साल 2024 में Narendra Modi को जीत की माइलेज देगा बिखरा विपक्ष

साल 2014 में जब से नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की अगुवाई भाजपा केंद्र में सत्ता में आई है, विपक्ष पार्टियां एक छत्र के नीचे आने के लिये हर मुमकिन कोशिश कर रही है, लेकिन मौजूदा सियासी हालातों में सभी विपक्षी कवायदें बेकार होती दिख रही है। क्षेत्रीय क्षत्रप जिन्होंने संयुक्त मोर्चा बनाने की कोशिश की थी, वो इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ है कि भाजपा मुकाबला करना टेढ़ी खीर है।

अब अगले लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) में दो साल से भी कम वक़्त बचा है, संयुक्त विपक्षी मोर्चे के प्रयास अभी भी चल रहे हैं, सिर्फ अंतर ये है कि राष्ट्रीय क्षेत्र पर नज़र रखने वाले क्षेत्रीय सत्ता धारकों की तादाद में दो सियासी ताकतों नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल (Nitish Kumar and Arvind Kejriwal) का इज़ाफा हुआ है, ये नाम ममता बनर्जी, केसीआर, एमके स्टालिन और शरद पवार (MK Stalin and Sharad Pawar) जैसे कई अन्य लोगों के अलावा हैं (भले ही हम राहुल गांधी और अखिलेश यादव (Rahul Gandhi and Akhilesh Yadav) की गिनती न करें)।

यहां एक निर्विवाद तथ्य ये है कि विपक्ष को एक साथ लाने के ऐसे प्रयास यहां तक ​​कि देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस द्वारा भी कोशिश की गयी, जो कि नाकाम रहे हैं। राजनीतिक जानकारों का मानना ​​​​है कि इन क्षेत्रीय क्षत्रपों की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं से बाधित किया गया है – हर कोई प्रधानमंत्री बनने का अनकहा सपना देखता है।

जब से नीतीश कुमार अपने ताजातरीन उतार-चढ़ाव में महागठबंधन के पाले में शामिल हुए हैं, वो एकजुट विपक्ष का आह्वान कर रहे हैं, ये कहते हुए कि वो साल 2024 की दौड़ में पीएम पद के दावेदार नहीं है। कई जानकार मानते है कि नीतीश कुमार को लगता है कि उनके भाजपा के साथ मतभेद से ज्यादा थे और कुमार की भी काफी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षायें थे, जो भगवा पार्टी के मुकाबले महागठबंधन के साथ उनकी करीबियों के अनुकूल थी। जिसने उन्हें एनडीए (NDA) का साथ छोड़ने के लिए प्रेरित किया।

दूसरी ओर अरविंद केजरीवाल पहले से ही ‘भीड़’ वाले विपक्ष से अच्छी तरह वाकिफ हैं, और इसलिये उन्होंने एक अलग रास्ता अपनाया है। न सिर्फ एक अपरंपरागत राजनीतिक दृष्टिकोण के साथ वो आगे बढ़ रहे है बल्कि आम आदमी पार्टी प्रमुख ने इस महीने की शुरूआत में ‘मेक इंडिया नंबर 1’ कॉलिंग कार्ड का ऐलान कर खुद को मोदी के खिलाफ खड़ा किया।

उनका नज़रियां बिल्कुल साफ है – कांग्रेस को प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी दल की भूमिका से रिप्लेस कर उस जगह को अपनी पार्टी से बदलना। जहां वो चुनावी मुकाबला और राजनीतिक किलेबंदी सीधे भाजपा के खिलाफ खड़ा करना चाहते है। ये इस तथ्य से साफ है कि वो रणनीतिक रूप से उन सूबों में चुनाव लड़ रहे हैं जहां भाजपा और कांग्रेस के बीच अक्सर आमने-सामने की टक्कर रही है।

केजरीवाल ये भी अच्छे से जानते है कि जातिवादी राजनीति और हिंदुत्व (Hindutva) में भाजपा को पछाड़ना नामुमकिन होगा। इसी को देखते हुए उन्होनें सब्सिड़ी और मुफ़्त सुविधायें वाला रास्ता अपनाया और ये असल उनके लिये अब तक कारगर दांव साबित हुआ है। आप की पंजाब की जीत के बाद उनकी पार्टी साफतौर पर सूबे में कांग्रेस के ओहदें के बराबर पहुँच चुकी है। दोनों दलों ने दो राज्यों में अपने दम पर शासन किया है।

