हिन्दुत्व से पनपी द्विराष्ट्रवाद की अवधारणा और जिन्ना का Pakistan

जब भी पाकिस्तान (Pakistan) बनने की बात होती है तो उससे जुड़े द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की बात भी होती है। कोई कहता है ये जिन्ना के दिमाग की उपज थी, कोई बोलता है सावरकर ने सबसे पहले इसे फैलाया। इस सिद्धांत को सरल भाषा में यदि समझें तो ये कहता है कि हिंदू और मुसलमान दो अलग धर्म, संस्कृति, सभ्यता हैं। इसलिए दो अलग राष्ट्र हैं। ग़ौरतलब है कि अलग धर्म या खानपान के आधार पर राष्ट्र बनाने के इस फंडे को गांधी या दूसके बहुत विद्वानों ने कभी सहमति नहीं दी। आज यहां मैं आपकी इजाज़त से थोड़ा ठहरकर लिखूंगा कि ये पैदा कहां हुआ? क्या इसके जनक जिन्ना ही थे या सावरकर को यूं ही इसका श्रेय मिलता रहा है? पढ़िएगा और फिर टिप्पणी भी ज़रूर कीजिएगा। यदि थोड़ा लंबा लगे तो भी पढ़िए क्योंकि वादा है कि अंत आते आते खुद को थोड़ा सा अधिक बौद्धिक रूप से समृद्ध (Intellectually rich) पाएंगे।

अक्तूबर, 1906 में लंदन में एक ठंडी शाम चितपावन ब्राह्मण विनायक दामोदर सावरकर इंडिया हाउज़ के अपने कमरे में झींगे यानी ‘प्रॉन’ तल रहे थे। सावरकर ने उस दिन एक गुजराती वैश्य को अपने यहाँ खाने पर बुला रखा था। जो दक्षिण अफ़्रीका में रह रहे भारतीयों के साथ हो रहे अन्याय के प्रति दुनिया का ध्यान आकृष्ट कराने लंदन आए हुए थे। उनका नाम था मोहनदास करमचंद गांधी। गाँधी सावरकर से कह रहे थे कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ उनकी रणनीति ज़रूरत से ज़्यादा आक्रामक है। सावरकर ने उन्हें बीच में टोकते हुए कहा था, “चलिए पहले खाना खाइए”

बहुचर्चित किताब ‘द आरएसएस-आइकॉन्स ऑफ़ द इंडियन राइट’ लिखने वाले नीलांजन मुखोपाध्याय (Neelanjan Mukhopadhyay) बताते हैं, “उस समय गांधी महात्मा नहीं थे। सिर्फ़ मोहनदास करमचंद गाँधी थे। तब तक भारत उनकी कर्म भूमि भी नहीं बनी थी”

“जब सावरकर ने गांधी को खाने की दावत दी तो गांधी ने ये कहते हुए माफ़ी माँग ली कि, वो न तो गोश्त खाते हैं और न मछली बल्कि सावरकर ने उनका मज़ाक भी उड़ाया कि कोई कैसे बिना गोश्त खाये अंग्रेज़ो की ताक़त को चुनौती दे सकता है? उस रात गाँधी सावरकर के कमरे से अपने सत्याग्रह आंदोलन के लिए उनका समर्थन लिये बिना ख़ाली पेट बाहर निकले थे”

उपरोक्त किस्सा कई लोगों ने कई तरह सुनाया लेकिन मेरा स्रोत विक्रम संपत द्वारा लिखी जीवनी “सावरकर” है। ये किस्सा ही इतना बता देने के लिए काफी है कि सावरकर और गांधी में कितना फर्क था। सावरकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम की ऐसी शख्सियत हैं। जो एक तबके के लिए पूजनीय रहे तो दूसरे के लिए अछूत। हिंदू राष्ट्रवाद को परिभाषित करनेवाले और उसे दार्शनिक आधार देनेवाले सावरकर उस आरएसएस के लिए हमेशा प्रेरणास्रोत रहे। जिसकी सदस्यता उन्होंने कभी नहीं ली। सावरकर पर रह-रहकर विवाद होते रहते हैं।

कभी संसद में उनका तैलचित्र लगाने पर सावरकर के विरोधियों ने आपत्ति जताई तो कभी अंडमान निकोबार द्वीपसमूह की राजधानी में स्थित हवाई अड्डे को सावरकर का नाम देने पर हल्ला कटा। सिलेबस में भी सावरकर को लेकर कभी कुछ घटाया गया कभी बढ़ाया गया। पिछली बार विवाद तब छिड़ा जब साल 2020 में छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल ने कहा कि द्विराष्ट्र का सिद्धांत सावरकर ने दिया था। गौरतलब है कि द्विराष्ट्र के सिद्धांत के आधार पर ही मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग की थी और भारतीय नेतृत्व ने इसे हमेशा ही नकारा था।

