मौजूदा हालातों में रूस (Russia) ने यूक्रेन (Ukraine) से लगी 450 किलोमीटर लंबी अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर अपने 1,25,000 सैनिकों को तैनात किया है। इन जवानों को यूक्रेन की पूर्वी और उत्तर-पूर्वी सीमा पर तैनात किया गया है। इसके अलावा रूस ने काला सागर में अपने जंगी बेड़ों (War Fleets) को भी तैनात किया हैं, जो खतरनाक मिसाइलों से लैस हैं। साल 2014 में रूस ने यूक्रेन में अहम बंदरगाह इलाके क्रीमिया पर कब्जा कर लिया था और तब से ये संघर्ष अस्तित्व में आया।
रूस ने यूक्रेन की सीमा पर ड्रोन भी तैनात किये हैं, जो पलक झपकते ही किसी भी सैन्य अड्डे (Military Base) को तबाह कर सकते हैं। फिलहाल साफ कहा जा सकता है कि इस वक़्त रूस ने यूक्रेन को चारों तरफ से घेर लिया है। इस संघर्ष ने दुनिया को दो गुटों में बांट दिया है। एक तरफ रूस है, जिसे चीन जैसे देशों का समर्थन प्राप्त है और दूसरी तरफ यूक्रेन है, जिसे अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य नाटो देशों से समर्थन मिल रहा है।
आखिर मास्को क्यों चाहता है यूक्रेन और नाटो के बीच दूरी
नाटो एक सैन्य समूह है जिसमें अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और फ्रांस समेत 30 देश शामिल हैं। अब रूस के सामने चुनौती ये है कि उसके कुछ पड़ोसी देश पहले ही नाटो में शामिल हो चुके हैं। इनमें एस्टोनिया और लातविया (Estonia and Latvia) जैसे देश हैं, जो पहले सोवियत संघ (Soviet Union) का हिस्सा थे। अब अगर यूक्रेन भी नाटो का हिस्सा बन गया तो रूस हर तरफ से अपने दुश्मन देशों से घिर जायेगा और अमेरिका जैसे देश उस पर हावी हो जायेगें। अगर यूक्रेन नाटो का सदस्य बन जाता है और रूस भविष्य में उस पर हमला करता है तो समझौते के तहत इस समूह के सभी 30 देश इसे अपने खिलाफ हमला मानेंगे और यूक्रेन को सैन्य सहायता भी देगें।
रूसी क्रांति के नायक व्लादिमीर लेनिन (Vladimir Lenin) ने एक बार कहा था कि ‘यूक्रेन को खोना रूस के लिये शरीर से अपना सिर काट देने जैसा होगा’ और इसी वज़ह रूस नाटो में यूक्रेन की घुसपैठ का विरोध कर रहा है।
एक और बात ये है कि यूक्रेन रूस की पश्चिमी सीमा पर स्थित है। जब साल 1939 से 1945 तक चले द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रूस पर हमला किया गया तो यूक्रेन एकमात्र ऐसा इलाका था जहाँ से रूस ने अपनी सीमा की रक्षा की थी। हालाँकि अब अगर यूक्रेन नाटो देशों के साथ चला गया तो रूस की राजधानी मास्को पश्चिम से सिर्फ 640 किलोमीटर दूर होगी। फिलहाल ये दूरी करीब 1600 किलोमीटर है।
इस छटपटाहट की वज़ह से नाटो का हिस्सा बनना चाहता है कीव
इसे समझने के लिये आपको इतिहास में 100 साल पीछे जाना होगा। साल 1917 से पहले रूस और यूक्रेन रूसी साम्राज्य का हिस्सा थे। लेकिन साल 1917 में रूसी क्रांति के बाद ये साम्राज्य बिखर गया और यूक्रेन ने खुद को आज़ाद मुल्क घोषित कर दिया। हालांकि यूक्रेन मुश्किल से तीन साल तक आज़ाद रहा और साल 1920 में ये सोवियत संघ में शामिल हो गया। हालांकि यूक्रेन के लोगों की आज़ाद मुल्क बनने की ख्वाहिश हमेशा ज़िन्दा रही।
साल 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तो यूक्रेन समेत 15 नये देशों का गठन हुआ। यानि सही मायनों में यूक्रेन को साल साल 1991 में आजादी मिली। हालांकि यूक्रेन शुरू से ही समझता है कि वो रूस से कभी भी अपने दम पर मुकाबला नहीं कर सकता और इसलिये वो एक ऐसे सैन्य संगठन में शामिल होना चाहता है, जो सभी के तहत अपनी आजादी सुनिश्चित करे। इन हालातों में कीव के लिये नाटो सबसे अच्छा विकल्प है।
