Pakistan Army: कम से कम एक महीने लंबी चली जद्दोजहद, कयासों और आंशकाओं के बाद पाकिस्तान को आखिरकर अपना नया सेना प्रमुख मिल ही गया। लेफ्टिनेंट-जनरल सैयद असीम मुनीर (Syed Asim Munir) को प्रधान मंत्री शहबाज शरीफ (Prime Minister Shahbaz Sharif) ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी इमरान खान की मर्जी के खिलाफ चुना। पूर्व पीएम को इस सोच से नफरत थी कि नया जनरल कौमी सरकार के साथ खड़ा होगा और देश के वित्तीय कुप्रबंधन या सार्वजनिक संपत्तियों के गलत इस्तेमाल को उजागर करेगा। ऐसी और भी कई दबे छिपे किस्सों कहानियां सामने आयेगी जो कि उनके समर्थकों के बीच और निश्चित रूप से सेना के भीतर उनकी प्रतिष्ठा (इमरान खान) को कमजोर करेंगी।
लेफ्टिनेंट जनरल मुनीर पहले से ही इमरान खान के खिलाफ होने की वज़ह से खासा मशहूर रहे हैं। मुनीर ने इमरान खान की पत्नी के खिलाफ भ्रष्टाचार फाइलें खोलने की कोशिश की थी, जिसके बाद उन्हें आईएसआई प्रमुख के पद से हटा दिया गया था।
लेकिन इसका मतलब सिर्फ इतना है कि मुनीर पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (PMLN) सरकार पर नज़र रखने में समान रूप से सक्षम हैं और उनके आदमी नहीं हैं। नवाज शरीफ जिन्होंने मुनीर को सरकार की पसंद बनाने में अहम भूमिका निभायी थी, तब तक पूरी वफादारी की उम्मीद नहीं करते हैं जब तक कि नये सेना प्रमुख इमरान खान (Imran Khan) की ओर झुकते नहीं हैं और ये सुनिश्चित करते हैं कि उनकी अगुवाई में पाकिस्तानी सेना वापस केंद्रीय स्थिति में आ जाये। दो राजनीतिक दल अकेले के बीच यहीं वजह पीएमएलएन के लिये पाकिस्तान के राजनीतिक गालियारे में वापस जाने के लिये सियासी जगह बना सकता है। एकमात्र समस्या ये है कि पाकिस्तानी सेना नहीं चाहती कि पंजाब में भी पीएमएलएन हावी हो। अगला आम चुनाव इमरान खान या शरीफ परिवार के लिये आसान नहीं होना चाहिये।
जहां तक वफादारी की बात है, लेफ्टिनेंट जनरल असीम मुनीर अपने पूर्ववर्ती जनरल कमर जावेद बाजवा के शागिर्द हैं। बाद वाले ने उन्हें मिलिट्री इंटेलिजेंस (Military Intelligence) के प्रमुख के तौर पर तैनात किया, जो सेना के अंदर निगरानी रखने के मामले में अहम सर्विस है, बाद में उन्हें आईएसआई (ISI) के प्रमुख के तौर पर पदोन्नत किया गया। इसका मतलब ये है कि मुनीर ये सुनिश्चित करने के लिये अपने पूर्व बॉस की बचाव करेंगे कि पीटीआई (PTI) की भीड़ बाजवा को गाली देने में न लगे, जैसा कि अतीत में किया गया था। इसका मतलब ये भी है कि बाजवा को पीटीआई की भयावह भीड़ से बचने और कम से कम एक साल पाकिस्तान में रहने के लिये बाजवा को सहयोगियों से किये गये वादे को पूरा करने में मदद की दरकार होगी, जो कि उन्हें मुनीर ही मुहैया करवा सकते है।
