अग्निदेव में जो जलाने की तेजरूपा (दाहिका) शक्ति है, वो देवी स्वाहा (Goddess Swaha) का सूक्ष्मरूप है। हवन में आहूति में दिये गये पदार्थों का परिपाक (भस्म) कर देवी स्वाहा ही उसे देवताओं को आहार के रूप में पहुंचाती हैं, इसलिये इन्हें ‘परिपाककरी’ भी कहते हैं।
सृष्टिकाल में परब्रह्म परमात्मा (Parabrahma Parmatma) स्वयं ‘प्रकृति’ और ‘पुरुष’ इन दो रूपों में प्रकट होते हैं। ये प्रकृतिदेवी ही मूलप्रकृति या पराम्बा (Moolaprakriti or Paramba) कही जाती हैं। ये आदिशक्ति अनेक लीलारूप धारण करती हैं। इन्हीं के एक अंश से देवी स्वाहा का प्रादुर्भाव हुआ जो यज्ञभाग ग्रहणकर देवताओं का पोषण करती हैं।
स्वाहा के बिना देवताओं को नहीं मिलता है भोजन
सृष्टि के आरम्भ की बात है, उस समय ब्राह्मणलोग यज्ञ में देवताओं के लिये जो हवनीय सामग्री अर्पित करते थे, वो देवताओं तक नहीं पहुंच पाती थी। देवताओं को भोजन नहीं मिल पा रहा था, इसलिये उन्होंने ब्रह्मलोक (Brahmlok) में जाकर अपने आहार के लिये ब्रह्माजी (Brahmaji) से प्रार्थना की। देवताओं की बात सुनकर ब्रह्माजी ने भगवान श्रीकृष्ण (Lord Shri Krishna) का ध्यान किया। भगवान के आदेश पर ब्रह्माजी देवी मूलप्रकृति की उपासना करने लगे। इससे प्रसन्न होकर देवी मूलप्रकृति की कला से देवी ‘स्वाहा’ प्रकट हो गयीं और ब्रह्माजी से वर मांगने को कहा।
ब्रह्माजी ने कहा–’आप अग्निदेव की दाहिकाशक्ति होने की कृपा करें। आपके बिना अग्नि आहूतियों को भस्म करने में असमर्थ हैं। आप अग्निदेव की गृहस्वामिनी बनकर लोक पर उपकार करें।’
ब्रह्माजी की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण में अनुरक्त देवी स्वाहा उदास हो गयीं और बोलीं–“परब्रह्म श्रीकृष्ण के अलावा संसार में जो कुछ भी है, सब भ्रम है। तुम जगत की रक्षा करते हो, शंकर ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की है। शेषनाग (Sheshnag) सम्पूर्ण विश्व को धारण करते हैं। गणेश सभी देवताओं में अग्रपूज्य हैं। ये सब उन भगवान श्रीकृष्ण की उपासना का ही फल है।”
ये कहकर वे भगवान श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिये तपस्या करने चली गयीं और वर्षों तक एक पैर पर खड़ी होकर उन्होंने तप किया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गये।
देवी स्वाहा के तप के अभिप्राय को जानकर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा–“तुम वाराहकल्प (Varaha Kalpa) में मेरी प्रिया बनोगी और तुम्हारा नाम ‘नाग्नजिती’ होगा। राजा नग्नजित् तुम्हारे पिता होंगे। इस समय तुम दाहिकाशक्ति से सम्पन्न होकर अग्निदेव की पत्नी बनो और देवताओं को संतृप्त करो। मेरे वरदान से तुम मन्त्रों का अंग बनकर पूजा प्राप्त करोगी। जो मानव मन्त्र के अंत में तुम्हारे नाम का उच्चारण करके देवताओं के लिये हवन-पदार्थ अर्पण करेंगे, वो तुम्हारे माध्यम से देवताओं को सहज ही उपलब्ध हो जायेगा।’
देवी स्वाहा बनी अग्निदेव की पत्नी
भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से अग्निदेव (Agnidev) का देवी स्वाहा के साथ विवाह-संस्कार हुआ। शक्ति और शक्तिमान के रूप में दोनों प्रतिष्ठित होकर जगत के कल्याण में लग गये। तब से ऋषि, मुनि और ब्राह्मण मन्त्रों के साथ ‘स्वाहा’ का उच्चारण करके अग्नि में आहूति देने लगे और वो हव्य पदार्थ देवताओं को आहार रूप में प्राप्त होने लगा।
जो मनुष्य स्वाहायुक्त मन्त्र का उच्चारण करता है, उसे मन्त्र पढ़ने मात्र से ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। स्वाहाहीन मन्त्र से किया हुआ हवन कोई फल नहीं देता है।
देवी स्वाहा के सिद्धिदायक सोलह नाम
देवी स्वाहा के सोलह नाम हैं–
1. स्वाहा,
2. वह्निप्रिया,
3. वह्निजाया,
4. संतोषकारिणी,
5. शक्ति,
6. क्रिया,
7. कालदात्री,
8. परिपाककरी,
9. ध्रुवा,
10. गति,
11. नरदाहिका,
12. दहनक्षमा,
13. संसारसाररूपा,
14. घोरसंसारतारिणी,
15. देवजीवनरूपा,
16. देवपोषणकारिणी।
इन नामों के पाठ करने वाले मनुष्य का कोई भी शुभ कार्य अधूरा नहीं रहता। वो समस्त सिद्धियों व मनोकामनाओं को प्राप्त कर लेता है।