Russia Ukraine Crisis: जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा संकट हैं, रूस-यूक्रेन विवाद के पीछे

Russia Ukraine Crisis: जिस किसी को ये गलतफ़हमी है कि रूस और यूक्रेन का युद्ध टल चुका है, वो पुख़्ता तौर से ग़लत हैं। शेयर बाज़ार के उतार चढ़ाव के भरोसे कूटनीतिक खेलों का आंकलन करना छोड़ दें। जंग न होने मगर सीमाओं पर सेनाओं के डटे रहने के नुक़सान भी लड़ाई जैसे ही होते हैं। गोलाबारी और बमबारी में तो सिर्फ लड़ाई में लगे दो मुल्कों को ही जान माल का नुक़सान होता है, लेकिन पूरी दुनिया पर जो महंगाई का बम गिरता है वो लड़ाई के होने के बाद ही नहीं वरना युद्ध जैसे हालात में भी फूटता रहता है।

इसी वज़ह से दुनिया में तेल और गैस उत्पादक देशों की चांदी हो रही है और बाक़ी मुल्क बुरी तरह पिस रहे हैं। रूस और यूक्रेन के बीच बिगड़ते हालातों के पीछे नाटो देश (NATO Countries) खासकर अमेरिका है, जो लगातार बीते लंबे वक़्त से यूक्रेन पर डोरे डाल रहा है। रूस के गर्म रूख़ के आगे उसे बार बार मुँह की खानी पड़ रही है। लेकिन इसके बावजूद आर्थिक लाभ दोनों को ही भारी मात्रा में हो रहा है। इसलिये ये एक तरह की नूरा कुश्ती भी कही जा सकती है।

बदलती दुनिया और परिस्थितियों ने अमेरिका को कमजोर किया है, दूसरी तरह रूस और चीन (China) अब बराबर के स्तर पर व्यवहार चाहते हैं। यही बात अमेरिका को अख़र रही है। वो बार बार ये भूल जाता है कि उसकी स्थिति कमजोर हो रही है और रूस-चीन मज़बूत होते जा रहे हैं। इसी वज़ह नाटो देशों में भी दो फाड़ का हालात है। फ़्रांस, तुर्की, जर्मनी (Germany) और इटली के रूस और चीन से बढ़ती नज़दीकियां नई वैश्विक व्यवस्था उभरने की ओर इशारा कर रही है।

जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा संकट ने पूरी दुनिया के कूटनीतिक, आर्थिक और सामरिक संबंधो को उलट-पलट कर रख दिया है। यूरोप के कई देश जलवायु संकट की वज़ह से बने हालातों में गैस का खनन नहीं कर पा रहे हैं और लंबे शीत काल के कारण उन्हें पूरे साल अपने घर, ऑफिसों और परिसरों को गर्म रखने के लिये काफी तादाद में गैस की दरकार होती है। करीब होने की वज़ह से रूस से ये गैस मंगाना आसान और किफायती है।

यूरोपीय देशों को जितनी प्राकृतिक गैस की जरूरत पड़ती है, रूस उन्हें उसका एक तिहाई हिस्सा सप्लाई करता है। लेकिन अप्रैल 2021 के बाद उसने सप्लाई में बड़ी कटौती की है। ऐसा जानबूझकर गैस का दाम बढ़ाने और ज़्यादा कमाई करने के लिये किया गया। इस वज़ह से यूरोप में गैस के दाम पाँच गुना तक बढ़ गये। यूक्रेन में चूंकि गैस के प्रचुर भंडार हैं इसलिए यूरोप के नाटो देश कीव को अपने गुट में शामिल करने के लिये तरह-तरह के लालच दे रहे हैं। रूस को लगता है कि यूक्रेन को नाटो का सदस्य बनाने के बहाने नाटो देश उसको चारों ओर से घेर सकते हैं। इसी वज़ह से वो यूक्रेन का नाटो का सदस्य बनने का पुरजोर विरोध कर रहा है।

रणनीतिक तौर पर रूस और अमेरिका गुप्त अभियान पर काम कर रहे हैं। अमेरिका चाहता है कि रूस यूक्रेन पर हमला कर दे और इस बहाने वो रूस को युद्ध में उलझाकर आर्थिक प्रतिबंध थोप देगा और यूरोप को गैस की आपूर्ति का काम हथिया लेगा और मोटी कमाई कर पायेगा। वहीं रूस यूक्रेन के दो टुकड़े करना चाहता है या फिर उसमें अपनी कठपुतली सरकार बैठाना चाहता है। ऐसा करने से यूक्रेन के गैस भंडार रूस के क़ब्ज़े में आ जायगें और रूस यूरोप को ज़्यादा गैस बेचकर ज्यादा माल कमा पायेगा। लेकिन इन दोनों ही कामों को अंज़ाम देने में सीमित युद्ध और दबाव जरूरी है। सीधे तौर पर रूस के इस खेल को चीन का पूरा सहयोग हासिल है। जर्मनी भी चूंकि पूरी तरह गैस की सप्लाई के लिये रूस पर ही निर्भर है, इसलिए रूस के पाले से बाहर नहीं जायेगा।

इन हालातों में इस इलाके में अब लंबे समय तक झड़प, सीमित युद्ध, बड़े युद्ध और विश्व युद्ध तक किसी भी तरह की संभावना बनी रहेगी। साथ ही तेल और गैस के दाम ऊँचे बने रहेंगे। आगे जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन और भयावह तौर पर में सामने आयेगा वैसे-वैसे संघर्ष की स्थितियाँ और विकट होती जायेगी। ऐसे में ये कहा जा सकता है कि तीसरा विश्व युद्ध (अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध) जो कोरोना महामारी की आड़ में जैविक युद्ध का रूप लिये हुए था, अब जल्द हथियारों की लड़ाई के रूप में सामने आने वाला है। चूंकि महाशक्तियों को व्यापारिक और आर्थिक हित साधने की चिंता ज़्यादा रहती है, इसलिये वो आपस में सीधे नहीं टकरायेगें और परमाणु युद्ध की सम्भावनायें भी न के बराबर हैं। झपटमारी के इस खेल में छोटे-मोटे युद्ध और खूनी संघर्ष होने तो तय हैं।

अगर आगे वैश्विक जलवायु परिवर्तन के हालात तेजी से बिगड़ते हैं तो आमने सामने की सीधी जंग से भी इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि तब दुनिया की ज़्यादातर जनसंख्या को जीवाश्म ईंधनों और भौतिक संसाधनों का इस्तेमाल तेज़ी से कम करना होगा और हरित ऊर्जा समेत इलेक्ट्रिकल वाहनों की ओर तेज़ी से बढ़ना होगा। ग्रीन एनर्जी चूंकि बहुत ज़्यादा सस्ती है इसलिये इसका इस्तेमाल बढ़ते जाने से तेल गैस उत्पादक और वितरक देशों की अर्थव्यवस्थायें-जीडीपी तेज रफ्तार से सिकुड़ती जायेगी। दुनिया में दर्जनों देशों में भीषण आंतरिक और अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष होना तय है। ये बस अगले कुछ सालों में होने जा रहा है। क्या हम तैयार हैं इसके लिए?

अनुज अग्रवाल

संपादक, डायलॉग इंडिया

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