अपने 137 सालों के वजूद में ज़्यादातर भारतीय राजनीति पर हावी होने के बाद कांग्रेस (Congress) न सिर्फ अस्तित्व के संकट के कगार पर खड़ी है, बल्कि प्रमुख विपक्षी दल की स्थिति से भी अलग होती दिख रही है। तेजी से फैल रही भाजपा, आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस (Aam Aadmi Party and Trinamool Congress) जैसी पार्टियों की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षायें इस भव्य पुरानी पार्टी के लिये आगे का सियासी रास्ता लगातार मुश्किल करती दिख रही है।
साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में हार का सामना करने और विधानसभा चुनावों में हार का सामना करने के बाद पार्टी अब अगले 18 महीनों के भीतर 11 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले अपनी खोयी हुई चुनावी जमीन को फिर से हासिल करने के लिये कड़ा संघर्ष कर रही है। साल 2024 का जहां ये भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए से टक्कर लेने की कठिन चुनौती का सामना करेगी।
चुनावी हार के अलावा कांग्रेस गुटबाजी के दौर से गुजर रही है, जहां पार्टी ने पहले ही पंजाब और मध्य प्रदेश (Punjab and Madhya Pradesh) जैसे राज्यों में सत्ता खो दी है। मौजूदा हालातों में अब छत्तीसगढ़ में भी पार्टी मुश्किल हालातों का सामना करती दिख रही है, सूबे के दो सबसे बड़े नेताओं – भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव (Bhupesh Baghel and TS Singh Deo) के बीच सत्ता संघर्ष हर गुजरते दिन तेज होता जा रहा है।
जैसा कि कांग्रेस अपनी अंतरिम प्रमुख सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) की अगुवाई में फिर से खुद को मजबूत करने के कोशिश कर रही है। इसी क्रम में खुद को बचाने की कवायदों के बीच कांग्रेस के सामने कई बड़ी चुनौतियां मुंह खोले खड़ी है।
साल 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले लगभग एक दर्जन राज्यों में पार्टी चुनाव होने से पहले ही अपने संगठनात्मक चुनावों में नये अध्यक्षों का चुनाव करेगी, जो कि इस साल सितंबर में संभावित रूप से होगा। इसके तुरंत बाद कांग्रेस को गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भाजपा और आम आदमी पार्टी से दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ेगा।
कांग्रेस नेता कह रहे हैं कि राहुल गांधी (Rahul Gandhi) पार्टी के अगले अध्यक्ष होंगे क्योंकि कांग्रेसी नेताओं के बीच उनके नाम पर एकमत सहमति है। पिछली कार्यसमिति की बैठक में सभी नेता उनके नाम पर एकमत थे जबकि कुछ चुप थे लेकिन उन्होंने उनकी उम्मीदवारी का विरोध नहीं किया।
लेकिन कोई नहीं जानता कि राहुल गांधी इस पद को लेने के इच्छुक हैं या नहीं, क्योंकि साल 2019 की चुनावी हार के बाद इस्तीफा देने के बाद से वो लगातार पद संभालने से इनकार करते रहे हैं।
दूसरी ओर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (Election Strategist Prashant Kishore) ने इस साल अप्रैल में पार्टी के शीर्ष अधिकारियों के सामने अपनी प्रेजेंटेशन में सोनिया गांधी के लिये यूपीए अध्यक्ष, संसदीय बोर्ड प्रमुख और महासचिव समन्वय के अहम पदों को छोड़कर किसी को भी नहीं बुलाया।
इस सवाल पर कि क्या गैर-गांधी पार्टी प्रमुख संकटग्रस्त कांग्रेस के लिये तारनहार हो सकता है? कुल जमा देखा जाये तो कांग्रेस पार्टी का गैर गांधी परिवार से बने राष्ट्रपति को अगर स्वतंत्र रूप से कार्य करने की इज़ाजत दी जाती है तो वो नये विचारों को सामने ला सकता है। हालाँकि एक तरह का पुनरुद्धार एक लंबी खींची गयी प्रक्रिया है क्योंकि पूरे संगठनात्मक तंत्र को पूरी तरह से बदलने की जरूरत है। पार्टी को जमीन पर कैडर का पुनर्निर्माण करने, सार्वजनिक मुद्दों को उठाने, नये वोटिंग ब्लॉकों की पहचान करने, क्षेत्रीय दलों को खोये वोट वापस पाने, देश के लिये एक वैकल्पिक नजरिये मुहैया करवाने की जरूरत होगी।
एक गैर-गांधी परिवार के पास वो तौर तरीके नहीं हो सकते जो कि तुरन्त फौरी राहत कांग्रेस को पहुँचाये। हालाँकि गांधी नाम कांग्रेस पार्टी को एक साथ रखने के लिये गोंद का काम करता है। गैर गांधी परिवार से कांग्रेसी राष्ट्रपति बनाये जाने से पार्टी टूट के कगार पर भी पहुँच सकती है। ये अपने आप में बड़ा जोखिम है, क्योंकि प्रतिस्पर्धी नेता नये राष्ट्रपति द्वारा बनाये गये रोडमैप को नाकाम कर सकते हैं। इसलिए इसके फायदे भी हैं और नुकसान भी।
