मन से दूसरे का अहित सोचना, वचन से दूसरे के प्रति कुशब्दों का उच्चारण कर देना तथा शरीर से दूसरे को किसी प्रकार की हानि पहुँचा देना ही पाप (Paap) है। पाप किसी प्रकार का हो, अपने मन में अशाँति उत्पन्न करता ही है।
जिन कर्मों से मनुष्य नीचे गिरता है, उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, उसे पाप कहते हैं। इसके विपरीत जिन शुभ कर्मों को करने से बुद्धि स्वच्छ, निर्मल होने लगती है और आत्मा सन्तुष्ट रहती है, वे पुण्य हैं। पाप से मन में कुविचार और कुकर्मों के प्रति कुवृत्ति उत्पन्न होती है, पुण्य से अन्तःकरण शुद्ध होता है।
हिन्दू धर्म में पाप प्रायश्चित का ही नाम है। गंगा में स्नान के बारे में जो कहा गया है, उसका मतलब केवल ये है कि उससे हमारी पाप करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगे, हमारा पाप करने को जो मन चलता है, वह न चले, भविष्य में हम वे सब काम न करें, जिससे हमारे अहम् को प्रेरणा मिल जाये, प्रोत्साहन मिल जाये, वातावरण मिल जाये, ये मतलब है। ये मतलब नहीं है कि आप भूतकाल में जो कर चुके हैं, उसके दण्डों से आपको राहत मिल जाएगी। ऐसा नहीं हो सकता। आपके ऊपर जो बुरे कामों का किया हुआ कर्ज है, उससे भी निपटिये और जिन बुरे कर्मों का वातावरण बना रखा है, जरा उसको भी ठीक कीजिये। आपने जो-जो गलतियाँ कर रखी हैं, जरा उनको भी फिर से एक बार सुधारिये। नहीं सुधार पायेंगे, तो भावी उन्नति का दरवाजा बन्द है।
आप आध्यात्मिक उन्नति के लिए पूजा करते हैं, आप उपवास रखते हैं, बहुत अच्छी बात, आप अनुष्ठान (ritual) करते हैं, इससे अच्छी बात क्या हो सकती है। लेकिन इसके साथ-साथ ये मत भूलिए कि इनके जो मुनासिब लाभ हैं, वो आपको उस समय तक नहीं मिल सकेंगे जब तक कि पिछले वाले बुरे कर्म ना कट जाये। पिछले वाले पाप एक ऐसा वातावरण बनाते हैं, जिससे न आपकी पूजा सफल हो सकती है, न उपासना सफल हो सकती है, न आपका मन लग सकता है, न ध्यान लग सकता है।
क्यों? क्योंकि आपको दण्ड मिल रहे हैं। दण्ड नहीं मिलेंगे तो आपका ध्यान लग जायेगा। ध्यान लग जायेगा फिर पाप का दण्ड कहाँ जाएगा? इसीलिए वो आसुरी शक्तियाँ (demonic forces) शुभ-कर्मों में बराबर विघ्न उपस्थित करती रहती है।
आसुरी शक्तियों से क्या मतलब है? आसुरी शक्तियों से कोई मतलब नहीं है, आपका किसी से वैर नहीं है, फिर कोई आपको बेकार ही परेशान नहीं कर सकता। आसुरी शक्तियाँ बेकार ही परेशान क्यों करेंगी? केवल आपके पाप कर्म ही वो आसुरी शक्तियाँ हैं, जो आपको परेशान कर देती हैं और आपको अच्छे कर्म में सफलता मिलने पर अवरोध खड़ा कर देती हैं, उनसे आपको लड़ना ही पड़ेगा। भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए आप जप करते हैं, तप करते हैं, अनुष्ठान करते हैं—भगवान को प्राप्त करने के लिये, मनोकामनाएँ पूरी करने के लिये तो फिर उज्ज्वल भविष्य में रुकावट डालने वाले जो पिछले वाले पाप कर्म हैं, वही हैं, आसुरी शक्तियाँ उन्हीं का नाम है।
उन आसुरी शक्तियों से निपटने की भी कोशिश नहीं करेंगे, तो वो हमला करके आपके अच्छे प्रयासों को नष्ट करके रख देंगी।
उदाहरण के तौर पर खेती आपने की है। जंगली जानवर जो हमला करते हैं, तो रातभर में सारी की सारी फसल को खा-पी करके बराबर कर देते हैं। आप जानवरों को रोकेंगे नहीं? कृपा करके रोकिये, नहीं तो फिर ये हो जाएगा कि आप चाहे जितना पानी लगाते रहिये, खाद लगाते रहिये, बीज बोते रहिये, फसल के नाम पर आपको कोई भी चीज हाथ लगने वाली नहीं है।
