पिछले महीने अपने गाँव में एक भोज (दावत/पार्टी) में शामिल होने का मौका मिला। भोज की अगली सुबह दरवाजे के किनारे प्लास्टिक की डिस्पोजिबल ग्लासों का एक बड़ा सा ढेर दिखा। प्लास्टिक का यह ढेर या तो मिट्टी के अंदर दबा दिया जायेगा या फिर जलाया जायेगा। दोनों ही सूरतों में यह हमारे और आपके जीवन में ज़हर ही घोलेगा। गाँव के स्वच्छ और प्राकृतिक जीवन में पहले से ही काफी ज़हर घुल चुका है। ग्राउंड वाटर (भूगर्भ जल) का स्तर निरंतर नीचे जा रहा है। गर्मी के मौसम में हर बार हाहाकार मचता है। जो ग्राउंड वाटर है भी वह भी प्रदूषित हो चुका है। लोग या तो RO लगा रहे हैं या फिर पानी की बड़ी बोतलें खरीद कर पी रहे हैं। मिट्टी में प्लास्टिक की मात्रा हर रोज़ बढ़ रही है।
यही सोचते -सोचते प्लास्टिक की डिस्पोजिबल ग्लासों के कचरे के उस ढेर में मुझे अपनी तस्वीर दिखाई दी। तस्वीर बचपन की थी। मैं अपने छोटे-छोटे हाथों में एक छोटा सा लोटा पकड़े घर के बड़ों के साथ गाँव में कहीं भोज खाने जा रहा था। मुझे लगता है कि हममें से अधिकतम लोगों को ऐसे दृश्य याद होंगें। हम सब अपने-अपने घरों से पानी का पात्र (लोटा, लोटिया या ग्लास ) और पानी साथ लेकर जाते थे। भोज खिलाने वाले के यहाँ पानी की तो व्यवस्था रहती थी लेकिन पानी का बर्तन लोग साथ में लेकर आते थे। सैंकड़ों-हजारों लोग खा लेते लेकिन पानी के कारण कोई कचरा पैदा नहीं होता था। फिर शहर से ‘पियो … फेको’ का फैशन आया और उसने गाँव के सीधे-सादे लोटे को गँवार घोषित कर दिया। हम मॉडर्न हो गए और मॉडर्न होने के चक्कर में प्लास्टिक का इतना कचरा पैदा कर लिया कि गाँवों की स्वच्छता और प्रकृति दोनों को खतरे में डाल दिया।
बड़ी आसानी से फिर से लोटे की ओर लौटा जा सकता है। विशेष रूप से गाँवों में। सबको यह परंपरा याद होगी। हमें बस अपनी एक भूल सुधारनी है। एक अच्छी परंपरा जिसे हमने कुछ समय के लिए छोड़ दिया था उसे फिर से अपनानी है। और हाँ, लौटना बहुत जरूरी है। नहीं तो फैशन और मॉडर्न होने के चक्कर में हम अपनी सारी अच्छी चीजें खत्म कर लेंगे। जरा सोचिये कि केवल लोटे की ओर लौटने मात्र से कितनी बड़ी मात्रा में प्लास्टिक कचरे से मुक्ति मिल सकती है। गाँव की सादगी शहरों को बहुत
कुछ सिखा सकती है।
इस दिशा में स्कूलों और शिक्षकों की बड़ी भूमिका हो सकती है। प्रबुद्ध लोगों के साथ-साथ हमारे बच्चे इस परिवर्तन के प्रेरक बन सकते हैं।
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