असल में हिंदू राष्ट्रवादियों ने सावरकर से भी पहले इस विचार को खोजा और फैलाया था। सावरकर तो इस सिलसिले की एक कड़ी भर थे। राजनीति को एक तरफ छोड़ दें तो इतिहास के पन्नों पर वो सब दस्तावेज़ बनकर सुरक्षित हैं कि कैसे पाकिस्तान बनाने की इच्छा रखनेवाले अलगाववादियों ने इस सिद्धांत को हिंदू राष्ट्रवादियों से उधार लिया।

राजनारायण बसु और नभा गोपाल मित्रा ने की शुरूआत

श्री अरबिंदो घोष के नाना राजनारायण बसु (1826-1899) और उनके दोस्त नभा गोपाल मित्रा (1840-1894) ने जो कुछ किया वो हिंदू राष्ट्रवाद की शुरूआत कही जा सकती है। मित्रा के विचार तो बेहद ही आक्रामक थे। उनका विचार था कि राष्ट्रवाद के लिए एकता ही कसौटी है और हिंदुओं के लिए राष्ट्रीय एकता का आधार हिंदू धर्म होना चाहिए। मित्रा का मानना था कि हिंदू राष्ट्र का बनना हिंदुओं की नियति है।

श्री अरबिंदो घोष के नाना राजनारायण बसु द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत देनेवालों से गहरे जुड़े थे। वो हिंदू मेला के भी जनक थे। जो बंगाल में काफी मशहूर हुआ और वो बंगाली वर्ष के अंतिम दिन लगता था। ये मेला 1867 से 1880 तक चलता रहा। उन्होंने एक सोसायटी भी स्थापित की जो हिंदुओं के बीच काम करती थी। जो स्थानीय हिन्दू प्रबुद्ध वर्गों में हिंदू श्रेष्ठता का प्रचार करती थी।

इतिहासकार शम्सुल इस्लाम के मुताबिक मित्रा का संगठन ऐसी बैठकें आयोजित करता था। जिसमें दावे किए जाते थे कि अपनी जातिवादी व्यवस्था के बावजूद सनातन हिन्दू धर्म एक उच्चस्तरीय आदर्श सामाजिक व्यवस्था प्रस्तुत करता है, जिस तक ईसाई और इस्लामी सभ्यताएं कभी नहीं पहुंच पाईं। वो महा-हिंदू समिति की परिकल्पना करनेवाले पहले शख्स थे। उन्होंने भारत धर्म महामंडल स्थापित करने में मदद की, जो बाद में हिंदू महासभा बन गई। उनका भरोसा था कि इस संस्था के माध्यम से हिंदू भारत में आर्य राष्ट्र की स्थापना करने में समर्थ हो जाएंगे। उन्होंने ये कल्पना भी कर ली थी कि एक शक्तिशाली हिंदू राष्ट्र का उदय हो रहा है, जिसका आधिपत्य न सिर्फ पूरे भारत पर बल्कि पूरे विश्व पर होगा। उन्होंने तो यह तक देख लिया कि-

“सर्वश्रेष्ठ व पराक्रमी हिंदू राष्ट्र नींद से जाग गया है और आध्यात्मिक बल के साथ विकास की ओर बढ़ रहा है। मैं देखता हूं कि फिर से जागृत यह राष्ट्र अपने ज्ञान, आध्यात्मिकता और संस्कृति के आलोक से संसार को दोबारा प्रकाशमान कर रहा है। हिंदू राष्ट्र की प्रभुता एक बार फिर सारे संसार में स्थापित हो रही है”

इतिहासकार आरसी मजूमदार का मानना था कि- नभा गोपाल ने जिन्ना के दो कौमी नजरिये को आधी सदी से भी पहले प्रस्तुत कर दिया था। नभा गोपाल मित्रा (1840-1894) ने बंगाल में हिंदू श्रेष्ठता से जुड़े विमर्श को खूब फैलाया

भाई परमानंद ने छेड़ा था आक्रामक अभियान

हिंदू राष्ट्रवाद को मज़बूत करने में आर्य समाज की भी अपनी भूमिका थी। जो उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में गहरी हुई। उसमें भाई परमानंद (1874-1947) का भी योगदान है। वो बड़ी मात्रा में इस्लाम विरोधी लेखन करते थे। इसमें वो ये भी दोहराते थे कि भारत हिंदुओं की भूमि है। जहां से मुसलमानों को निकाल देना चाहिए।

