकर कोसा और उसके बाद पीपल के पेड़ को भगवान विष्णु का मूर्त स्वरूप मानते हुए सभी एकत्रित फल पीपल की जड़ में रख अर्पित कर दिये।
इस तरह में वो एक बार फिर नहीं सो पाया। रात भर अपने दुर्दिनों के बारे में सोचते हुए भगवान विष्णु का मानस स्मरण करता रहा। अनायास औऱ निष्प्रयोजन ही लुम्भक से एकादशी व्रत का पालन हो गया। इस व्रत का प्रभाव से उसकी सद्वृतियां जागृत हो उठी। वो अच्छे कर्म करने के लिए जागरूक हुआ। कुछ समय बाद उसके पिता महिष्मान ने लुम्भक को बुलाकर अपना सम्पूर्ण राजपाट सौंप दिया और स्वयं वानप्रस्थ हो गये। हरिकृपा से शासन चलाने के बाद लुम्भक को भी यशस्वी पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। योग्य होने पर लुम्भक ने शासन की बागडोर अपने पुत्र को सौंप दी। शेष सम्पूर्ण जीवन भगवान विष्णु की स्तुति करने में लगा दिया। और अन्त में विष्णुलोक के पार्षदों उसे बैकुंठ ले गये। जहां वो शेषशायी भगवान विष्णु की अनन्त ज्योति में लीन हो गया।