एंटरटेनमेंट डेस्क (नितीन सप्रे): संगीत ना कोई विरासत, ना ही यथारीति तालीम, फिर भी जादू नगरी का यह जादूगर पचास के दशक से फिल्म संगीत प्रेमियों (Music lovers) को अपनी धुन पर थिरकने को मजबूर कर रहा हैं। हां ठीक समझा आपने, यहाँ ओ.पी. का ही ज़िक्र हो रहा है। एकलयता, एकसुरता, एकरसता सें कोसों दूर, श्रवणप्रिय, तालप्रधान गीत रचनाओं का बेताज़ बादशाह मतलब ओ. पी.। अपनी अनोखी और रसभरी संगीत रचनाओं से ओ.पी. ने हिंदी सिने संगीत के बग़ीचे को ऐसा महका दिया की चाहनेवालों के दिल कहने लगे…. बहुत शुक्रिया, बडी मेहरबानी….
ओ. पी. को जिस तरह शानदार गीतों के लिये, संगीत उपलब्धियों के लिए याद किया जाता है, उसी तरह उन्हें किसी और बात के लिए भी याद किया जाता है। हिंदी फिल्म संगीत के सबसे लयबद्ध और मधुर संगीत निर्देशकों में से एक के रूप में जाने जानेवाले ओंकार प्रसाद नैय्यर (ओ. पी. नैय्यर) जैसे महान संगीतकार ने, हिंदी फिल्म जगत की सुर साम्राज्ञी से, एक भी गीत नही गवायां। ओ.पी. जितना ही अपनी बेमिसाल संगीत रचनाओं के लिए जाने जाते हैं, उतने ही लताजी के बिना भी, सफल करिअर के लिये जाने जाते हैं।
ओ.पी. का मानना था की लता मंगेशकर एक बेहतरीन गायिका हैं, लेकिन उनकी आवाज़ किसी पतले धागे की तरह है। उन्होंने लताजी को गाने नहीं दिए, क्योंकि वह अपनी रचनाओं के लिए कुछ नटखटतापूर्ण, भावमय आवाज़ चाहते थे। उन्होंने एक साक्षात्कार में ये कहा- लता मंगेशकर को गीत न देने की बात का बतंगड केवल सनसनी फैलाने के लिए किया गया था। इस बात को माना भी जा सकता हैं. “आओ हुज़ूर तुमको”, “कभी आर कभी पार”, “मेरा नाम चिन चिन चु”, “कैसा जादू बलम तूने डारा” जैसे गानों की अभिव्यक्ति ‘होश थोड़ा, थोड़ा नशा भी, दर्द थोड़ा, थोड़ा मज़ा भी’ जैसी थोड़ी खट्टी-मीठी नटखट, रुमानी आवाज़, ओ. पी. की दिली चाहत रही होगी। शमशाद बेग़म, गीता दत्त, आशा भोसले की आवाज़ में यह खूबी उन्हें सुनाई दी और इसलिए उन्हें गाने दिए गये।
ठाणे निवासी होने के बावजूद, मुझे ओ.पी. से व्यक्तिगत रूप से मिलने, या बात करने का कभी मौका नहीं मिला। लेकिन लता दीदी के साथ एक अनुभव बताता है कि इन दो दिग्गज कलाकारों के बीच कोई झगड़ा या कड़वाहट नहीं रही होगी।
28 जनवरी, 2007 को मुंबई के पूर्वी उपनगर ठाणे में ओ.पी. का निधन हो गया। उस समय मैं दूरदर्शन के समाचार विभाग में संपादक के रूप में काम कर रहा था। जैसे ही मुझे ख़बर मिली, मैंने लता मंगेशकर से शोक संवेदनाएं कैमरा पर प्राप्त करने हेतु, दोपहर में पेडर रोड स्थित उनके प्रभुकुंज आवास पर फ़ोन किया। एक सहायक ने बताया कि बीमार होने की वजह से उस समय वह बात नहीं कर सकती। फिर शाम को लगभग 5 बजे, प्रभुकुंज से फ़ोन आया। फ़ोन पर साक्षात लता जी थीं। मैंने उन्हें ओ. पी. साहब के निधन की सूचना दी, और एक बाइट का अनुरोध किया। यद्यपि उनके खराब स्वाथ्य और कुछ अन्य कारणों से बाइट नहीं हो सकी, किंतु लता दीदी ने तहे दिल से ओ.पी. साहब के प्रति अपनी विस्तृत भावभरी संवेदना फ़ोन पर ही रिकॉर्ड करवाई, जो समाचारों में प्रसारित की गई। स्वस्थ ना होते हुए भी, लताजी की इस संवेदनशीलता से यह स्पष्ट था कि सामान्य जनों की सोच के परे, इन दो महान कलाकारों ने, बिना किसी कड़वाहट के, एक-दूसरे की महानता को स्वीकारा था।
