लगभग तीन दशकों से सहयोगी जद (यू) और भाजपा ने हाल के दिनों में अग्निपथ भर्ती, जाति जनगणना, जनसंख्या कानून और लाउडस्पीकर पर प्रतिबंध जैसे मुद्दों पर आपस में उलझे दिखे है। हालांकि जद (यू) ने राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति चुनावों में एनडीए उम्मीदवारों का समर्थन किया, लेकिन कुछ अहम कार्यक्रमों में नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की गैरमौजूदगी और बीते रविवार (7 अगस्त 2022) की हुई नीति आयोग (NITI Aayog) की बैठक में शामिल नहीं होने के उनके फैसले ने राजनीतिक पंडितों को बड़ी हैरानी में डाल दिया।
ऐसा लगता है कि भाजपा-जद (यू) गठबंधन दोफाड़ और टूट के कगार पर पहुँच चुकी है, फ्लैश बैक में देखा जाये तो इसकी कहानी दो साल पहले से शुरू हुई साल 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले इस कहानी का सिलसिला देखा गया। जानकारों का मानना है कि इसके पीछे बड़ी वजह नीतीश कुमार का राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में खड़े होने का है, जो कि लंबे समय से अधर में अटका हुआ है।
नीतीश कुमार को मुमकिन तौर पर इस बात का डर है कि भाजपा (BJP) 2024 के लोकसभा चुनावों में जीत हासिल करने के बाद उनकी पार्टी को अकेला “छोड़” सकती है और साल 2025 के विधानसभा चुनावों में वो अकेले ही बिहार के सियासी मैदान में उतरेगी। जद (यू) की भाजपा पर दबाव बढ़ाने की कोशिश इसी बात को हवा देती दिख रही है।
भाजपा के लिये साल 2020 के विधानसभा चुनावों में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने के बावजूद नीतीश कुमार को सीएम के तौर पर में स्वीकारना करना बेहद मुश्किल कठिन निर्णय रहा होगा। इसकी वज़ह सूबे की सियासी में नीतीश का कुमार का भरोसेमंद चेहरा था, जिन्होंने हमेशा भ्रष्टाचार के खिलाफ बात की और यहां तक कि साल 2017 में राजद (RJD) के साथ गठबंधन छोड़ दिया ताकि उनके ‘भ्रष्टाचार नहीं’ के मुद्दे को और मजबूत किया जा सके।
भाजपा ने 74 सीटें जीतीं, लेकिन ये अपने दम पर और भरोसेमंद चेहरे के बिना सरकार बनाने के लिये काफी नहीं था, और आखिरकर राजनीतिक रूप से अहम बिहार में सत्ता में बने रहने के लिये भाजपा आलाकमान को नीतीश कुमार और उनकी पार्टी पर निर्भर रहना पड़ा।
कुल मिलाकर कहें तो किसी भी पार्टी के पास दोगुनी सीटें होंगी, सरकार को कैसे चलाना चाहिये, इस पर अपनी बात रखनी होगी, उसे कहीं न कहीं अपना ये हक़ दिखाना चाहिये था। भाजपा ने नीतीश को सीएम पद दिया और फिर कम सीटों वाली पार्टी जदयू को अपने तरीके से सरकार चलाना कहा, यानि कि सियासत की ज़मीन पर ये रिश्ता कुदरती तौर पर गैरवाज़िब था।
सीएम के तौर पर अपने मौजूदा कार्यकाल में नीतीश ने जम़कर ताकत की मौज़ ली, उन्होंने पहले पार्टी के सभी विभागों को अपने पास रखा। भगवा पार्टी अपनी ओर से अपने संगठनात्मक विकास के लिये काफी सरगर्मी से राम सूरत राय, सम्राट चौधरी, हरिभूषण ठाकुर (Haribhushan Thakur) और यहां तक कि प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल (Sanjay Jaiswal) जैसे अपने नेताओं के नाम पर विचार कर रही है।
जदयू से ज़्यादा सीटें जीतने और राज्य पर शासन करने के लिये कुमार की निर्भरता से बाहर निकलने की कोशिश करने के बाद भाजपा ने बिहार में जमकर सियासी कसरत कर रही है, ऐसा लगता है कि वो कुमार के सामने मजबूत चेहरा ढूढ़ने में काफी बेताब तरीके से नाम की तलाश कर रही हैं।
हमेशा की तरह कुमार ने एक साफ तस्वीर देश के सामने पेश कर है, जिसके बारे में देश आसानी से अंदाज़ा लगा रहा है कि आगे किस तरह की तस्वीर बनती दिख रही है, लेकिन उनकी पॉलिटिकल ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए कुछ भी मुमकिन है! नरेंद्र मोदी के मुखर आलोचक से लेकर उनके सहयोगी बनने तक नीतीश कुमार ने अतीत में सत्ता के हैरतअंगेज बदलाव किये हैं। बिहार में बीजेपी के साथ शासन करते हुए उन्होंने एनडीए छोड़ दिया और राजद से हाथ मिला लिया। फिर वो राजद छोड़कर एनडीए में वापस चले गये।
कुमार ने अक्सर ट्रिपल सी (क्राइम, करप्शन और कम्युनलिज़्म) की बात की है, और सत्ता के लिये इनमें से उन्होनें दो सी का चयन किय यानि कि भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता के बीच चयन किया। इस बार उनसे सांप्रदायिकता का अपना साल 2013 का कार्ड चुनने की उम्मीद है।
