पूर्व पीएम चौधरी चरण सिंह के बेटे और पूर्व सांसद जयंत चौधरी के पिता चौधरी अजीत सिंह (Chaudhary Ajit Singh) ने कोरोना से लड़ते हुए दम तोड़ दिया। यूपी वाले और खासकर पश्चिमी यूपी वाले जानते हैं कि, इस पूरे क्षेत्र की सियासत ने आज क्या खो दिया। चौधरी साहब किसानों और खास तौर पर जाट समुदाय (Jat community) के नेता थे। मुसलमानों के बीच हाल तक उनके समर्थक भारी मात्रा में मौजूद रहे क्योंकि कुल मिलाकर उनकी राजनीति मोटामाटी सेक्युलर ही थी। मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के बाद से उनकी पार्टी का ग्राफ बुरी तरह नीचे गिरा और गिरता ही गया जो अब पंचायत चुनाव में थोड़ा संभलता दिखा।
चौधरी साहब अपने पिता के बीमार होने के बाद राजनीति में ज़्यादा सक्रिय हुए थे और ये 1980 के आखिरी सालों का वक्त था। वीपी सिंह को ताकत देने का सिलसिला जो तब चला तो फिर केंद्र और सूबे की सरकारों को टिकाने-गिराने में वो अहम रोल निभाते रहे। बागपत की सीट से वो लोकसभा पहुंचते रहे। कभी उद्योग तो कभी खाद्य मंत्रालय संभाले। 2001 में वाजपेयी सरकार के अंतिम समय में तो अपना पसंदीदा कृषि मंत्रालय भी मिला। केंद्रीय मंत्री के रूप में वो अंतिम बार मनमोहन सरकार में उड्डयन मंत्रालय संभाल रहे थे। चौधरी अजीत सिंह ने लोकदल और कांग्रेस की राजनीति छोड़कर 1996-97 में राष्ट्रीय लोकदल बनाई थी जिसका निशान था हैंडपंप। आप पश्चिमी यूपी का एक दौरा कीजिए और तब समझ पाएंगे कि, सत्ता से दूर होकर भी इस चुनाव चिन्ह और अजीत सिंह की लोकप्रियता कितनी है।
शुरू में किसी को नहीं लगा था कि वो किसान नेता के रूप में स्थापित हो सकेंगे। उनके ऊपर इंदिरा को टक्कर देनेवाले और फिर कांग्रेस से धोखा खानेवाले पिता की विरासत संभालने की अहम ज़िम्मेदारी थी। वैसे आईआईटी खड़गपुर से कंप्यूटर साइंस (Computer science) पढ़कर अजीत सिंह अमेरिका चले गए थे। वहां उन्होंने तकनीक पर अपनी पढ़ाई जारी रखी और बाद में आईबीएम को सेवा दी। आखिरकर अमेरिका में 17 साल गुज़ारकर वो देश तब लौटे जब चरण सिंह बीमार पड़े थे। किसे उम्मीद थी कि बाबू साहब का जीवन जीने वाले अजीत यूपी के देहात में ठेठ जाट अंदाज़ के साथ राजनीति कर लेंगे। वो भी ऐसे समय में जब उनके पिता विपक्ष हो चुके थे। कुछ भी आसान नहीं था। चरण सिंह ने हर समय वंशवादी राजनीति की तीखी आलोचना की थी। राजीव गांधी के पीएम बनने के वक्त जैसा माहौल था, उसमें विपक्षियों ने चुप्पी बनाए रखी लेकिन चरण सिंह तो मुखर थे।
ऐसे में वो शुरूआती दिनों में अजीत सिंह की पॉलिटिकल एंट्री पर सहज नहीं थे। मगर पार्टी में उनके सहयोगी चाहते थे कि नौजवान और पढ़े लिखे अजीत ठीक उनकी ही तरह अराजनैतिक राजीव गांधी का सामना करें। एक और बात थी। लोकदल के सब नेता जानते थे कि, चरण सिंह की राजनीतिक विरासत अजीत ही संभाल सकते हैं। रामविलास पासवान, मुलायम सिंह यादव, देवीलाल, कर्पूरी ठाकुर कभी भी अजीत सिंह के विकल्प नहीं हो सकते थे। ना यूपी में उनका दबदबा हो सकता था और ना उस वर्ग में जिसके नेता चरण सिंह थे। तब ये सभी क्षेत्रीय क्षत्रप के रूप में देखे जाते थे, लेकिन अजीत सिंह ऐसे नेता के बेटे थे जो प्रधानमंत्री रहा था सो उनके रोल को राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाने लगा था।
ये बाद की बात है कि लोकदल खत्म होने के बाद सभी नेताओं ने अपने अलग ठिकाने बनाए और अजीत सिंह ने अलग। कुछ समय केंद्रीय राजनीति में टिके रहकर वो मुख्यतः प्रदेश पर फोकस करते रहे। पूरे करियर में भले ही वो कभी एनडीए और कभी यूपीए में मंत्री बने लेकिन यूपी में सीएम की कुरसी तक नहीं पहुंचे। सरकार में रहने की उनकी इच्छा के चलते वो पाले ज़रूर बदलते रहे। बदलते हालात में उनकी राजनीति पश्चिमी यूपी के कुछ ज़िलों तक ही सिमटकर रह गई। खुद वो अपनी लोकसभा सीट तो हारे ही, बीजेपी के हाथों बेटे जयंत की सीट भी गई। वैसे रालोद की कमान कई सालों से जयंत चौधरी के हाथों में ही है, जो पिता की तरह विदेश में पढ़कर लौटे थे।
2009 में वो मथुरा से सांसद हुए पर उसके बाद सीट बदलकर भी संसद नहीं पहुंच सके। तीस साल की उम्र में संसद पहुंचे जयंत से रालोद को जो उम्मीदें थीं, वो अब तक पूरी नहीं हो सकीं हालांकि किसान आंदोलन में उनके तेवर देखकर पश्चिमी यूपी में उनका संगठन हलचल करने लगा है। कई राजनीतिक जानकार कहते हैं कि, किसान आंदोलन में जो भूमिका राकेश टिकैत निभा रहे हैं वो जयंत को निभानी थी। अब चौधरी अजीत सिंह जा चुके हैं तो जयंत को अपने दादा और पिता दोनों की विरासत आगे बढ़ानी है। उनके लिए वो पाना चुनौती होगी जो दादा ने हासिल किया और वो पाना भी जिसे पिता पा नहीं सके।