Film Review: दलित राजनीति और मद्रास के पीरियोडिक बैकड्रॉप पर शानदार फिल्म ‘सरपट्टा परमबराई’

बॉक्सिंग पर बनी फिल्मों (Films) में सबसे ज़रूरी तत्व है adrenaline rush का होना। यानि धमनियों में बहता वो जोश जो ना सिर्फ़ फ़िल्म के किरदारों में होना चाहिये बल्कि फ़िल्म के स्क्रिप्ट, डायलॉग और निर्देशन में भी दिखना चाहिये। दर्शकों को मज़ा एक लाइव बॉक्सिंग मैच देखने जैसा मिलना चाहिये लेकिन फिर दर्शक फ़िल्म क्यों देखे, लाइव मैच ही देख ले!

असल में एक अच्छी फ़िल्म बनती है उसके किरदारों के जीवन संघर्षों से, उनकी जीवंतता से और उनके आसपास के समाज के सटीक चित्रण से। इसीलिए ‘Raging Bull’ एक महान फ़िल्म है। ‘On the Waterfront’ की कहानी बॉक्सिंग के इर्द-गिर्द ज़रूरी बुनी गई है लेकिन स्क्रिप्ट कई स्तरों पर फ़िल्म को खेल से परे, बहुत ऊपर ले जाती है। उसी तरह ‘Million Dollar Baby’ प्रिडिक्टेबल होने के बावजूद बेहतर निर्देशन और उम्दा अभिनय के बलबूते एक शानदार फ़िल्म बन जाती है। वहीं इस आधार पर ‘तूफ़ान’ कमज़ोर साबित होती है।

तमिल निर्देशक पा रंजीत की फ़िल्म ‘सरपट्टा परमबराई’ देखते हुए बॉक्सिंग पर देखी अनगिनत फिल्में याद आ जाती है। फ़िल्म में adrenaline rush कूट कूट कर भरा हुआ है। लगभग तीन घंटे की ये फ़िल्म बेहद फास्ट है और कसे निर्देशन की बदौलत दर्शकों को बांध कर रखने की पूरी क्षमता रखती है। लेकिन पा रंजीत से अब हम सिर्फ़ एक अच्छी फ़िल्म की उम्मीद नहीं करते।

रंजीत खुल कर दलित-द्रविड़ राजनीति (Dalit-Dravidian politics) के समर्थक हैं। वो फ़िल्म के कमर्शियल पहलू के साथ कोई समझौता नहीं करते और साफ साफ अपनी विचारधारा को दर्शकों के सामने रखने से भी नहीं कतराते। अपनी पिछली फिल्म काला में उन्होंने रजनीकांत के aura और अपनी राजनीति का अव्वल मिश्रण किया था। लेकिन 'सरपट्टा परमबराई' पूरी तरह से राजनीतिक फ़िल्म नहीं कही जा सकती। निर्देशक ने subtle रूप से काफ़ी कुछ दिखाया है लेकिन मूल रूप से ये एक खेल पर आधारित फिल्म है।

'Rocky' की तरह बॉक्सिंग इसकी कहानी के केंद्र में है। कहानी नयी नहीं है। दो प्रतिद्वंद्वी बॉक्सिंग 'अखाड़ों' के बीच भारी बैर है। उनके बीच अक्सर मुकाबले होते रहते हैं। उनके कोच अपने सबसे अच्छे शिष्यों का मुकाबला करवाते हैं। नायक कबिलन अपने अखाड़े के साथ साथ अपने समुदाय का भी प्रतिनिधि है। उसके सामने कई समस्याएं आती हैं। लेकिन अंततः जीत उसी की होती है। तीन चार लाइनों में यही फिल्म की कहानी है। लेकिन इससे परे ये फिल्म कई अन्य कारणों से ख़ास है। पा रंजीत ने सत्तर के दशक के मद्रास को जीवंत कर दिया है। लोकल बॉक्सिंग की परंपरा को बेहतरीन प्रोडक्शन डिजाइन के जरिये दिखाया गया है। सत्तर-अस्सी के दशक तक ये परंपरा कुछ ऐसी ही थी जैसे हरियाणा में दंगल की परंपरा। इस लिहाज़ से 'सरपट्टा परमबराई' एक बहुत अच्छी period फ़िल्म है।

