Russia Ukraine War: महाशक्तियों की भिड़न्त से पहले दुनिया के सामने दो विकल्प

यूक्रेन (Ukraine) में हाल की घटनायें तेजी से आगे बढ़ रही हैं और जाहिर है ये एक तरफ नाटो और दूसरी तरफ रूस (Russia) के साथ दुनिया का युद्ध बन गया है। उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) का शुरूआती मकसद शीत युद्ध से पैदा हुए हालातों को संभालने के लिये विश्व व्यवस्था बनाना था, जहां दुनिया के बीच परमाणु युद्ध का लगातार खतरा धरती पर मंडरा रहा था। नाटो को साल 1949 में बनाया गया था और इसका मुख्य विरोधी सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक (USSR) कम्युनिस्ट संघ था। शीत युद्ध का केंद्र मुख्य रूप से यूरोप था, जहां तनावपूर्ण अवधि के दौरान देशों को नाटो या पूर्वी ब्लॉक/वारसॉ संधियों में बांटा गया था।

इन वक़्त के दौरान नाटो (NATO) सैन्य रूप से अपने चरम पर था और 1989 से 1991 तक दो सालों के दौरान कई घटनाओं के बाद नाटो ने वो असल मायने हासिल किये जिसके लिये उसे बनाया गया था। इन सबसे पहले वाकया “1989 की यूरोपीय क्रांति” थीं, जिसने यूरोप से साम्यवाद का खात्मा कर दिया। दूसरा अक्टूबर 1990 में “जर्मनी का एकीकरण”, तीसरा “यूरोप में पारंपरिक सशस्त्र बलों की संधि (CFE)” जिसने यूरोप में सैन्य गतिविधियों को काफी हद तक सीमित कर दिया। और चौथा “सोवियत गणराज्य का विघटन” जिसने नाटो के सभी दुश्मनों का सफाया कर दिया।

बाद में रूस यूएसएसआर के प्रमुख उत्तराधिकारी के तौर पर उभरा। जिसे बेहतरीन जंगी ताकत विरासत में मिली। वैश्विक राजनीति में इसका दखल अपनी समस्याओं की वज़ह एक दायरे में ही रहा। जिसमें दशक भर का आर्थिक संकट और आंतरिक राजनीतिक गड़बड़ी शामिल थी। चूंकि नाटो को उसका मकसद हासिल हो चुका था, ऐसे में अमेरिका को अपनी हरकतों पर ब्रेक लगाना चाहिए था ताकि दुनिया में शांति का माहौल कायम हो सके लेकिन ऐसा नहीं हुआ। साल 1992-1995 में यूरोप एक बार फिर नाटो के लिये जंगी खेल का मैदान बन गया और 1999 में जब इसने बोस्निया और यूगोस्लाविया में दखल किया तो और ज्यादा अराजकता पैदा हुई।

दुनिया की एकमात्र महाशक्ति बनने की अपनी महत्वाकांक्षाओं के कारण अमेरिका ने अपने नंबर बनाने के लिये पूरी दुनिया में गड़बड़ी पैदा करने के लिये हर मुमकिन तरीके से नाटो का इस्तेमाल किया। जिस संगठन को यूएसएसआर के साथ भंग कर दिया जाना चाहिए था, उसने रूस को हर संभव तरीके से घेरने के मकसद से दुनिया में इसका और फैलाया।  1999 में हंगरी, पोलैंड और चेक गणराज्य (Czech Republic) नाटो में शामिल हो गये। ये तीनों कभी वारसॉ संधि वाले मुल्क थे और रूस के काफी करीबी भी। नाटो ने अपनी सदस्यता को और बढ़ाया और वक़्त के साथ ग्यारह और देशों को इसके सदस्य के तौर पर संगठन में शामिल किया गया।

नाटो ने साल 2004 में बुल्गारिया, एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, रोमानिया, स्लोवाकिया और स्लोवेनिया (Slovakia and Slovenia), 2009 में अल्बानिया और क्रोएशिया (Albania and Croatia), 2017 में मोंटेनेग्रो और 2020 में उत्तरी मैसेडोनिया (North Macedonia) को जोड़ा। इनमें से ज़्यादातर मुल्क पूर्वी ब्लॉक/वारसॉ संधि का हिस्सा रहे थे। ये सभी देश तत्कालीन यूएसएसआर और मौजूदा रूस के करीबी सहयोगी और मास्को के करीब बसे हुए है। इस बीच ऐसी कोई रिपोर्ट सामने नहीं आया कि, जिसमें कहा गया हो कि रूस नाटो के खिलाफ जंगी गुट तैयार कर रहा है या किसी सैन्य गठबंधन में शामिल हुआ हो।

यूक्रेन को छोड़कर लगभग सभी देश जो रूस के बगल में स्थित थे, उन्हें नाटो के सदस्य बना दिया गया था और अमेरिकी सेना/मिसाइल/एयर क्राफ्ट वहां तैनात थे, तब भी जब रूस ने क्रीमिया के 2014 के विलय तक कोई आक्रामक तेवर अख़्तियार नहीं किया। 2013-14 के बाद से अमेरिका ने यूक्रेन को नाटो में शामिल करने और अपनी जंगी मशीनों को वहां तैनात करने के लिये हर मुमकिन कोशिश की।

