Taliban: पश्चिमी जंगी ताकतों की बेरूखी और सिर उठाते तालिबानी सिपहसालार

अफगानिस्तान में तालिबान (Taliban) पहले से ज्यादा ताकतवर हो गया है और अगर इसे नहीं रोका गया तो अफगानिस्तान जल्द ही एक और सीरिया बन जायेगा और इसके लिए अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश जिम्मेदार होंगे। अफगानिस्तान के करोड़ों लोगों को खतरे में डालने के बाद ये मुल्क तालिबान से कह रहे हैं कि उन्हें अपना दूतावास (Embassy) खाली करने दे और और अफगानिस्तान के साथ जो कुछ भी करना है वो करें। अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन जैसे देश दूतावासों में फंसे अपने नागरिकों को बाहर निकालने के लिये अपने 3,000 सैनिकों को अफगानिस्तान भेज रहे हैं।

ये सैनिक अफगानिस्तान के लोगों की रक्षा करने के लिये नहीं बल्कि अपने देश के नागरिकों को निकालने के लिए जा रहे हैं। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि अमेरिका और उसके सहयोगियों ने तालिबान के साथ समझौता कर लिया है। इस समझौते का असर ये हुआ है कि तालिबान ने अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में से 18 की राजधानियों पर कब्जा कर लिया है।

तालिबान के ये लड़ाके महलों में दावत उड़ा रहे हैं वे एम्यूजमेंट पार्कों (Amusement Parks) में नाच रहे हैं। हाल ही में तालिबान ने अफगानिस्तान के 10 शहरों पर कब्जा कर लिया है। इनमें लश्कर गाह और कंधार जैसे अहमों शहर शामिल हैं। अफगानिस्तान के दूसरे सबसे बड़े शहर कंधार को अब तालिबान ने चारों तरफ हाईजैक कर लिया है।

इतना ही नहीं हेरात शहर के पास भारत द्वारा बनाये गये सलमा बांध (Salma Dam) को भी तालिबान ने अपने कब्जे में ले लिया है। इसे अफगान-भारत मैत्री बांध (Afghan-India Friendship Dam) भी कहा जाता है। भारत ने इस बांध को बनाने के लिए 2,200 करोड़ रुपये खर्च किये थे और इसका उद्घाटन साल 2016 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने किया था। तालिबान अगर इस बांध का पानी रोक देता है या इसे नुकसान पहुंचाता है तो इसका असर अफगानिस्तान में रहने वाले करीब 40 हजार परिवारों पर पड़ेगा।

भारत ने अफगानिस्तान में करीब 23,000 करोड़ रुपये का निवेश किया है और इस मुल्क पर तालिबान के कब्जे का साफ मतलब होगा इस निवेश का पूर्ण नुकसान। सलमा बांध पर कब्जा करके तालिबान ने भारत को एक संकेत देने की कोशिश की है और अगर ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन तालिबान काबुल में मौजूद अफगानिस्तान की संसद पर भी कब्जा कर लेगा जिसका निर्माण भी भारत ने ही किया था। इसके अलावा स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया को अफगानिस्तान के बामियान शहर में 70,000 करोड़ रुपये का निवेश करना है लेकिन अब ये निवेश भी खटाई में पड़ता दिख रहा है।

मजार-ए-शरीफ शहर पर भी कब्जे की लड़ाई भी चल रही है और ये शहर भारतीय निवेश के लिए भी काफी अहम है। भारत ने ईरान में जो चाहबहार बंदरगाह (Chabahar Port) बनाया, उसे अफगानिस्तान के रास्ते मध्य एशिया से जोड़ने की योजना है और फिर वहीं रास्ता यूरोप को जाता है। पाकिस्तान इस पूरे रास्ते से पूरी तरह बाहर है इसलिए भारत के लिए ये रास्ता बेहद अहम है। आप इसे भारत की वन बेल्ट वन रोड योजना भी कह सकते हैं। मजार-ए-शरीफ, कंधार और जरांज शहर भारत की इस योजना का हिस्सा है और अब तालिबान ने तीनों शहरों पर कब्जा कर लिया है।