मिथकों के बीच झूलती विपक्षी एकता

पीएम उम्मीदवारों की सूची में नये नामों के जुड़ने से विपक्ष का सिरदर्द ही बढ़ेगा, क्योंकि ये सिर्फ एक प्रधान मंत्री के चेहरे को चुनने की प्रक्रिया को जटिल बनाने वाली कवायद से ज़्यादा कुछ नहीं है। आप और कांग्रेस के हालिया सियासी दांवों से पता चलता है कि वो इन जटिलताओं को अच्छे से समझते हैं। ऐसे में वो 2024 की रेस में अकेले ही ताल ठोंक सकते है। इन हालातों में वोटों का बंटवारा आखिर में जाकर भाजपा (BJP) की मदद कर सकता है।

विपक्ष साल 2019 के लोकसभा चुनावों में छिटककर प्रधानमंत्री पद के चेहरे के बिना लड़ने का नतीज़ा पहले ही देख चुका है। उस दौरान भाजपा 2014 से ज़्यादा मजबूत होकर उभरी और कांग्रेस की अगुवाई वाले विपक्ष को नेस्तनाबूत कर दिया। ये सिर्फ यहीं खत्म नहीं हुआ और इसका असर इस साल के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में दिखायी दिया, जहां भाजपा ने उनमें से चार राज्य में अपनी जीत को बरकरार रखा।

एक अहम बात जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिये, वो है इन नेताओं का जनता से जुड़ाव। नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल ने निश्चित रूप से जनता से जुड़ने की अपनी खास क्षमता दिखायी है, विभिन्न संस्कृतियों, डेमोग्राफी, कास्ट एलाइनमेंट और सोशल फॉम्यूलेशन (Cast Alignment and Social Formulation) के साथ विभिन्न राज्यों में अपनी खास छवि बनाना बेहद मुश्किल काम है, लेकिन इस काम में नरेंद्र मोदी ने अपने समर्थक के साथ महारत हासिल की है। पीएम मोदी की छवि और वोटरों की सोच डिकोड करने की क्षमता विपक्षियों के लिये बड़ी चुनौती है।

ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षायें जो पश्चिम बंगाल से परे अपनी पार्टी का विस्तार करना चाहती हैं, उनके मंत्रियों के कई घोटालों में कथित जुड़ावों के बीच उनका ये अभियान बुरी तरह प्रभावित हुऐ है। भाषा की बाधा एक और वज़ह है जो उन्हें उत्तरी और मध्य बेल्ट में हिंदी भाषी आबादी से जुड़ने से रोकती है।

हालांकि इन क्षेत्रीय क्षत्रपों ने अपने राज्यों में बीजेपी को काबू में रखने में कामयाबी हासिल की है, लेकिन केंद्र में सत्ताधारी पार्टी होने के नाते मतदाता के लियें चीजें बहुत अलग होती हैं। मतदाता सब कुछ जानता है, चाहे नीतीश कुमार का सत्ता के लिये एनडीए खेमा छोड़ना हो या केजरीवाल की मुफ़्त की रेवड़ी वाली रणनीति या फिर ममता बनर्जी का पीएम बनने का सपना।

कांग्रेस के साथ बनर्जी के बढ़ते मतभेदों से भी संयुक्त मोर्चे को मजबूत करने की कोशिशों को बाधित होने की पर्याप्त उम्मीद है, इस तथ्य के बावजूद कि उन्होंने (कांग्रेसी आलाकमान) साल 2024 के लोकसभा चुनाव कुमार और झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन (Hemant Soren) के साथ मिलकर लड़ने का ऐलान किया है।

बंटा हुआ विपक्ष नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिये बेहतरीन बीमा पॉलिसी है। कुछ इसी तरह के सियासी हालात 1980 के दशक में देखे गये थे, जब जनता पार्टी इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) की अगुवाई वाली कांग्रेस के खिलाफ गठबंधन करने में कामयाब रही, लेकिन उसे हराने में नाकाम रही। विपक्ष को एक मंच पर लाना एक बात है, उसके भरोसे नतीज़ों पर पहुँचना दूसरी बात, इंदिरा गांधी के खिलाफ भी यही हुआ, जब जनता पार्टी आयी तो अच्छी लगी, लेकिन तब दक्षिणपंथी, वामपंथी, सभी तरह के वैचारिक राजनीतिक और अंतर्विरोध थे, जिसकी वज़ह से मोरारजी देसाई (Morarji Desai) का पतन हुआ और जनता पार्टी का पॉलिटिकल एक्सपेरिमेंट धराशायी हो गया।