खासतौर से साल 2013 में एनडीए से बाहर निकलने के बाद ये साफ हो गया कि 2014 के लोकसभा चुनावों (Lok Sabha Elections) में नरेंद्र मोदी एनडीए का पीएम चेहरा होंगे, उस दौरान नीतीश ने “संघ मुक्त भारत” का आह्वान किया था। नीतीश ने ये भी ऐलान किया था कि “मिट्टी में मिल जायेगें, लेकिन भाजपा के साथ वापस नहीं जायेगें।”
साल 2017 में राजद के साथ गठबंधन से बाहर निकलने के बाद नीतीश कुमार अब कथित तौर पर लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) की पार्टी के साथ गठबंधन करने के लिये तेजी से आगे बढ़ते दिख रहे हैं, मौजूदा हालातों में फिलहाल राजद सुप्रीमो के खिलाफ भ्रष्टाचार के दाग काफी स्याह हो गये हैं।
यादव अब भी पांच चारा घोटालों में दोषी हैं, जिनमें से चार पिछले पांच सालों में सामने आये हैं। पिछले साल जमानत मिलने से पहले उन्होंने इनमें से ज्यादातर मामलों में उन्होनें जेल में सज़ा बितायी। तेजस्वी यादव के खिलाफ दर्ज मामलों में बहुत कम प्रोगेस हुई है कि राजद का कहना है कि “केंद्रीय एजेंसियों के जरिये राजनीतिक प्रतिशोध” के कारण उन्हें ज़बरन ऐसे बेबुनियादी मामलों में घसीटा जा रहा है।
कुमार का अपने दोस्त से दुश्मन बने दोस्त से दुश्मन बनने का फैसला सही होगा या नहीं, ये बिहार के राजनीतिक गणित से समझा जा सकता है। अगर कुमार कहीं भी राष्ट्रीय राजनीति पर नज़र गड़ाए हुए हैं तो महागठबंधन जिसमें जद (यू), राजद और कांग्रेस शामिल हैं, सोशल इंजीनियरिंग, हिंदुत्व, और राष्ट्रवाद की मिलीजुली कैलकुलेशन को मिलकर लगभग पूरा कर सकते हैं।
राजद की ये टिप्पणी कि वो कुमार को गले लगाने के लिए तैयार है, अगर बाद में भाजपा को छोड़ने का फैसला किया जाता है तो नई सरकार बनने की स्थिति में जद (यू) प्रमुख को मुख्यमंत्री का पद देने की भी आपसी मंजूरी भी लगभग बन गयी है।
मामले पर राजद के प्रवक्ता चितरंजन गगन ने कहा कि जब एनडीए (NDA) अभी भी सत्ता में था और उनकी पार्टी का सत्तारूढ़ गठबंधन सहयोगियों के बीच चल रहे आमने-सामने के साथ कोई लेना-देना नहीं था, उन्होंने जदयू की संभावना से इंकार नहीं किया। राजद की नेतृत्व वाले महागठबंधन के साथ वो गठबंधन कर सकते है।
विशेषज्ञों का मानना है कि कुमार का डेवलपमेंट कार्ड राजद के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को कम करने में मदद कर सकता है। पिछले विधानसभा चुनावों में ये साफ हो गया था कि राजद की पकड़ ढीली नहीं हुई है, जब लालू प्रसाद की गैरमौजूदगी के बावजूद ये सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी।
जद (यू) को अपनी ओर से ये उम्मीद है कि अगर महागठबंधन के साथ गठबंधन 2024 में अच्छा करता है तो नीतीश भाजपा विरोधी विपक्ष के केंद्र के रूप में उभर सकते हैं, जिसमें मौजूदा वक़्त में विश्वसनीय चेहरों की काफी कमी है, जो मोदी के करिश्मे का मुकाबला करने के लिये पूरी कुव्वत रखते है। इस रास्ते में एकमात्र बाधा पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) हो सकती हैं, जिनकी अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षायें हैं, लेकिन वामपंथियों और कांग्रेस के लिये भी ये अस्वीकार्य होगा।
एक विकल्प जो हम में से ज़्यादातर के लिए पूर्वाभास है, वो है नीतीश कुमार का राजद और कांग्रेस में वापस जाना, लेकिन 2015-17 के बाद से चीजें काफी बदल गयी हैं। साल 2017 में जिस तरह से उन्होंने एनडीए में एन्ट्री ली, उसे देखते हुए महागठबंधन की अन्य पार्टियां उन चेहरों को विश्वसनीय नहीं मानती है।
जद (यू) साल 2017 के मुकाबले अब बहुत कमजोर पार्टी है। तब उसके पास 71 सीटें थीं, अब उसके पास सिर्फ 45 सीटें हैं। दूसरी ओर राजद मजबूत हो गयी है और अब उसके पास 80 सीटें है। साथ ही सत्ता विरोधी नीतीश कुमार पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत हैं।
एक अन्य विकल्प ये है कि भाजपा किसी तरह नीतीश कुमार को ज़्यादा रियायतों देकर उन्हें शांत कर मामला मैनेज कर सकती है, इस तथ्य को देखते हुए कि बिहार 2024 के लोकसभा चुनावों में अहम भूमिका निभायेगा। साल 2019 के संसदीय चुनावों में एनडीए गठबंधन ने बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 39 पर जीत हासिल की थी।
कई जानकारों का मानना है कि नीतीश कुमार को फिलहाल परेशान करने का मतलब उन्हें महागठबंधन की तरफ धकेलना होगा। राजद का मुस्लिम-यादव आधार, कुर्मी, एमबीसी और महादलितों के बीच जद (यू) का समर्थन साथ ही कांग्रेस और भाकपा-माले (CPI-ML) का प्रभाव एनडीए के खिलाफ मजबूत किलेबंदी तैयार कर सकता है, जो कि सीधे तौर पर एनडीए को भारी नुकसान पहुंचा सकता है।