जानकारों का मानना ​​है कि अगले 30 दिनों में तालिबान अफगानिस्तान की राजधानी काबुल भी पहुंच जायेगा और 90 दिनों भीतर तालिबान काबुल पर भी कब्जा कर लेगा। ये पाकिस्तान को छोड़कर किसी भी देश के लिए अच्छी खबर नहीं है। अफ़ग़ानिस्तान के लोग अपना सब कुछ खो रहे हैं। वे अपना घर, अपने सपने और अपनी इच्छाएं खो रहे हैं। अफगान नागरिकों को फिर से भेड़ियों के सामने रखा गया है। उनके पास और कहीं जाने का रास्ता भी नहीं है।

साल 2001 में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को उखाड़ फेंकने के बाद से 20 साल हो गये हैं। अब जब अमेरिका के अगुवाई वाली विदेशी सेनाओं के अफगानिस्तान छोड़ने से पहले तालिबान पिछले दो दशकों में युद्धग्रस्त देश (War-Torn Country) पर शासन का दावा करने के करीब कभी नहीं रहा।

तालिबान तेजी से जमीन हासिल कर रहा है। अनुमान बताते हैं कि ये संगठन देश के लगभग तीन-पांचवें हिस्से पर नियंत्रण रखता है। नाटो के अनुसार साल 2001 में तालिबान के पतन के बाद से आज वो पहले के मुकाबले काफी मजबूत स्थिति में है। मौजूदा वक़्त में इस आंतकी संगठन के पास अलग अलग ओहदों पर 85,000 लड़ाके हैं। अफगानिस्तान में तालिबान और राष्ट्रपति अशरफ गनी के अगुवाई वाली लोकतांत्रिक रूप से चुनी गयी सरकार के बीच एक चौतरफा गृहयुद्ध (Civil War) के बादल मंडरा रहे है। इस खूनी संघर्ष में पहले से ही हजारों लोगों की जान जा चुकी है। इस दौरान अफगानी आवाम लाखों की तादाद में विस्थापित होने के लिये मज़बूर है।

यूएस इंटेलिजेंस को डर है कि तालिबान कुछ ही महीनों में सरकार को गिरा सकते है, साथ ही अफगानिस्तान को इस्लामिक देश बनाने के अपने विचार से भी पलटी मार सकते है।

जानिये आख़िर क्या है Taliban

'तालिबान' पश्तो शब्द है जिसका अंग्रेजी में मतलब है 'छात्र'। साल 1990 के दशक की शुरुआत में तालिबान एक इस्लामी आंदोलन के रूप में उभरा और इसके गठन संभावित तौर पर उत्तरी पाकिस्तान में किया गया। तालिबान की पैदाइश साल 1970 के दशक के आखिर में मानी जाती है। जब अफगानिस्तान के तत्कालीन हजारों अफगान भाड़े के सैनिकों ने पाकिस्तान में ट्रेनिंग लेकर यूएसएसआर के कब्जे को हटाने की कोशिश की थी।

इन लड़ाकों में तालिबान के भावी संस्थापक मुल्ला मोहम्मद उमर (Founder Mullah Mohammad Omar) भी शामिल था। अमेरिका के समर्थन से इन मुजाहिदीन लड़ाकों (Mujahideen Fighters) ने यूएसएसआर को अफगानिस्तान से हटने के लिए मजबूर किया। तालिबान ऐसे वक्त में सामने आया जब सोवियत संघ के सैनिक देश से हट गये थे और अफगानिस्तान मुजाहिदीन सरदारों के अराजक शासन के अधीन था।

अफगानिस्तान के दक्षिण-पश्चिम इलाकों के तालिबान ने तेजी से हासिल किया और साल 1996 में राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया और इस कवायद में अफगान मुजाहिदीन सरकार को हटा दिया गया। तालिबानी ने खुद अफगानिस्तान को इस्लामी अमीरात (आईईए) के तौर पर घोषित कर दिया।

