न्यूज डेस्क : 10वीं पातशाही श्री गुरु गोबिंद सिंह (Shri Guru Gobind Singh), गुरू महाराज को पिता दशामेश, साहिब-ए-कलाम, बादशाह, संत सिपाही और दरवेश गुरु के नाम से जाना जाता है। उनके एक हाथ में माला जो कि निर्गुण ईश्वरीय सत्ता के प्रति समर्पण का प्रतीक है तो दूसरी हाथ में भाला जो कि अदम्य शूरवीरता का परिचायक है। भक्ति और शूरवीरता का संयुक्त गुण, गुरू महाराज के व्यक्तित्व का ऐसा हिस्सा जो कि बेहद विरला है। आप खुद ही गुरू है और खुद में ही चेला है। गुरू जी के हुक्मनामें में अक्सर जिक्र होता था कि, व्यवहार में मधुरता, मनोस्थिति में साधुत्व और भुजाओं में सैनिक समान बाहुबल होना चाहिए। श्री गुरू महाराज अव्वल दर्जें के लेखक, चिंतक, योद्धा और आध्यात्मिक परिपूर्णता से युक्त महापुरूष थे।
गुरू महाराज द्वारा प्रशस्त मार्ग पर पंज प्यारे और चार साहिबजादें चले और आज भी मानवता के लिए गुरू महाराज की शिक्षायें उतनी ही प्रासंगिक है। अनंतकालों तक गुरू महाराज का हुक्मनामा, शिक्षायें और शौर्य गाथायें इंसानी वजूद को मुकम्मल राहे सुझायेगीं। गुरू महाराज मां काली के अनन्य भक्त थे। इसीलिए उन्होंने चंडी चरित्र (Chandi Charitra) की रचना की। साथ ही किसी सैन्य अभियान पर जाने से पहले गुरू जी चंडी होमा करते थे। “सवा लाख से एक लड़ाऊँ चिड़ियों सों मैं बाज तड़ऊँ तबे गोबिंदसिंह नाम कहाऊँ” का जय घोष सिख वीरों में ऊर्जा का संचार कर देता था।
श्री गुरू महाराज ने 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पंथ की नींव रखकर, सिखों की आध्यात्मिक शुद्धता (Spiritual purity) के लिए पांच ककारों को धारण करना अनिवार्य कर दिया। महाराज जी की शिक्षाओं से ही प्रेरित होकर रणभूमि में सिख योद्धा बिना किसी भेदभाव के सभी को पानी पिलाते और सेवा करते। भले ही घायल व्यक्ति शत्रु पक्ष का ही क्यों ना हो। गुरू महाराज अपने तीरों में 1 तौला सोना लगाते थे। जिस लेकर वो अक्सर तर्क दिया करते थे। अगर उनके बाणों से कोई घायल हुआ तो, वो सोना बेचकर अपना इलाज़ करवा ले। अगर उनके तीरों से किसी की मृत्यु हुई तो उसके संस्कार का खर्च तीरे में लगे सोने के बेचकर हो जाये।
श्री गुरु गोबिंद सिंह ने गुरू गद्दी के लिए श्री गुरू ग्रंथ साहिब को कार्यभार सौंपा। श्री गुरू ग्रंथ साहिब गुरू परम्परा का मूर्त स्वरूप है। सभी गुरूओं और संतों की पावन वाणी और हुक्मनामा श्री गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज है। ये गुरू जी का ही प्रताप था कि चारों साहिबजादें आतयायियों के सामने झुके नहीं, बल्कि शहीद होकर निर्गुण दिव्य ज्योति में विलीन हो गये। गुरू महाराज का सैन्य कौशल आज भी शोध का विषय है। ऐसे में गुरू जी की जयन्ती पर उनकी शिक्षाओं को आत्मसात कर जीवनयापन करना ही सच्चा भक्तिभाव होगा।