यूक्रेन में मौजूदा हालातों को इन्हीं बातों की रौशनी में देखा जाना चाहिये कि जब नाटो रूस के करीब इस हद तक आ गया कि क्रेमलिन (Kremlin) की संप्रभुता के लिये बड़ा खतरा पैदा होने लगा तो उसने इस एक तरफा कार्रवाई को अंज़ाम दिया। मास्को के पास इस तरह के किसी भी खतरे को रोकने के सभी अधिकार हैं। यूक्रेन पर रूसी हमला यूक्रेन की संप्रभुता को खतरे में डालने के लिये नहीं था, बल्कि यूक्रेन में नाटो की संभावित तैनाती के अमेरिकी खतरे से खुद को बचाने के लिये था।

मौजूदा हालातों पर गौर करें तो जब नाटो देश रूस के खिलाफ बड़ी कार्रवाई करने का खाका तैयार करने के लिये बैठक कर रहे हैं और यूरोपीय संघ (European Union) भी ज़वाबी कार्रवाई का रूख़ बनाते हुए दिख रहा है तो सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या वो इस मकसद को हासिल कर पाएंगे? ज़वाब साफ है नहीं। अब दुनिया को इस बात पर जोर देना चाहिये कि जंग के बादल छट जाये। किसी तरह का कोई वैश्विक संघर्ष या तीसरे विश्व युद्ध ना हो।

इस समय जब हम संयुक्त राष्ट्र जैसे तटस्थ संस्थानों को व्हाइट हाउस की धुन पर बोलते हुए देखते हैं तो दुनिया को नतीजों के बारे में सोचना चाहिये। अब ऐसे में दुनिया के सामने दो ही विकल्प नज़र आते है।

सबसे पहले और सबसे अहम विकल्प शांति है। जैसा कि हम देख रहे हैं कि रूस यूक्रेन में तेजी से आगे बढ़ रहा है और अगले 24 घंटों में कीव (Kiev) उसके आगे घुटने टेक देगा। रूस को अगले 2-3 दिनों में यूक्रेन पर पूरी तरह से कब़्जा कर लेगा।  दुनिया को ये करना चाहिए कि रूस से बात करें, उसे अपनी सुरक्षा चिंताओं के बारे में आश्वस्त करें और ये सुनिश्चित करने के लिए कारगर प्रोटोकॉल तैयार करें। साथ ही यूएन को यूक्रेन में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिये भारत, ब्राजील और जापान जैसे तटस्थ देशों से पर्यवेक्षकों को नियुक्त करना चाहिए ताकि लोकतंत्र को वापस लाया जा सके। साथ ही रूसी सेनाओं की चरणबद्ध वापसी सुनिश्चित की जानी चाहिए ताकि शांति कायम हो सके।

दूसरा और सबसे खराब विकल्प जिस पर अमेरिका विचार कर रहा है, वो रूस के खिलाफ बड़ी सैन्य कार्रवाई करना है। ये शांतिपूर्ण समाधान से कोसों दूर है और अमेरिका के साथ-साथ ये विकल्प यूरोपीय संघ के लिये भी आत्मघाती होगा। सैन्य कार्रवाई न सिर्फ रूस को विरोधियों के खिलाफ अपनी पूरी ताकत के साथ प्रतिक्रिया करने के लिये उकसायेगी, बल्कि इसकी जद में दूसरे नाटो मुल्क और पश्चिमी ताकतें भी आयेगी। पुतिन पहले ही साफ कर चुके है कि यूक्रेन के खिलाफ जंगी कवायदों के बीच किसी दूसरे मुल्क को दखल उन्हें कतई पसंद नहीं है। अगर दूसरा मुल्क दखल देता है तो इसके बेहद गंभीर नतीज़े उसे भुगतने होगें। फिलहाल रूस को बड़ी ताकत के तौर पर बीजिंग का साथ हासिल है। माना जा रहा है कि चीन नाटो विरोधी आंदोलन में शामिल हो सकता है। जो अमेरिका के खिलाफ एक और जियो-स्ट्रैटज़िक मोर्चा (Geo-Strategic Front) बन सकता है। इस नाटो विरोधी मुहिम में चीन, उत्तर कोरिया, वेनेजुएला और कई अन्य देश शामिल हो सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो इसका सबसे ज़्यादा असर यूरोपीय संघ पर होगा। ये यूरोप ही है, जो एक बार फिर विश्व शक्तियों की कुश्ती का अखाड़ा बन सकता है।

ये फैसले काफी नाज़ुक होते है। इनकी गूंज अक्सर इतिहास के पन्नों में होती है। जिसका हिसाब-किताब आने वाली कई नस्लें सालों तक समझती रहती है। फिलहाल मौजूदा हालातों का दुनिया की अर्थव्यवस्था पर पहले से ही दिखने लगा है और हर बीतते दिन के साथ हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। इस सब झंझट में न तो अमेरिका और ना ही रूस को कोई बड़ा नुकसान होगा। सबसे नुकसान आखिर में इंसानियत का होगा।

सह-संस्थापक संपादक: राम अजोर

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