अफगानिस्तान के लोग मुजाहिदीन के सरदारों की लड़ाई और आम आदमी का गला घोंटने वाले भ्रष्टाचार से थक चुके थे। भ्रष्टाचार और अपराध पर सफलतापूर्वक अंकुश लगाने के लिये तालिबान का स्वागत किया गया और उसकी लोकप्रियता में इज़ाफा हुआ, इस तरह आर्थिक गतिविधियों के फलने-फूलने के लिये सही ज़मीन तैयार हुई।

हालांकि तालिबान के शासन ने शरिया कानून (Sharia Law) को सख्ती से लागू किया गया। खुले तौर पर लोगों को क्रूर सज़ायें देना और खुलेआम अंगभंग करना देना अफगानिस्तान की रोजमर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा बन गया। तालिबान ने महिलाओं के लिये बुर्का और पुरुषों के लिए दाढ़ी अनिवार्य कर दी, सभी तरह के मनोरंजन पर प्रतिबंध लगा दिया और अफगानिस्तान में बालिका शिक्षा की जम़कर मुखालफत की गयी लेकिन तालिबान शासन का अंत अमेरिका में 9/11 वर्ल्ड ट्रेड सेंटर हमले के बाद हुआ। अमेरिका ने तालिबान पर ओसामा बिन लादेन और उसके संगठन अल-कायदा को शरण देने का आरोप लगाया। जिनकी पहचान आतंकी हमले के पीछे की गई थी।

अमेरिका ने दिसंबर 2001 में दो महीने से भी कम समय के भीतर तालिबान को अफगानिस्तान की सत्ता से उखाड़ फेंका। वरिष्ठ तालिबानी नेताओं को मैदान छोड़कर भागना पड़ा। आंतकी समूह विद्रोही संगठन बन गया, जो अफगान सरकार और नागरिकों के साथ-साथ शांति मिशन पर अमेरिकी अगुवाई वाले विदेशी सैनिकों को निशाना बनाने लगा।

मौजूदा तालिबानी नेता मावलवी हिबतुल्ला अखुंदजादा की अगुवाई में तालिबान धीरे-धीरे कई अफगानि इलाकों पर अपना कब़्जा बढ़ा रहा है। तालिबान लगातार दावा कर रहा है कि वो अफगानिस्तान में अमन और शांति की फिर से बहाली करेगा पर वो इसकी आड़ में अफगानी जनता पर फिर से कड़े इस्लामी कानून या शरिया पुख़्ता तौर पर थोपेगा।

साल 2021 में तालिबान ने अफगानिस्तान को पश्चिम (अमेरिका) के खिलाफ आतंकवाद का केंद्र बनने से रोकने का संकल्प लिया। करीब दो साल की बातचीत के बाद फरवरी 2020 में अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौता हुआ। तालिबान ने आश्वास्त किया था कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद वो अपने आंतकियों को हमला करने का फरमान नहीं देगा और अल-कायदा को भी अपनी सरपरस्ती में फलने फूलने नहीं देगा। तालिबान की अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति केवल तीन देशों तक सीमित थी जब वो पिछली बार सत्ता में थे।  संगठन पहले से ही दोहा, कतर में तैनात वरिष्ठ नेताओं के जरिये राजनयिक संबंध स्थापित करने पर काम कर रहा है।

फिलहाल मौजूदा हालात आम अफगानी के लिये बदतर होते जा रहे है। अफगान शांति वार्ता के सभी बिंदुओं से तालिबान पीछे हटता दिख रहा है। पश्चिमी मुल्क की सभी जंगी ताकतें अब अफगानिस्तान को उसके हाल पर छोड़कर अपने लोगों को खैरियत के साथ निकालने की कोशिश में लगी हुई है। अनिश्चितता और हिंसा का नंगा नाच अब अफगानी जनता से सामने होने लगभग तय माना जा रहा है।

सह संस्थापक संपादक – राम अजोर

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