ओ. पी. को अभिनेता बनने की चाहत थी, लेकिन वह सपना स्क्रीन टेस्ट ने बिखेर दिया। फिर उन्होंने संगीत की ओर रुख किया, लेकिन यहाँ भी, शुरू में कोई तार नहीं जुड़ सके। आगे चल कर फिल्म “कनीज़” (1949) के लिए उन्होंने पार्श्वसंगीत (Playback music) की रचना की। ‘आसमान'(1952) फिल्म द्वारा बॉलीवुड मायानगरी में, संगीत निर्देशक के रूप में ओ.पी. ने पदार्पण किया पर ‘आसमान’ बॉक्स ऑफिस पर धाराशायी हुई। ‘छम छमा छम’, गुरुदत्त की फिल्म ‘बाझ’ के गीत भी संगीत प्रेमियों के दिल पर जादू करने में कुछ नाक़ाम रहे।
फिर ओ.पी. ने निराश होकर घर वापसी का फैसला किया। लेकिन लौटने से पहले, उधारी वसूलने हेतु वे गुरुदत्त के पास गये। चूंकि गुरुदत्त के पास भी देने को पैसे नहीं थे, इसलिए उन्होंने अपनी अगली दो फ़िल्मों के संगीत दिग्दर्शन का काम देने की पेशकश की और ओ.पी. को किसी तरह वापस जाने से रोकने में गुरुदत्त क़ामयाब हो गए। यही वो स्वर्णिम क्षण था। क्योंकि गुरुदत्त ने उन्हें जो दो फ़िल्में ऑफर कीं, वो थी ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ और ‘ आरपार ‘।
इन दोनों फ़िल्मों के गानों के तीरों ने फ़िल्म संगीत प्रेमियों को इस तरह घायल किया की, ओ.पी. के सामने निराशा ने ‘ये लो मैं हारी पिया हुई तेरी जीत रे’ क़बूल किया। आगे चलकर इस नई नई प्रीत ने खूब रंग जमाया और हिंदी फ़िल्म संगीत के आकाश में ओंकाररूपी नाद का निनाद हुआ। इसके पश्चात, मोहम्मद रफ़ी और बाद में आशा भोंसले के साथ कुछ मनमुटाव होने तक, ओ.पी. यशोशिखर पर विराजमान थे।
जिस शशधर मुखर्जी ने शुरुआती दौर मे ओ. पी. की रचनाओं को सुनकर उन्हे घर वापसी की सलाह दी थी, उन्हीं के फिल्मालय ने ‘यूँ तो हमने लाख हंसी देखे हैं, तुमसा नाही देखा… ‘बहुत शुक्रिया, बड़ी मेहरबानी’ कहते हुए, ‘एक मुसाफ़िर एक हसीना’, ‘तुमसा नहीं देखा’ समेत कई फ़िल्मों को संगीत साज चढाने ओ. पी. को ही पुकारा।
अपने अव्वल, रस माधुरी से पृक्त, गीतों से सभी का दिल लुभाने वाले इस महान संगीतकार ने प्रचलित रूप मे संगीत की कोई विशेष तालीम प्राप्त नही की थी। अत: वे कभी कभी उपहास के शिकार हो जाते थे। एक स्थापित संगीतकार ने ओ.पी. के बारे में व्यंग्यात्मक टिप्पणी की थी, “इद्रक-ए-मौसिक़ी नही, चले हैं धुन बनाने” (संगीत का कोई बुनियादी ज्ञान नहीं और धुन बनाने के व्यवसाय में है) शायद ओ.पी. एकमात्र ऐसे संगीतकार थे। लेकिन अपनी अनगिनत अलौकिक और कालातीत रचनाओं से, ऐसे उपहास का ओ. पी. ने करारा जवाब दिया। उनकी कई रचनाएँ शास्त्रीय संगीत में हैं। राग पिलु से उन्हे संभवतः कुछ अव्यक्त आकर्षण था। उनकी फिल्म ‘ फगुन ‘ (1958) के, ‘छम छम घुंघरू बोले’, यह राग मधुवंती पर आधारित एक गीत को छोडकर, अन्य अधिकांश गीत राग पिलु पर आधारित हैं। ऐसा बताया जाता है कि, ओ. पी. को यह बात तभी पता चली जब स्वयं अमिर खां साहब ने इस बात का उनसे ज़िक्र किया।