कांग्रेस के लिये अगली चुनौती गुजरात और हिमाचल प्रदेश (Gujarat and Himachal Pradesh) में होने वाले विधानसभा चुनाव हैं। उसके सामने न सिर्फ भाजपा को सत्ता से बाहर करने का काम है, जिसने दो राज्यों में खुद को मजबूती से स्थापित किया है, बल्कि जोशीली आम आदमी पार्टी भी सामने ताल ठोंकती खड़ी है, जिसने पहले ही पंजाब को अपने हाथों से खींच लिया है।
साल 2023 में नौ राज्यों में चुनाव होने हैं, जिनमें राजस्थान और छत्तीसगढ़ (Rajasthan and Chhattisgarh) शामिल हैं – ये सिर्फ दो राज्य ही है, जहां पार्टी सत्ता में है। अन्य राज्य जो अगले साल चुनावी मैदान में उतरेगें उनमें त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, मिजोरम और तेलंगाना खासतौर से शामिल है।
जहां पार्टी को राजस्थान और छत्तीसगढ़ दोनों में सत्ता विरोधी लहर की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है, वहीं बाद में ये गुटबाजी से भी जूझ रही है।
इस साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश विधानसभा (Uttar Pradesh Assembly) चुनावों में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा तो राजनीतिक विशेषज्ञों ने अगले लोकसभा चुनावों के लिये भविष्यवाणी करते हुए कहा कि कांग्रेस के नेतृत्व में एक बिखरा हुआ विपक्ष भाजपा को सत्ता में आने का और केंद्र में बने रहने का आसान रास्ता देगा।
साल 2024 के लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) में भगवा पार्टी को टक्कर देने के लिये कोई न कोई विपक्ष समय-समय पर सभी गैर-भाजपा दलों को मंच पर लाने का प्रयास करता रहा है। हालांकि उन प्रयासों को ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से रोक दिया गया।
आज तक कांग्रेस के नेतृत्व वाला विपक्ष असल मुद्दों पर सत्ताधारी दल को निशाना बनाने में पूरी तरह नाकाम रहा और इसके बजाय कांग्रेसी राजनीतिक पटकथा कमोबेश नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की आलोचना के इर्द-गिर्द घूमती रही है।
विपक्ष के तीन प्रमुख काम हैं – एक सत्ता पक्ष की कमियों को उजागर करना। दूसरा विकल्प प्रदान करना है, और तीसरा सरकार के साथ सहयोग करना जब वो अच्छा काम कर रही हो। सिर्फ विरोध करने के लिये सरकार का विरोध हर गैर जायजा मुद्दे पर करना गलत है। इससे जनता के बीच विपक्ष अपनी साख खराब कर लेता है। चूंकि कांग्रेस लंबे समय तक विपक्ष में नहीं रही है, इसलिए ये नहीं जानती कि बेहतर विपक्ष रहकर कैसे कारगर रणनीति के साथ काम किया जाये। कांग्रेसी रवैया अभी तक मोदी सरकार की खामियों को प्रभावी ढंग से उजागर करने में नाकाम रहा है।
ये पूछे जाने पर कि कांग्रेसी सियासी पटकथा सत्ताधारी पार्टी की विफलताओं के इर्द-गिर्द क्यों घूमती रही है, कांग्रेस का तर्क है कि वो अपनी सफलता की कहानियों को उजागर कर रही है, जहां उसका दावा है कि मौजूदा सरकार नाकम हो गयी है। यानी कांग्रेस अभी भी अतीत की आत्ममुग्धता (Past Complacency) और फ्लैश बैक फैटेंसी (Flashback Fantasy) से निकलने में झिझक रही है।
संप्रग के शासन के दौरान आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय, लैंगिक समानता के अलावा कांग्रेस हर मोर्चे पर अभूतपूर्व रही। इसलिए वो अपनी कामयाबियों को बिल्कुल भी कम करके नहीं आंकती हैं। वो लोगों को याद दिला रही हैं कि जब कुशल सरकार होती है तो यही होता है और जब अकुशल सरकार होती है तो ये सब होता है।
दिसंबर 2021 में जब ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) ने एनसीपी प्रमुख शरद पवार के साथ एक बैठक के दौरान ऐलान किया कि यूपीए का वजूद खत्म हो गया है, कुछ कांग्रेसी नेता एकजुट मोर्चा बनाने की जरूरतों पर रौशनी डालने के लिये लगातार बेमतलब की दौड़ लगा रहे है।
बमुश्किल दो महीने बाद पार्टी ने आप के हाथों पंजाब में सत्ता खो दी और अब दोनों पार्टियां दो-दो राज्यों – राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और दिल्ली और पंजाब में आप शासन कर रही है। इस तुलना ने साफतौर से दोनों पार्टियों को विपक्ष में बराबरी पर ला दिया है।
आप अब उन राज्यों में रणनीतिक रूप से चुनाव लड़ रही है, जहां भाजपा और कांग्रेस आमने-सामने की लड़ाई में शामिल हैं। अरविंद केजरीवाल का विचार सीधा और सरल है – कांग्रेस को मुख्य विपक्षी दल की भूमिका से हटाकर खुद को बेहतरीन विकल्प के तौर पर उभरना। यानी जिन जिन सूबों में कांग्रेस की अकर्मण्यता है, उन सूबों में कांग्रेसी वैक्यूम को आम आदमी पार्टी से बदल दिया जाये।
आगामी चुनाव ये तय करेंगे कि क्या कांग्रेस खुद में दुबारा जान फूंकने में कामयाब होती है या फिर दीर्घ अभिशप्त राजनीतिक अज्ञातवास (Long Cursed Political Anonymity) में धकेल दी जाती है। कांग्रेस के प्रदर्शन को तय करने के लिये पार्टी अध्यक्ष का चुनाव भी एक अहम पड़ाव होगा।