एजेंसियां/न्यूज डेस्क (राजकुमार): यूक्रेन (Ukraine) और रूस (Russia) के बीच संकट गहराते ही दुनिया शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से 40 सालों में पहली बार दो हिस्सों में बंट गयी है। मास्को द्वारा डोनेट्स्क और लुहान्स्क (Donetsk and Luhansk) को आज़ाद मुल्क के तौर पर मान्यता देने और वहां शांति सैनिकों के भेजे जाने के बाद कई देशों ने मास्को पर कड़े आर्थिक प्रतिबंधों का ऐलान किया।
लेकिन प्रतिबंध कुछ हद तक दोनों तरीकों में कटौती करेंगे। रूस न सिर्फ तेल और गैस में अग्रणी खिलाड़ी है, बल्कि कई अन्य वस्तुओं और खनिजों में भी वहां दिग्गज़ की भूमिका में है। यहां तक कि अगर ये कहीं और से मंगवाये गये तो इनकी कीमतों में बढ़ोतरी होगी और शायद कमी भी होगी।
दुनिया भर के कई देशों की कमर मंहगाई ने पहले से ही तोड़ रखी है। दूसरी ओर वैश्विक अर्थव्यवस्था कोविड -19 महामारी से उबरने के लिये लगातार संघर्ष कर रही है। ऐसे में रूस को ‘सज़ा’ देते हुए पश्चिम कितना दर्द सहने को तैयार होगा? इसके अलावा शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से पिछले 40 वर्षों में रूस ने पश्चिमी कंपनियों ने अहम निवेश किया हुआ है।
रूस का करीबी सहयोगी क्यूबा (Cuba) ने रूसी संघ की सीमाओं की ओर नाटो के बढ़ते कदमों के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका (United States of America) की तीखी आलोचना की और अंतर्राष्ट्रीय शांति को बनाये रखने के लिये राजनयिक समाधान का आह्वान किया।
रूस को चीन (China) से सबसे मजबूत समर्थन मिलेगा। चीन पहले ही घोषणा कर चुका है कि नाटो यूक्रेन में मनमानी कर रहा है। जब से पश्चिमी देशों का रुख चीन के खिलाफ हुआ है, रूस हमेशा से चीन का समर्थन करता आया है। दरअसल कारोबार से लेकर सेना और अंतरिक्ष तक के सहयोग से रूस और चीन दोनों की बहुआयामी साझेदारी है।
आर्मेनिया, कजाकिस्तान (Kazakhstan), किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान (Tajikistan) और बेलारूस एक बार सोवियत संघ का हिस्सा बनने के बाद 6 देशों के बीच हस्ताक्षरित सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (सीएसटीओ) समझौते की वज़ह से रूस का समर्थन करेंगे। यानि रूस पर हमले के हालातों में ये मुल्क इसे अपने ऊपर हमला मानेंगे।
अफगानिस्तान से अचानक अमेरिकी वापसी और पिछले साल तालिबान द्वारा अफगानिस्तान (Afghanistan) की सत्ता पर कब़्जा करने के बाद से पश्चिम एशियाई देशों के बीच सुरक्षा चिंताएं बढ़ गई हैं, जिससे रूस की ओर उनके रूख़ में स्वाभाविक बदलाव आया है।.
अज़रबैजान (Azerbaijan) से ये भी अपेक्षा की जाती है कि वो जंगी हालातों में रूस के खिलाफ उठने के किसी भी आह्वान को अनदेखा कर दे। साल 2020 में रूसी राष्ट्रपति ने नागोर्नो-कराबाख (Nagorno-Karabakh) इलाके में लड़ रहे आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच समझौता किया। जबकि पूरी दुनिया ने उनसे युद्ध खत्म करने का आह्वान किया था। बता दे कि सिर्फ पुतिन के दखल के परिणामस्वरूप युद्धविराम समझौता हुआ।
मध्य पूर्व में ईरान (Iran) एक ऐसा देश है, जो रूस का समर्थन करेगा। परमाणु समझौता टूटने के बाद से रूस लगातार ईरान को अपने पाले में बनाये हुए है। अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ ईरान का तनाव हाल की सालों में काफी बढ़ा है। वहीं तेहरान को क्रेमलिन ने खुले हाथों हथियारों की सप्लाई की है। सीरियाई युद्ध में भी मास्को को ईरान के साथ मिला।
अगर बड़े पैमाने पर युद्ध होती है तो उत्तर कोरिया (North Korea) रूस का तहे दिल से समर्थन करेगा। असल में चीन और रूस ने हाल ही में प्रायद्वीप में मिसाइलों की लॉन्चिंग के बाद संयुक्त राष्ट्र में उत्तर कोरिया पर प्रतिबंध लगाने के अमेरिकी प्रयासों को मिलकर रोक दिया था।
नाटो के यूरोपीय देश – बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क (Denmark), फ्रांस, आइसलैंड, इटली, लक्जमबर्ग (Luxembourg), नीदरलैंड, नॉर्वे, पुर्तगाल, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका पूरी तरह से यूक्रेन का समर्थन करते हैं। अमेरिका और ब्रिटेन यूक्रेन के सबसे बड़े समर्थक बनकर उभरे हैं।
जर्मनी और फ्रांस ने हाल ही में मास्को का दौरा कर विवाद को शांत करने की कोशिश की। लेकिन जब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने दो अलग-अलग यूक्रेनी इलाकों को स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर मान्यता दी और रूसी सैनिकों को वहां तैनात करने का आदेश दिया तो जर्मनी ने नॉर्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन की मंजूरी रोक दी और अन्य पश्चिमी देशों ने प्रतिबंध जारी किये।
जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा सभी यूक्रेन का समर्थन कर रहे हैं और उन्होंने यूक्रेन के दो प्रांतों लुहान्स्क और डोनेट्स्क को स्वतंत्र देशों के रूप में मान्यता देने के बाद रूस पर कड़े राजनयिक और आर्थिक प्रतिबंध लगाये।
भारत एशिया में भू-राजनीतिक तौर पर सबसे अहम देशों में से एक है। आमतौर पर रूस और पश्चिम के साथ मजबूत संबंध होने के बावजूद अपनी तटस्थता और गुटनिरपेक्ष राज्य होने के लिये भारत को जाना जाता है। भारत के रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका दोनों के साथ बेहद करीबी तालुक्कात हैं।
भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 40% विदेशी व्यापार से आता है। 1990 में ये आंकड़ा लगभग 15 फीसदी था। भारत का ज़्यादातर कारोबार अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ पश्चिमी यूरोप और मध्य पूर्व में होता है। भारत पश्चिमी देशों के साथ लगभग 350-400 बिलियन अमरीकी डालर का कारोबार करता है।
रूस के साथ भारत का कारोबार करीब 10-12 अरब डॉलर का है। भले ही भारत ने अपनी रक्षा खरीद में विविधता लाना शुरू कर दिया है। हाल के सालो में नई दिल्ली ने अमेरिका और पश्चिमी यूरोप से रक्षा खरीद रूस के मुकाबले काफी बढ़ा दी है। भारत रूस से पुर्जों और उपकरणों पर काफी निर्भर है।