भाई परमानंद ने यहां तक कहा था कि हिंदू धर्म को मानने वाले और इस्लाम भारत में दो अलग-अलग जन-समुदाय हैं, क्योंकि मुसलमान जिस मजहब को मानते हैं, वह अरब देश से निकला है। भाई परमानंद ने विशेष रूप से उर्दू में ऐसा लोकप्रिय साहित्य लिखा। जिसमें मुख्य रूप से कहा जाता था कि हिंदू ही भारत की सच्ची संतान हैं और मुसलमान बाहरी लोग हैं। भाई परमानंद ने मुस्लिम विरोधी साहित्य लिखकर तत्कालीन हिंदू रुझान को खूब मज़बूत किया।

वो इतने भर पर नहीं रुके बल्कि आबादी के ट्रांसफर को लेकर भी उनकी सोच साफ थी। उन्होंने अपनी आत्मकथा में एक योजना तक प्रस्तुत की थी। इसके मुताबिक-सिंध के बाद की सरहद को अफगानिस्तान से मिला दिया जाए, जिसमें उत्तर-पश्चिमी सीमावर्ती इलाकों को शामिल कर एक महान मुस्लिम राज्य स्थापित कर लें। उस इलाके के हिंदुओं को वहां से निकल जाना चाहिए। इसी तरह देश के अन्य भागों में बसे मुसलमानों को वहां से निकल कर इस नई जगह बस जाना चाहिए।

लाला लाजपत राय के लेखों में भी झलक

द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को पुष्ट करने का काम एकाध जगह लाला लाजपत राय ने भी किया। वो हिंदू महासभा, कांग्रेस और आर्य समाज के एक साथ नेता थे। उन्होंने तीस और चालीस के दशक से पहले जब पाकिस्तान की अवधारणा कागजों से निकलकर ज़मीन पर सशक्त हो रही थी। उससे पहले ही जो कुछ लिखा वो साफ इशारा करता है कि खुद वो दो राष्ट्र के सिद्धांत में भरोसा करते थे। साल 1899 में लाला जी ने हिंदुस्तान रिव्यू नामक पत्रिका में एक आलेख लिखा और बताया कि हिंदू अपने-आप में एक राष्ट्र हैं क्योंकि उनके पास अपना सब कुछ है।

1924 में उन्होंने लिखा- मेरी योजना के अनुसार मुसलमानों को चार राज्य- पठानों का उत्तर-पश्चिमी भाग, पश्चिमी पंजाब, सिंध और पूर्वी बंगाल मिलेंगे। अगर किसी दीगर हिस्से में मुसलमान इतने अधिक हों कि एक राज्य का गठन किया जा सके तो उसे भी यही शक्ल दी जाये लेकिन इतना बहुत अच्छे से समझ लिया जाना चाहिए कि यह एक संयुक्त भारत यानि यूनाइटेड इंडिया नहीं होगा। इसका अर्थ भारत का हिंदू इंडिया और मुस्लिम इंडिया में स्पष्ट विभाजन है।

लाला जी की ये पंक्तियां ज़ाहिर करती हैं कि, उनके दिमाग में हिंदू और मुसलमानों के दो अलग देश कितने साफ-साफ थे। उन्होंने पंजाब के बंटवारे का जो खाका खींचा उससे तो लगता है कि मुस्लिम अलगाववादियों ने उन्हें गंभीरता से लिया था। वो लिखते थे-

मैं एक ऐसे हल का सुझाव दूंगा, जिससे हिंदुओं और सिखों की भावनाएं आहत किए बगैर मुसलमान एक प्रभावी बहुमत पा सकते हैं। मेरा सुझाव है कि पंजाब को दो सूबों में विभाजित कर देना चाहिए। मुसलमानों की बहुसंख्या वाले पश्चिमी पंजाब में मुसलमानों का शासन हो तथा पूर्वी पंजाब जिसमें हिंदू-सिख अधिक संख्या में हैं, उसे गैर- मुसलमानों द्वारा शासित प्रदेश होना चाहिए।

मुसोलिनी से मुलाकात करनेवाले मुंजे भी कर चुके थे घोषणा

इस श्रृंखला में एक प्रमुख नाम डॉ बीएस मुंजे का भी है। जिनकी राजनीतिक शिक्षादीक्षा कांग्रेस में हुई लेकिन कालांतर में वो हिंदू महासभा से जुड़े और आरएसएस के भी प्रेरणास्रोत बने। डॉ मुंजे ने 1923 में अवध हिंदू महासभा के तीसरे अधिवेशन में कहा था– जैसे इंग्लैंड अंग्रेज़ों का, फ्रांस फ्रांसीसियों का तथा जर्मनी जर्मन नागरिकों का है, वैसे ही भारत हिंदुओं का है। अगर हिंदू संगठित हो जाते हैं तो वे अंग्रेज़ों और उनके पिट्ठुओं, मुसलमानों को वश में कर सकते हैं। अब के बाद हिन्दू अपना संसार बनाएंगे और शुद्धि तथा संगठन के दुबारा फले-फूलेंगे।.

