अफगानिस्तान (Afghanistan) से विस्थापन, मानवाधिकार उल्लंघन और संगीन के साये डरी हुई इंसानियत की तस्वीरों ने दुनिया को बुरी तरह झकझोर दिया है। अमनपसंद और जम्हूरियत के हिमायती पश्चिमी मुल्क खुलतौर पर अफगानी शरणार्थियों को पनाह दे रहे है। तबाही के मंजर के बीच अफगानी औरतों अपनी पढ़ाई लिखाई, खुलेपन और नौकरी जैसे मुद्दों के लिये अपने मुल्क छोड़ने को तैयार है। कनाडा, जर्मनी और अमेरिका ऐसे में लोगों को शरण दे रहा है। उम्मीद और रोशनी की तलाश में अफगानी महिला नेता, मानवाधिकार कार्यकर्ता और कई पत्रकारों को तालिबान के कारण अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा है।
ये सब उस दौरान हो रहा है जब हामिद करजई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे (Hamid Karzai International Airport) की ऊंची दीवारों के ऊपर हताश माताओं को अपने बच्चों को तारों के पार सौंपते देखा गया। तालिबान से खुद को बचाने की उम्मीद में युवाओं को अमेरिकी वायु सेना के सी-17 ग्लोबमास्टर भारी-भरकम परिवहन विमान के साथ भागते हुए देखा गया। इसी जद्दोजहद में विमान के उड़ते समय कई पुरुषों को गिरते हुए देखना दिल दहला देने वाला मंजर रहा।
जहां कुछ हिन्दुस्तानी अफगान लोगों पर दोष मढ़ रहे थे और इस बात पर बहस कर रहे थे कि मोदी देश के लिये अच्छे हैं या बुरे, वहीं अफगानिस्तान से आयी ये सारी तस्वीरें इंसानियत को शर्मसार करने वाली है। दूसरी ओर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के नोएडा सेक्टर 16 के एसी कमरों में बैठने वाले पत्रकारों और एंकरों की एक बड़ी ज़मात अफगानों का आकलन करने में व्यस्त है कि आखिर उन्होनें ये नौबत आने ही क्यों दी, जबकि उन्हें बीस सालों से अमेरिकी सरपरस्ती हासिल थी।
बाइडेन ने अफगान युद्ध का ठीकरा इसके लिए ट्रंप एंड कंपनी (Trump And Company) पर फोड़ा और कहा कि उन्हें ये लड़ाई विरासत में मिली है। अब अमेरिकी सिपाहियों को अफगानी सरज़मी पर जंग की आग में नहीं झोंका जायेगा। अब हमें अलग से सोचना होगा। अब अफगानिस्तान को अपने बाज़ुओं के दम पर अपनी लड़ाई लड़नी होगी। अफगानिस्तान में हाल ही में जो कुछ हुआ वो हमारी अफगानिस्तान छोड़ने की हताशा के बारे में नहीं है, बल्कि अमेरिका और उसके नाटो सहयोगियों (NATO allies) की सीधी और बड़ी खुफिया नाक़ामी है।
ऐसा लगता है कि अमेरिकियों ने जमीन पर तालिबान की ताकत को कम करके आंका। राष्ट्रपति बिडेन को इस बात की ज़रा भी भनक नहीं थी कि तालिबान इस कदर एकाएक अफगानिस्तान पर हावी हो जायेगा। ये इस बात का सबूत है कि अफगानिस्तान का जंगी मैदान छोड़ने से पहले अमेरिकी तैयार नहीं थे। जाहिर है उन्हें इस बात का जरा भी अनुमान नहीं था कि कुछ ही हफ्तों बाद क्या आफत आने वाली है। ये अमेरिकी इंटेलीजेंस की बड़ी नाकामी (Big failure of American intelligence) है। जो कि अपने आप में बड़ी हैरतअंगेज बात है कि इतने लंबे वक़्त तक अफगानिस्तान में रहने के बावजूद अमेरिका जमीन पर मौजूद तथ्यों से पूरी तरह से अनजान क्यों था।
लंबे समय में अफगानिस्तान में अमेरिका ने कई बड़ी रणनीतिक और कूटनीतिक गलतियां (Big Strategic And Diplomatic Mistakes) की लेकिन तालिबान के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद से चीजें बेहद तेजी से खराब हुईं। जिस समझौते को शांति समझौते बताया गया वो आम अफगानियों के लिये मौत और तबाही का फरमान लेकर आया। अमेरिका ने दोहा समझौते (कई लोग इस पिछले दरवाज़े से वापसी का समझौता भी कहते है) के जरिये कहा कि वो निश्चित रूप से जल्द ही जा रहे हैं और तालिबान से सिर्फ वादे किया कि वो ऐसा वैसा कुछ ना करे जैसे कि संभावनायें व्यक्त की गयी।
दोहा समझौता (वापसी समझौता/ शांति समझौता) के दौरान अमेरिका और तालिबान आमने सामने थे, इसमें पूरी तरह से अफगानिस्तान के लोगों को नजरअंदाज कर दिया गया। इस पूरी प्रक्रिया के खिलाफ अफगानिस्तान में एक भी मुखालफत के सुर नहीं फूटे और इसी कारण आज पूरा अफगानिस्तान बर्बादी और कट्टरपंथ के मुहाने पर खड़ा दिखाई दे रहा है। सीधे सीधे अमेरिकी नीति नियंताओं (American policy makers) ने अफगानिस्तान की सरपरस्ती तालिबान के हाथों में थमा दी। मौजूदा हालातों में तालिबानी ताकतें अफगानिस्तान के मजबूत सत्ता प्रतिष्ठानों में मुकम्मल तौर पर काब़िज है।
कई इंटरनेशनल मीडिया की रिपोर्टें सामने आयी कि कैसे अफगान सरकार ने बिना कुछ किये ही तालिबानी सिपहसालारों के सामने आसानी से घुटने टेक दिये। अमेरिका ने वो किया जो उसे करना था। अमेरिका इस लड़ाई में अपने माथे पर खुफिया नाक़ामी और जमीनी स्तर पर गुमनामी का दाग लिये जंगी मैदान से बाहर हो गया। सीधे शब्दों में कहे तो वियतनाम के बाद ये सुपरपावर के मुंह पर एक और तमाचा था।
अक्टूबर 2001 में अमेरिका अफगानिस्तान क्यों आया इसकी वज़ह अभी भी समझ से बाहर है। क्या उनका मकसद तालिबान विद्रोह को खत्म करना था (अगर ऐसा था तो वो नाकाम हो गये हैं)? या फिर वो अफगानिस्तान की रगों में ज़िन्दगी की नयी हवा फूंकना चाहता था, जिसके लिये जंग को बुनियाद बनाकर इस्तेमाल किया गया (इसका आकलन इतिहास करेगा) या सिर्फ ये एक खास भौगोलिक हालातों में लड़ी गयी लड़ाई थी?