इसी क्रम में भाजपायी खेमे में शिरोमणि अकाली दल और जनता दल (यूनाइटेड) जैसी क्षेत्रीय ताकतें के एनडीए छोड़ने के बाद भरोसेमंद साथियों की कमी भाजपा नेत़ृत्व को महसूस हो रही होगी।, यही हालात भाजपा के लिये 2024 की राह मुश्किल बना सकते है और अगर भगवा पार्टी को 300 के बजाय 200 सीटें मिलती हैं तो उनके लिये बड़ी समस्या का सब़ब बन सकता है।

राजनीति नाटकीय घटनाक्रम लगभग क्रिकेट मैच की तरह होते है, जो कि पूरी तरह से अप्रत्याशित हैं। जब ओवर की आखिरी गेंद ना फेंकी जाये तब तक कुछ भी कहना मुश्किल होता है, इसी बुनियाद पर 1987 जैसी घटना की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है, जब भाजपा-जनता दल ने बड़ी सियासी ताकत को हराया था।

इस बार पटना का रास्ता वो सड़क है, जिसमें भाजपा को छोड़कर हर राजनीतिक दल शामिल हुआ है। इसमें वामपंथी, कांग्रेस और जनता परिवार के दो सबसे पुराने धड़े शामिल हैं। भरसक हो सकता है कि ये सड़क पटना से भी आगे जाने वाली हो।

भाजपा के पक्ष में सियासी संभावनायें

कुछ हारों को छोड़ दें तो बीजेपी की जीत का सिलसिला पलटता नहीं दिख रहा है। पार्टी ने इस साल की शुरुआत में हुए विधानसभा चुनावों में पांच में से चार राज्यों में अपनी जीत को बरकरार रखा, जिसमें राजनीतिक रूप से काफी अहम उत्तर प्रदेश भी शामिल था।

चुनावी जीत के बाद अपने संबोधन में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने सुझाव दिया कि यूपी के रूझान साल 2024 में भाजपा की जीत को पुख़्ता करते हैं और ऐसा नहीं लगता कि वो अपने पूर्वानुमान के साथ गलत हो रहे हैं।

कांग्रेस अभी भी नेतृत्व के संकट से जूझ रही है, जो अब अस्तित्व के संकट और अपनी राज्य इकाइयों के भीतर अंदरूनी कलह से लगातार दो-चार हो रही है, बावजूद इसके देश की सबसे पुरानी पार्टी अपनी अखिल भारतीय उपस्थिति का दावा करती है, तथ्य ये है कि कांग्रेस लगभग एक क्षेत्रीय पार्टी बन गयी है।

अरविंद केजरीवाल की आप और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस मुमकिन तौर पर विपक्षी नेतृत्व के लिये होड़ करते दिख सकते है।

क्षेत्रीय दल इस साल की शुरूआत में हुए विधानसभा चुनावों में प्रदर्शन करने में नाकाम रहे। अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने अपनी स्थिति में भारी सुधार किया, लेकिन वो भी भाजपा से सत्ता छीनने के करीब कहीं नहीं थी। मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने दलितों के उनसे दूर जाने से अपना सियासी मैदान खो दिया। पश्चिम बंगाल में ममता की तृणमूल कांग्रेस का दबदबा हो सकता है, लेकिन गोवा हारने की वज़ह से उनका पॉलिटिकल एक्सपेरिटमेंट राज्य के बाहर नाकाम हो गया।

इन सबसे ऊपर क्षेत्रीय नेताओं के अहंकार के टकराव की वज़ह से विपक्षी एकता फिलहाल बनती नहीं दिख रही है। सबसे पहला और सबसे अहम सवाल ये है कि इतने लंबे समय से केन्द्र की सत्ता में आने के लिये संघर्ष कर रहे इन सभी क्षेत्रीय क्षत्रपों में विपक्ष का नेतृत्व कौन करेगा?

सह-संस्थापक संपादक : राम अजोर

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