हमें अपने बुरे कर्म फल को काटने के लिए अच्छे कर्म करने चाहिये। अपनी आराध्य देव- देवी जी की शरण में जाना चाहिये ओर उनके आगे अपने बुरे कर्मों का प्रायश्चित करना चाहिये।
बुरे कर्मों का प्रायश्चित ऐसे करे अपनी आराध्य देवी के समक्ष।
न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाहानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथा:
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्।।
हे माँ! मैं न मंत्र जानता हूँ और न ही यंत्र। मुझे तो आपकी स्तुति का भी ज्ञान नहीं है। ना आह्वान का पता है और न ही ध्यान का। आपकी स्तुति और कथा की भी जानकारी मुझे नहीं है। मैं ना तो तुम्हारी मुद्राएँ जानता हूँ और न ही मुझे व्याकुल होकर विलाप करना ही आता है परंतु, एक बात जानता हूँ कि केवल तुम्हारा अनुसरण करने से ही तुम मेरी सारी विपत्ति और क्लेशों को दूर कर दोगी।
विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्।
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणी शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।।
सबका उद्धार करनेवाली कल्याणमयी माता! मैं आपको पूजने की विधि नहीं जानता। मेरे पास धन का भी अभाव है। मैं स्वभाव से ही आलसी हूँ तथा मुझसे ठीक-ठीक पूजा का सम्पादन हो भी नहीं सकता। इन सब कारणों से तुम्हारे चरणों की सेवा में मुझसे जो भी त्रुटि रह गयी हो उसे क्षमा करना क्योंकि इस संसार में पुत्र कुपुत्र हो सकता है किंतु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती।
पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहव: सन्ति सरला: परं तेषां मध्ये विरलतरलोअहं तव सुत:।
मदीयोअयं त्याग: समुचितमिदं नो तव शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।
माँ इस पृथ्वी पर तुम्हारे सीधे-सादे पुत्र तो बहुत से हैं, किंतु उन सबमें मैं ही तुम्हारा बालक हूँ जो अत्यंत चपल है। मेरे जैसा चंचल कोई विरला ही होगा। शिवे मेरा जो ये त्याग हुआ है ये तुम्हारे लिए कदापि उचित नहीं है क्योंकि संसार में कुपुत्र का होना तो सम्भव है परंतु माता कभी कुमाता नहीं होती।
श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा निरातंड़्को रड़्को विहरति चिरं कोटिकनकै: ।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं जन: को जानीते जननि जपनीय जपविधौ।।
माता अपर्णा तुम्हारे मंत्र का एक अक्षर भी कान में पड़ जाये तो उसका फल यह होता है कि मूर्ख चाण्डाल भी मधुपाक के समान मधुर वाणी का उच्चारण करनेवाला उत्तम वक्ता हो जाता है, दीन मनुष्य भी करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं से सम्पन्न हो चिरकाल तक निर्भय होकर विहार करता रहता है। अगर मंत्र के एक अक्षर के श्रवण का ऐसा फल है तो जो लोग विधिपूर्वक जप में लगे रहते हैं उनके जप से प्राप्त होनेवाला फल कैसा होगा। इसको कौन मनुष्य जान सकता है।
मत्सम: पातकी नास्ति पापघ्नी त्वसमा न हि। एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरू।।
महादेवी! मेरे समान कोई पापी नहीं है और तुम्हारे जैसा कोई पापहारिणी नहीं है। ये समझ कर तुम जैसा उचित समझो वैसा करो।