‘आरती’ (Aarti) शब्द संस्कृत के ‘आर्तिका’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है अरिष्ट, विपत्ति, आपत्ति, कष्ट, क्लेश। भगवान की आरती को ‘नीराजन’ भी कहते हैं । नीराजन का अर्थ है ‘विशेष रूप से प्रकाशित करना’। आरती के इन्हीं दो अर्थों के आधार पर भगवान की आरती करने के दो कारण (भाव) बतलाये गये हैं-
▪ प्रथम भाव है- आरती या नीराजन में दीपक की लौ को देवता के समस्त अंग-प्रत्यंग में बार-बार इस प्रकार घुमाया जाता है कि, भक्तगण आरती के प्रकाश में भगवान के चमकते हुए आभूषण और श्रीअंग की कान्ति की जगमगाहट का दर्शन करके आनन्दित हो सके और उस छवि को अच्छी तरह निहार कर हृदय में स्थित कर सकें; इसीलिए आरती को नीराजन कहते हैं क्योंकि इसमें भगवान की छवि को दीपक की लौ से विशेष रूप से प्रकाशित किया जाता है।
▪ दूसरे भाव के अनुसार आरती के द्वारा साधक अपने आराध्य के अरिष्टों को दीपक की लौ से विनष्ट कर देता है। भगवान की रूप माधुरी अप्रतिम होती है। जब भक्त उन्हें एकटक निहारता है तो उन्हें नज़र भी लग जाती है। आरती के दीपक की लौ से भगवान के समस्त अरिष्टों को दूर करने का प्रयास किया जाता है।
भगवान की आरती होने के बाद भक्तगण जो दोनों हाथों से आरती लेते हैं, उसके भी दो भाव हैं—
पहला-जिस दीपक की लौ ने हमें अपने आराध्य के नख-शिख के इतने सुन्दर दर्शन कराये उसकी हम बलैया लेते हैं, सिर पर धारण करते हैं।
दूसरा-जिस दीपक की बाती ने भगवान के अरिष्ट हरे हैं, जलाये हैं, उसे हम हमने मस्तक पर धारण करते हैं ।
कैसे करें भगवान की सच्ची आरती ?
ये संसार पंच महाभूतों—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना है। आरती में ये पांच वस्तुएं (पंच महाभूत) रहते है-
पृथ्वी की सुगंध—कपूर
जल की मधुर धारा—घी
अग्नि—दीपक की लौ
वायु—लौ का हिलना
आकाश—घण्टा, घण्टी, शंख, मृदंग आदि की ध्वनि। इस प्रकार सम्पूर्ण संसार से ही भगवान की आरती होती है।
मानव शरीर भी पंचमहाभूतों से बना है । मनुष्य अपने शरीर से भी ईश्वर की आरती कर सकता है । लेकिन कैसे ?
अपनी देह का दीपक, जीवन का घी, प्राण की बाती, और आत्मा की लौ सजाकर भगवान के इशारे पर नाचना—यही आरती है । इस तरह की सच्ची आरती करने पर संसार का बंधन छूट जाता है और जीव को भगवान के दर्शन होने लगते हैं।
आरती करने की विधि
▪ एक थाली में स्वस्तिक (Swastika) का चिह्न बनाये और पुष्प व अक्षत के आसन पर एक दीपक में घी की बाती और कपूर रखकर प्रज्ज्वलित करें। प्रार्थना करें—‘हे गोविन्द (Govind)! आपकी प्रसन्नता के लिये मैंने रत्नमय दीये में कपूर और घी में डुबोई हुई बाती जलाई है, जो मेरे जीवन के सारे अंधकार दूर कर दें।’
फिर एक ही स्थान पर खड़े होकर भगवान की आरती करें।
▪ भगवान की आरती उतारते समय चार बार चरणों में, दो बार नाभि पर, एक बार मुखमण्डल पर और सात बार सभी अंगों पर घुमाने का विधान है। इसके बाद शंख में जल लेकर भगवान के चारों ओर घुमाकर अपने ऊपर तथा भक्तजनों पर जल छोड़ दें। फिर मन से ही ठाकुरजी (Thakurji) को साष्टांग प्रणाम करें। इस तरह भगवान की आरती उतारने का विधान है।
▪ घर में एक बाती की ही आरती करनी चाहिये। जबकि मन्दिरों में 5, 7, 11, 21 या 31 बातियों से आरती की जाती है।
▪ भगवान की शुद्ध घी में डुबोई बाती से आरती करनी चाहिये।
▪ पूजन चाहे छोटा (पंचोपचार) हो या बड़ा (षोडशोपचार), बिना आरती के पूर्ण नहीं माना जाता है।
भगवान की आरती करने व देखने का महत्व
▪ जिस प्रकार आरती के दीपक की बाती ऊपर की ओर रहती है उसी प्रकार आरती देखने, करने और लेने से मनुष्य आध्यात्मिक दृष्टि से उच्चता प्राप्त करता है।
▪ कपूर से भगवान की आरती करने पर अश्वमेध यज्ञ (Ashwamedha Yagya) का फल मिलता है, साथ ही मनुष्य के कुल का उद्धार हो जाता है और अंत में साधक भगवान की अनंत ज्योति में विलीन हो जाता है।
▪ घी की बाती से जो मनुष्य भगवान की आरती उतारता है वो बहुत समय तक स्वर्गलोक में निवास करता है।