बीएस मुंजे हिंदू महासभा के नेता थे। जो फासिस्ट शासक मुसोलिनी तक से मिल आये।

गदर पार्टी के लाला हरदयाल भी कड़ी में शामिल

इसी कड़ी में एक नाम लाला हरदयाल (1884-1938) का भी है। वो विदेश से गदर पार्टी संचालित करते थे। उनका हिंदूवादी रुझान कई लेखों से स्पष्ट होता है। 1925 में उन्होंने भारत में ना सिर्फ अलग हिंदू राष्ट्र की बात कही बल्कि अफगानिस्तान के मुसलमानों को हिंदू बनाए जाने की सलाह भी दे डाली।

‘सबरंग’ में लाल हरदयाल का एक अहम वक्तव्य छपा है। जो कानपुर से प्रकाशित ‘प्रताप’ में 1925 में छपा था। उन्होंने तब जो लिखा वो साफ-साफ वही एजेंडा है जो मुस्लिम लीग का था।

मैं यह घोषणा करता हूं कि हिंदुस्तान और पंजाब की हिंदू नस्ल का भविष्य इन चार स्तंभों पर आधारित हैः

1. हिंदू संगठन 2. हिंदू राज 3. मुसलमानों की शुद्धि तथा 4. अफगानिस्तान व सीमांत क्षेत्रों की विजय और शुद्धि

हिंदू राष्ट्र जब तक यह चारों काम नहीं करता तो हमारे बच्चों और उनकी बाद की नस्लों तथा हिंदू नस्ल सदैव खतरे में रहेंगे, इनकी सुरक्षा असंभव होगी। हिंदू नस्ल का इतिहास एक ही है और इनकी संस्थाएं एकरूपी हैं जबकि मुसलमान और ईसाई हिंदुस्तान के प्रभाव से अछूते हैं। वे अपने धर्मों तथा फारसी, अरब व यूरोपियन समाज को प्राथमिकता देते हैं, इसलिए यह बाहरी लोग हैं, इनकी शुद्धि की जाए। अफगानिस्तान और पहाड़ी इलाके पहले भारत के हिस्से थे, जो आज इस्लाम के प्रभाव में हैं। इसलिए अफगानिस्तान और आसपास के पहाड़ी इलाकों में भी हिंदू राज होना चाहिए, जैसा नेपाल में है। इसके बगैर स्वराज की बात बेकार है।

बहुत बाद में आए विनायक दामोदर सावरकर

इसी सिलसिले को जाने-अनजाने में विनायक दामोदर सावरकर ने आगे बढ़ाया। उन्होंने अपनी किताबों ‘हिंदुत्व’ और ‘हिंदुत्व के पंचप्राण’ में विस्तार से द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत में व्याख्या दी है। ‘हिंदुत्व’ जैसी किताब तो वो अंग्रेज़ों की कैद में रहकर लिख रहे थे और उन्हें इसकी पूरी इजाजत भी दी गई थी। वो किताब आज भी हिंदूवादियों के लिए रोडमैप जैसा काम करती है लेकिन उसका निष्कर्ष भाव यही है कि हिंदू अलग राष्ट्र हैं जबकि मुस्लिम अलग।

सन् 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें वार्षिक अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में सावरकर ने कहा था- फिलहाल हिंदुस्तान में दो प्रतिद्वंदी राष्ट्र पास-पास रह रहे हैं। कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मानकर गंभीर गलती कर बैठते हैं कि हिंदुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रुप में ढल गया है या सिर्फ हमारी इच्छा होने से ही इस रूप में ढल जाएगा। इस प्रकार के हमारे नेक नीयत वाले पर लापरवाह दोस्त मात्र सपनों को सच्चाईयों में बदलना चाहते हैं।

दृढ़ सच्चाई यह है कि तथाकथित सांप्रदायिक सवाल औऱ कुछ नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंदिता के नतीजे में हम पहुंचे हैं। आज यह कतई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एक एकता में पिरोया हुआ और मिलाजुला राष्ट्र है। बल्कि इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यतौर पर दो राष्ट्र हैं- हिंदू और मुसलमान।

इस तरह हम देख सकते हैं कि विनायक दामोदर सावरकर द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को आगे बढ़ाने की श्रृंखला में एक कड़ी भर हैं। जो बहुत बाद में सामने आए लेकिन चर्चित इतने ज़रूर हुए कि जिन्ना के अलावा सिर्फ उन्हें ही इस सिद्धांत का जनक माना जाता है।

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