America: अमेरिका का रक्तचरित्र और खंड़ित दादागिरी के अवशेष

अमेरिका (America) के असली चरित्र का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जब पुतिन ने चेतावनी दी कि रूस अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अपनी कच्चे तेल की सप्लाई बंद कर सकता है तो अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन (US President Joe Biden) ईरान से प्रतिबंध हटाने पर विचार कर रहा हैं।

अमेरिका ने कहा है कि वो ईरान (Iran) से प्रतिबंध हटा सकता है ताकि ईरान अपना कच्चा तेल अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेच सके। अमेरिका ने वेनेजुएला से भी प्रतिबंध हटाने का भी आह्वान किया, ताकि वो अन्य देशों को भी कच्चा तेल बेच सके। यानि एक समय में पूरी दुनिया पर ईरान और वेनेज़ुएला (Venezuela) से कच्चे तेल को न लेने का दबाव बनाने वाले अमरीका ने कहा था कि वो उनके ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई करेगा। भारत उनमें से था जिन्होनें ईरान से कच्चा तेल खरीदना जारी रखा।

लेकिन वही अमेरिका अपने फायदे के लिये इन देशों से प्रतिबंध हटाने पर विचार करने की बात कर रहा है। दरअसल अमेरिका मतलबी मुल्क है, जो सिर्फ अपना हित देखता है। संयुक्त राज्य अमेरिका युद्ध और शांति की बात करता है, लेकिन ये दुनिया का सबसे बड़ा हथियार बेचने वाला देश है। ये वैश्विक हथियार बाजार का लगभग 37 प्रतिशत हिस्सा है। संयुक्त राज्य अमेरिका अन्य देशों के परमाणु कार्यक्रमों को विश्व की शांति के लिये खतरा कहता है लेकिन ये दुनिया का एकमात्र देश है, जिसने पहली और आखिरी बार परमाणु हथियारों का इस्तेमाल किया। आज भी संयुक्त राज्य अमेरिका दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी परमाणु ताकत है।

इसी तरह अमेरिका मानवाधिकारों पर बड़े काम करता है, भारत जैसे देशों को नस्लीय भेदभाव (Racial Discrimination) पर भाषण देता है। लेकिन उसी यू.एस. में अफ्रीकी मूल के लोगों के साथ नस्लीय भेदभाव होता है। इसके अलावा अमेरिका लोकतंत्र की बहाली के नाम पर दुनिया के सामने खुद को बड़ा खैरख्वाह मानता है और खुद को लोकतंत्र का चैंपियन बताता है। लेकिन मध्य पूर्व के मुल्कों में ये उन सरकारों का समर्थन करता है, जो अपने फायदे के लिये कट्टरपंथी ताकतों की अगुवाई करते हैं।

रूस दुनिया के किसी भी देश के मुकाबले सबसे ज़्यादा आर्थिक और अन्य प्रतिबंधों का सामना कर रहा है। अमेरिका के मामले में चीन (China) जैसे देशों को छोड़कर किसी अन्य ने उस पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया। यह मामला तब है जब अमेरिका ने झूठे आरोप लगाकर दुनिया भर के 15 से ज़्यादा देशों को जंग की आग झोंक दिया। यूएस ये सब हरकतें इन चीज़ों की बुनियाद पर करता है। लोकतंत्र की बहाली, मानवाधिकारों का उल्लंघन, रासायनिक और जैविक हथियारों का खतरा पैदा कर दुनिया को डराना, आतंकवाद और परमाणु कार्यक्रम को विश्व शांति के लिये बड़ा खतरा बताना।

यहीं वो बुनियादें है, जिन पर अमेरिका अपनी खोखले वर्चस्व की इमारत खड़ी करता है। अमेरिका अब तक कई देशों को तबाह कर चुका है। अफगानिस्तान और इराक (Afghanistan and Iraq) जैसे देशों में इसने अपनी सेना भेज दी है और युद्ध जैसे हालात पैदा कर दिये। जबकि सच्चाई ये है कि जिस ढोंग के आधार पर अमेरिका ने इन देशों में सैन्य संघर्ष शुरू किया वो कभी सही साबित नहीं हुए।

मिसाल के लिये अमेरिका ने कहा कि इराक में सद्दाम हुसैन (Saddam Hussein) ने रासायनिक हथियार विकसित किये थे जो विश्व शांति को बाधित कर सकते थे। इसी आधार पर उसने इराक पर हमला किया और आखिर में सद्दाम हुसैन को मौत की सजा सुनायी। लेकिन आज तक ये साबित नहीं हुआ है कि इराक के पास रासायनिक हथियार थे या नहीं?