फ़िल्म को खास बनाता है बैकड्रॉप में डाला गया उस समय का राजनीतिक माहौल। आपातकाल (Emergency) के बाद करुणानिथि इंदिरा गांधी के सामने नहीं झुके। उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। डीएमके के सभी छोटे-बड़े नेताओं को मीसा कानून के अंतर्गत जेल में डाल दिया गया। फ़िल्म उस दौर की द्रविड़ राजनीति की अडिगता को celebrate करती है। एमजीआर के कांग्रेस के साथ आने की निंदा भी की गई है। पा रंजीत इस फ़िल्म में जाति पर खुलकर तो कुछ नहीं कहते लेकिन नायक की शादी पर पेरियार की राजनीति का असर ज़रूर दिखता है। कबिलन की शादी में नवदंपति बुद्ध, पेरियार, अंबेडकर और करुणानिधि की फोटो के साथ तस्वीर खिंचवाते हैं। नायक जब आख़िरी मुकाबला जीतता है तो एक आदमी चिल्लाता है, 'ये हमारी (मतलब पूरे समुदाय की) जीत है।'

आख़िरी मुकाबले में नायक नीले रंग के कपड़ों के होता है। इसके अलावे दीवारों पर लगे पोस्टर उस समय की द्रविड़ और दलित राजनीति को दर्शाते हैं। मुझे तमिल पढ़ना नहीं आता इसलिए ये तो नहीं कह सकता कि उन पोस्टरों पर क्या लिखा था लेकिन बार-बार पेरियार, अंबेडकर और करुणानिधि दिखते हैं। लेकिन ये सब बैकड्रॉप में ही रहता है। 'सरपट्टा परमबराई' मूलतः बॉक्सिग पर बनी एक कमर्शियल फ़िल्म है।

अभिनय के लिहाज़ से सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं कोच के रोल में पशुपति। कबिलन की पत्नी के रोल में दुशारा विजयन ने काफी अच्छा अभिनय किया है।

फ़िल्म की कमियों की बात करें तो नायक आर्य rowdy ज़रूर दिखते हैं लेकिन उनका अभिनय कई महत्वपूर्ण दृश्यों में कमज़ोर पड़ जाता है। ख़ासकर इमोशनल दृश्यों में। फ़िल्म का पहला हाफ छोटा हो सकता था। टाइट निर्देशन और उम्दा एडिटिंग को इससे फायदा ही मिलता। तीसरी सबसे बड़ी खामी है फ़िल्म के किरदारों का multi-layered ना होना। यही फ़र्क Rocky और Raging Bull में है।

इस फ़िल्म को देखते हुए मज़ा तो बहुत आता है लेकिन कोई भी फ़िल्म यादगार बनती है उसके किरदारों के चरित्र चित्रण यानी characterization से। फ़िल्म इस मामले में कमतर है। यहीं पर सबसे ज़्यादा मार खाती है। सरपट्टा परमबराई में मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी हम किरदारों की गहराई नहीं देख पाते।  Fight Club मनोवैज्ञानिक स्तर पर ऐसी अलग दुनिया रच देती है कि बाकी कमियों को हम भूल जाते हैं। यहां ऐसा कुछ भी नहीं होता।

लेकिन पा रंजीत की निर्देशन के लिहाज से ये एक बहुत अच्छी फ़िल्म है। विचारधारा की बात करें तो ये काला के सामने नहीं ठहरती। लेकिन राजनीति की बात को नज़रअंदाज़ कर दे तो ये काला के मुकाबले इक्कीस ही है। और कबाली से तो कई गुना बेहतर। फुल पैसा वसूल!

फ़िल्म के अंत में जो credits आते हैं उसमें 70 के दशक के अखबारों में छपी बॉक्सिंग की खबरों की कतरने दिखती हैं और उस समय के बॉक्सरों की तस्वीरें भी। 1980 में मोहम्मद अली मद्रास आए थे। कुछ तस्वीरों में मोहम्मद अली, एमजीआर और लोकल बॉक्सरों साथ भी दिखते हैं। अगर फ़िल्म देखने वाले हैं तो ये मिस नहीं करियेगा।

साभार- अभिनव सब्यासाची (वरिष्ठ रंगकर्मी/ फिल्म समीक्षक)

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