अतीत में, अधिकतर गाने नायक और नायिकाओं पर ही फ़िल्माये जाते थे। ओ.पी. ने पहली बार उन्हीं की फिल्म ‘ सी.आई.डी. में “ऐ दिल है मुश्किल हैं जीना यहाँ” यह गीत हास्य अभिनेता जॉनी वाकर पर चित्रित कर, एक नई मिसाल क़ायम की।
मराठी साहित्य विश्व में गजानन माडगूळकर (गदिमा) को आधुनिक वाल्मीकि के रूप में जाना जाता है। ऑल इंडिया रेडियो, पुणे के लिए माडगूळकर द्वारा लिखे गए गीत-रामायण में, लौकिक जीवन के निर्विवाद सत्य (undisputed Truth) को एक पंक्ति में प्रस्तुत किया गया है। वह लिखते हैं “वर्धमान ते ते चाले, मार्ग रे क्षयाचा” (जो कुछ भी वृध्दींगत होने की राह पर है उसका क्षय (अस्त) तय है। ओ.पी. के करियर और व्यक्तिगत जीवन पर यह पंक्ति सटीक बैठती हैं।
ओ.पी. का जन्म 16 जनवरी,1926 को, लाहौर में हुआ। लाहौर कॉलेज मे संगीत शिक्षक और एच.एम. व्ही. कंपनी में संगीत दिग्दर्शक की नौकरी ओ.पी. ने की। 23 साल की उम्र में उन्होंने फ़िल्म ‘कनीज़’ का पार्श्व संगीत किया। संगीत निर्देशक के रूप में उनकी पहली फिल्म ‘आसमान’ थी जो 1952 में रिलीज हुई। ‘आरपार’ (1954), ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ (1955), ‘CID’ (1956) ने उन्हें सफ़लता के शिखर पर पहुँचाया।
50 और 60 के दशक में ओ.पी. ने कई बेहतरीन रचनाओं से सिने संगीत के चाहनेवालों के दिल में जगह बनाई। 1973-74 में आशा – ओपी जोड़ी ‘चैन से हमको कभी जीना, तो जीने ना दिया ‘ जैसा निहायत भावूक गीत लेकर आयी। आशा भोंसले ने इस गीत के लिए 1975 में सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायिका का फ़िल्मफेयर पुरस्कार भी जीता। लेकिन दुर्भाग्य से यह नैय्यर-भोंसले की जोड़ी का आख़िरी गीत साबित हुआ, और फिर आहिस्ता आहिस्ता जादू नगरी के इस जादूगर के जादू का असर कम होता नज़र आया। इससे पहले, मोहम्मद रफ़ी के साथ संबंध में भी दरार पड़ी थी। परिवार से नाता तो कब से और इस तरह टूट चुंका था की अपने अंतिम संस्कार में भी परिवारजनों को शामिल ना करने को ओ.पी. ने कहा था। मुंबई मायानगरी की सभी विलासिता को छोड़कर, ओ. पी. पश्चिमी उपनगर विरार चले गए। और आख़िरकार इस चोटी के संगीत निर्देशक ने, ठाणे मे होम्योपैथी की प्रैक्टिस कर जीवन यापन करना शुरू कर दिया।जिंदगी के आखरी 13 साल उन्होंने ठाणे में ही बिताये। कितना अफ़सोस होता है कि, इस सख्त अनुशासनप्रिय, मस्त कलंदर कलाकार पर, उसकी ही रचना के लफ़्ज़ “चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला तेरा मेला पीछे छूटा राही, चल अकेला” इस तरह यथार्थ हो गया।