अमेरिका ने अफगान सुरक्षा बलों के साथ कई गलतियां कीं, जिससे वे अमेरिकी खुफिया तंत्र और उपकरणों पर बहुत ज़्यादा निर्भर हो गये। अफगानिस्तान अभी भी एक नार्को-स्टेट है। हालांकि इसके बारे में ज्यादा बात नहीं की जाती है, तालिबान की फाइनेंशियल हालात करीब करीब बेहतर बने हुए दिखाई दे रहे है, वो बिना किसी बाहरी मदद और अंतर्राष्ट्रीय सहायता के अपने मंसूबों को बेहद आसानी से अंज़ाम दे सकता है।
दूसरी तरफ अमेरिका ने तालिबान को एक आतंकवादी गुट के तौर पर ही देखा लेकिन तालिबान विद्रोह और सैन्य खतरे की ओर ध्यान ही नहीं दिया। उन्होंने कभी ये नहीं माना कि तालिबान के पास एक वैचारिक और राजनीतिक आंदोलन होने के कारण शासन का अनुभव है। उन्होंने इस बात को भी नज़रअंदाज़ किया कि तालिबान को पाकिस्तान ने बनाया और पाला पोसा है। सीमा पार बने मदरसों से तालिबान को प्रशिक्षण शिविर, सैन्य सहायता और और नये रंगरूटों की मदद मिलती है। ये उस वक़्त साबित हुआ जब कई मीडिया संस्थानों ने पाकिस्तान के सीमावर्ती इलाकों में लोगों का इंटरव्यूह लिया। जिसमें लोगों ने साफतौर पर अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता की वापसी पर खुशी ज़ाहिर की।
चीजें इतनी तेजी से कैसे खराब हुईं, ये तालिबान की सैन्य रणनीति थी। साल 2013 के बाद से जब अमेरिका ने अपने युद्ध अभियानों को रोक दिया। जिसके बाद तालिबान ने ग्रामीण इलाकों पर कब्जा कर लिया। जिसके बाद उसने बड़े प्रांतीय इलाकों को अपने कब्ज़े में लेना शुरू कर दिया और फिर लगातार प्रांतीय राजधानियों की ओर बढ़ता रहा। इसलिये अगर कंधार या हेलमंद के पास कहीं छोटा गाँव पड़ता है तो इसे ज्यादातर अमेरिकी सेना द्वारा नजरअंदाज कर दिया जाता था। अमेरिकी और नाटो सैन्य बलों ने अपने ज़्यादातर वक़्त प्रांतीय राजधानियों पर ध्यान देने में ज़ाया किया।
अमेरिकी नसमझी के कारण तालिबान ने बड़े इलाकों में काफी आसानी से कब़्जा कर लिया, जिसके कारण हाइवे और जांच चौकियों को सीधा नुकसान पहुँचा। जब अफगानिस्तान की सेना बाहर या काबुल से रसद और गोला-बारूद मंगवाना चाहती तो उसे आसानी और तेजी से उनका पहुँचाना टेढ़ी खीर साबित हो रहा था। नतीज़न अफगानी सैन्य बलों के मनोबल को भारी नुकसान पहुँचा। इस तरह सिलसिलेवार तरीकों से पासा पलटा गया और तालिबान सत्ता पर काब़िज हो गया। इस पूरी लड़ाई में अमेरिका हार गया वाशिंगटन बीस सालों के दौरान अफगानिस्तान में कभी में अपने मंसूबें पूरे नहीं कर पाया। अब जबकि अमेरिका और उसके सहयोगी अपने-अपने देशों के लिये रवाना हो गये हैं और पाकिस्तान और चीन अफगानी सरजमीं को मौके के तौर पर देख रहे है। जिसमें सीधा नुकसान आम अफगान लोगों का है, जिनका कल और आज अधर में लटका हुआ है।