“दान का महत्व”
एक बार की बात है कि श्री कृष्ण (Shri Krishna) और अर्जुन कहीं जा रहे थे। रास्ते में अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा कि प्रभु- एक जिज्ञासा है मेरे मन में, अगर आज्ञा हो तो पूछूँ ? श्री कृष्ण ने कहा- अर्जुन , तुम मुझसे बिना किसी हिचक, कुछ भी पूछ सकते हो। तब अर्जुन ने कहा कि मुझे आज तक ये बात समझ नहीं आयी है कि दान तो मैं भी बहुत करता हूँ परन्तु सभी लोग कर्ण को ही सबसे बड़ा दानी क्यों कहते हैं ? यह प्रश्न सुन श्री कृष्ण मुस्कुराये और बोले कि आज मैं तुम्हारी ये जिज्ञासा अवश्य शांत करूँगा। श्री कृष्ण ने पास में ही स्थित दो पहाड़ियों को सोने का बना दिया। इसके बाद वह अर्जुन से बोले कि हे अर्जुन इन दोनों सोने की पहाड़ियों को तुम आस पास के गाँव वालों में बाँट दो।
अर्जुन प्रभु से आज्ञा ले कर तुरन्त ही ये काम करने के लिये चल दिया। उसने सभी गाँव वालों को बुलाया और उनसे कहा कि वो लोग पंक्ति बना लें अब मैं आपको सोना बाटूँगा और सोना बाँटना शुरू कर दिया। गाँव वालों ने अर्जुन की खूब जय जयकार करनी शुरू कर दी। अर्जुन सोना पहाड़ी में से तोड़ते गये और गाँव वालों को देते गये।
लगातार दो दिन और दो रातों तक अर्जुन (Arjun) सोना बाँटते रहे। उनमें अब तक अहंकार आ चुका था। गाँव के लोग वापस आ कर दोबारा से लाईन में लगने लगे थे। इतने समय पश्चात अर्जुन काफी थक चुके थे। जिन सोने की पहाड़ियों से अर्जुन सोना तोड़ रहे थे, उन दोनों पहाड़ियों के आकार में जरा भी कमी नहीं आई थी। उन्होंने श्री कृष्ण जी से कहा कि अब मुझसे ये काम और न हो सकेगा। मुझे थोड़ा विश्राम चाहिए। प्रभु ने कहा कि ठीक है तुम अब विश्राम करो और उन्होंने कर्ण बुला लिया। उन्होंने कर्ण से कहा कि इन दोनों पहाड़ियों का सोना इन गांव वालों में बाँट दो।
कर्ण तुरन्त सोना बाँटने चल दिये। उन्होंने गाँव वालों को बुलाया और उनसे कहा- ये सोना (Gold) आप लोगों का है, जिसको जितना सोना चाहिये वह यहाँ से ले जाये। ऐसा कह कर कर्ण वहाँ से चले गये। ये देख कर अर्जुन ने कहा कि ऐसा करने का विचार मेरे मन में क्यों नही आया ?
इस पर श्री कृष्ण ने जवाब दिया कि तुम्हे सोने से मोह हो गया था। तुम खुद ये निर्णय कर रहे थे कि किस गाँव वाले की कितनी जरूरत है। उतना ही सोना तुम पहाड़ी में से खोद कर उन्हें दे रहे थे। तुम में दाता होने का भाव आ गया था। दूसरी तरफ कर्ण ने ऐसा नहीं किया। वह सारा सोना गाँव वालों को देकर वहाँ से चले गए। वो नहीं चाहते थे कि उनके सामने कोई उनकी जय जयकार करे या प्रशंसा करे। उनके पीठ पीछे भी लोग क्या कहते हैं उससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता। ये उस आदमी की निशानी है जिसे आत्मज्ञान (Enlightenment) मिल हो चुका है। इस तरह श्री कृष्ण ने खूबसूरत तरीके से अर्जुन के प्रश्न का उत्तर दिया, अर्जुन को भी अब अपने प्रश्न का उत्तर मिल चुका था।
निष्कर्ष:- दान देने के बदले में धन्यवाद या बधाई की उम्मीद करना भी उपहार नहीं सौदा कहलाता है। अगर हम किसी को कुछ दान या सहयोग करना चाहते हैं तो हमें ये बिना किसी उम्मीद या आशा के करना चाहिये। ताकि ये हमारा सत्कर्म (Good Deeds) हो,न कि हमारा अहंकार