ऐसा इसलिये हैं कि क्योंकि यूक्रेन के पास न तो रूस जैसी बड़ी सेना है और न ही आधुनिक हथियार। यूक्रेन में 1.1 मिलियन सैनिक हैं, जबकि रूस के पास 2.9 मिलियन सैनिक हैं। यूक्रेन के पास 98 लड़ाकू विमान हैं, रूस के पास करीब 1500 लड़ाकू विमान हैं। रूस के पास यूक्रेन के मुकाबले ज्यादा हमलावर हेलीकॉप्टर, टैंक और बख्तरबंद वाहन भी हैं।
इस पूरी कहानी में आपको अमेरिका की भूमिका भी समझनी होगी। अमेरिका ने अपने 3000 सैनिकों को यूक्रेन की मदद के लिए भेजा है और उनकी तरफ से ये आश्वासन दिया गया है कि वे यूक्रेन की मदद के लिये हर मुमकिन कोशिश करेंगे। लेकिन सच्चाई ये है कि मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन (US President Joe Biden) यूक्रेन का इस्तेमाल सिर्फ अपनी छवि मजबूत करने के लिये कर रहे हैं। पिछले साल अमेरिका को अफगानिस्तान (Afghanistan) से अपनी सेना वापस बुलानी पड़ी थी। इसके अलावा ईरान (Iran) में अमेरिका कुछ हासिल नहीं कर पाया और तमाम प्रतिबंधों के बावजूद उत्तर कोरिया (North Korea) लगातार मिसाइल परीक्षण भी कर रहा है। इन सिलसिलेवार घटनाओं ने वैश्विक महमारी के तौर पर अमेरिका की छवि को काफी नुकसान पहुंचाया है और यही वजह है कि जो बाइडेन यूक्रेन-रूस विवाद के साथ इसकी भरपाई करना चाहते हैं।
अमेरिका के अलावा ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों ने भी यूक्रेन का समर्थन किया है। लेकिन इन देशों का समर्थन कब तक चलेगा ये एक बड़ा सवाल है क्योंकि यूरोपीय देश अपनी गैस की एक तिहाई जरूरत के लिये रूस पर निर्भर हैं। अब अगर रूस इस गैस की आपूर्ति को बंद कर देता है तो इन देशों में भयानक बिजली संकट होगा।
इस विवाद में भारत की स्थिति भी अहम है। रूस और अमेरिका दोनों भारत के लिये महत्वपूर्ण हैं। भारत अभी भी अपने 55% हथियार रूस से खरीदता है जबकि अमेरिका के साथ भारत के संबंध बीते 10 सालों में काफी मजबूत हुए हैं। इसके अलावा जिस देश में यूक्रेन ने सबसे पहले फरवरी 1993 में एशिया में अपना दूतावास खोला वो भारत था। तब से भारत और यूक्रेन के बीच व्यापारिक, रणनीतिक और राजनयिक संबंध मजबूत हुए हैं। यानि भारत इनमें से किसी भी देश को परेशान करने का जोखिम नहीं उठा सकता।
यहां एक और बात ये है कि रूस ने अब तक भारत-चीन सीमा विवाद (India-China Border Dispute) पर तटस्थ रुख अपनाया है। लेकिन अगर भारत यूक्रेन का समर्थन करता है तो वो कूटनीतिक रूप से रूस को चीन के पक्ष में ले जायेगा और शायद यही कारण है कि हाल ही में जब अमेरिका समेत 10 देशों ने संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेन पर एक प्रस्ताव लाया तो भारत ने किसी के पक्ष में मतदान नहीं किया।
भारत के लिये चिंता की बात ये भी है कि इस समय यूक्रेन में करीब 20,000 भारतीय फंसे हुए हैं, जिनमें से 18 हजार मेडिकल छात्र हैं।
वैसे कहा जाता है कि यूक्रेन और रूस के रिश्ते को समझना बहुत मुश्किल है। यूक्रेन के लोग आज़ाद रहना चाहते हैं लेकिन साथ ही पूर्वी यूक्रेन के लोगों में एक मजबूत भावना ये है कि यूक्रेन को रूस के प्रति वफादार रहना चाहिये। इसके अलावा यूक्रेन की राजनीति में नेता दो गुटों में बंटे हुए हैं। एक खुले तौर पर रूस का समर्थन करता है और दूसरा पश्चिमी देशों का समर्थन करता है। और यही वजह है कि आज यूक्रेन दुनिया की बड़ी जंगी ताकतों (War Forces) के बीच फंसा हुआ है।