अब बड़ा सवाल ये है कि क्या संयुक्त राष्ट्र जैसे किसी देश या अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिये अमेरिका पर कोई प्रतिबंध लगाया। इसका ज़वाब है, किसी भी देश ने इन मुद्दों पर अमेरिका पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया।

बीते साल काबुल (Kabul) में अमेरिकी सेना के एक ऑपरेशन में नौ निर्दोष नागरिक मारे गिराये और तब भी संयुक्त राष्ट्र ने मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिये अमेरिका को दोषी नहीं। क्या आप जानते हैं कि ये संस्थाएं अमेरिका जैसे देशों पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगा सकतीं?

ऐसा इसलिए है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र, डब्ल्यूएचओ, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), विश्व बैंक और ऐसे सभी संस्थान अमेरिका और पश्चिमी देशों के जरिये बनाये गये हैं और उन्हें इन देशों से सबसे अधिक पैसा मिलता है। ऐसे में जिन संस्थानों में अमेरिका का प्रभाव होगा, वे उस पर प्रतिबंध क्यों लगाएंगे?

मिसाल के लिये रूस ने आरोप लगाया है कि यूक्रेन में 30 प्रयोगशालायें हैं, जहां यूक्रेन (Ukraine) की सरकार अमेरिका की मदद से जैविक हथियार विकसित कर रही थी। और खुद अमेरिका ने भी माना है कि यूक्रेन में उसकी फंडिंग से बायोलॉजिकल लैब चलाई जा रही हैं, जहां सिर्फ रिसर्च हो रही थी। अगर रूस की मदद से बेलारूस या सीरिया जैसे देशों में ऐसे लैब चलाये जा रहे होते तो अमेरिका क्या करता? अमेरिका इन प्रयोगशालाओं को विश्व शांति के लिये बड़ा खतरा बताकर वहां अपनी सेना भेजकर जंग शुरू करेगा?

हालांकि यहां एक चिंता की बात ये है कि अमेरिका और रूस (Russia) दोनों एक दूसरे पर जैविक हथियार रखने का आरोप लगा रहे हैं और पूरी दुनिया में कहा जा रहा है कि अगर भविष्य में इस तरह के हथियारों का इस्तेमाल किया गया तो ये दोनों देश अपनी जिम्मेदारी से बच जायेगें। एक दूसरे पर दोषारोपण करके दुनिया को फिर से कोविड-19 जैसी महामारी का सामना करना पड़ेगा।

मौजूदा हालातों के बीच चीन ने भी एक बहुत बड़ा बयान दिया है। चीन ने इस जंग के लिये अमेरिका और नाटो को जिम्मेदार बताते हुए कहा है कि इन्हीं देशों ने यूक्रेन को जंग के मुहाने पर धकेला।

बीजिंग के इस दावे से साफ है कि अब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया फिर से संगठित हो रही है और सत्ता के ध्रुव बदल रहे हैं। इस नई विश्व व्यवस्था में चीन और रूस जैसे दो बड़े मुल्क एक साथ हैं। जबकि अमेरिका और यूरोपीय संघ के देशों की ताकत कम हो रही है और उनका प्रभाव उड़न छू हो रहा है। सबसे अहम बात ये है कि अमेरिका के विश्वास का घाटा काफी बढ़ गया है। यानि अब कोई भी देश इस पर भरोसा करने को तैयार नहीं है।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने कई देशों को सुरक्षा की गारंटी दी। इनमें जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान और जर्मनी (Taiwan and Germany) जैसे देश शामिल थे। लेकिन अब ये मुल्क अमेरिका पर भरोसा करने से डरते हैं। दक्षिण कोरिया को आज इस बात की चिंता सता रही है कि अगर भविष्य में उत्तर कोरिया (North Korea) उस पर हमला करता है तो क्या अमेरिका मदद के लिये वहां अपने सैनिक भेजेगा या आर्थिक प्रतिबंध लगाकर अपनी जिम्मेदारी से भागेगा। इसी तरह ताइवान को डर है कि अगर चीन वही करेगा जो रूस ने यूक्रेन में किया तो अमेरिका क्या करेगा क्योंकि वो समझता है कि अगर युद्ध हुआ तो अमेरिका मदद के लिये नहीं आयेगा।

सह-संस्थापक संपादक: राम अजोर

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