कुछ लोग मुनीर को लेकर काफी उत्साहित है क्योंकि माना जा रहा है कि मुनीर भष्ट्राचार को लेकर सख़्त रूख़ अपनाते है, ये सब तब था जबकि वो सेना प्रमुख नहीं थे, लेकिन बाजवा के खिलाफ किसी भी कार्रवाई का समर्थन करना उनके लिये बड़ी चुनौती होगा। इस्लामाबाद (Islamabad) के सूत्रों के मुताबिक बाजवा की घोषित संपत्ति के बारे में डेटा का लीक होना था, जिसकी वज़ह से वो सेना प्रमुख के लिये PMLN की पसंद पर सहमत हुए। उनके पूर्ववर्ती जनरल अशफ़ाक परवेज़ कियानी (सेवानिवृत्त) की तरह, बाजवा के बारे में और भी कहानियाँ सामने आ सकती हैं, ख़ासकर साबिर हमीद उर्फ मिठू के साथ उनके जुड़ाव की वज़ह से जो कि लाहौर के बड़े व्यवसायी हैं, साथ ही वो भू-माफिया के साथ अपने तालुक्कात रखने के लिये भी जाने जाते हैं।
मिठू और बाजवा 1990 के दशक के आखिर में एक साथ आये जब सैन्य अधिकारी अपनी कमाई बढ़ाने के लिये स्थानीय कारोबारियों और व्यवसायियों के साथ संपर्क बनाने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे। सूत्रों का कहना है कि दोनों तभी से दोस्त और बिजनेस पार्टनर हैं। भले ही अक्टूबर 1999 में जनरल परवेज मुशर्रफ के अधिग्रहण से पाकिस्तानी सेना की तनख्वाहों में खासा इज़ाफा हुआ, लेकिन इस कवायद ने सैन्य कर्मियों की ज़्यादा संसाधनों की खोज को नहीं रोका।
पाकिस्तानी सेना का सबसे बड़ा घोटाला वेलफेयर के नाम पर जमीन की खरीद-फरोख़्त थी। इस योजना के तहत अधिकारी कैडर के लिये घर दिया जाना था। डिफेन्स हाउसिंग अथॉरिटी (डीएचए) न सिर्फ नागरिक और सेना के बीच मशहूर आवास विकास योजना है, बल्कि ये बेहद गंभीर मामला भी है जहां अधिकारी सभी अधिग्रहणों को कानूनी रूप से पेश करके तेजी से पैसा बनाने में लगे देखे गये। यहीं पर जमीन हड़पने वालों के लिये सेना के भीतर कॉन्टैक्ट खासा अहम हो जाता है। डीएचए व्यवसाय की वज़ह से ही एक कोर कमांडर के पास एक अरब रुपये से ज्यादा की जमीन है। एक तीन सितारा रैंक का अधिकारी जो कि कोर में नहीं आ सकता उसके पास लगभग 700 मिलियन पाकिस्तानी रूपये है।
ये आवास योजना एक रैकेट है क्योंकि इसके विकास में सेना की ताकत अहम है। मिसाल के लिये डीएचए योजना की वजह से बहावलपुर (Bahawalpur) में राजस्व अधिकारी निजी जमीन के लिये दस्तावेज जारी नहीं करते हैं, जो कि लोगों को डीएचए अधिकारियों के साथ बातचीत करने और उनकी भूमि का आदान-प्रदान करने के लिये मजबूर करता है। इसके तहत प्रति एकड़ दो भूखंड दिया जाना तय किया गया। निचले रैंक के अधिकारी भी शीर्ष प्रबंधन के हाथों पीड़ित होते हैं। ब्रिगेडियर की अध्यक्षता वाली सीमा प्रशासन समिति जूनियर अधिकारियों को उनके पैसे के लिये दौड़ा सकती है और उनसे जबरन वसूली कर सकती है। इसके अलावा ये भी रहस्य बना हुआ है कि डीएचए किस हद तक सेना के अधिकारियों को समर्पित है और नागरिकों को कौन सी जमीन बेची जा सकती है। कोर कमांडर और सेना प्रमुख अपने रसूख का इस्तेमाल कर ज़्यादातर अपना ‘कानूनी’ पैसा बनाते हैं।
लेफ्टिनेंट जनरल असीम मुनीर पुख़्ता तौर पर इन जनरलों की संपत्ति पर सवाल उठाने या यहां तक कि इस बंटवारा प्रणाली को चुनौती देने की संभावना नहीं रखते हैं। सैन्य अधिकारियों को उनकी रैंक के आधार पर संसाधन देने की प्रमुख की क्षमता अब मुनीर के पास होगी। असल में बुधवार को रक्षा और शहीद दिवस समारोह में सेना प्रमुख के तौर पर अपने आखिरी भाषण में जनरल बाजवा ने अपनी सैन्य बिरादरी को आश्वस्त किया, जिसमें न सिर्फ सेवा करने वाले अधिकारियों बल्कि उनके परिवार भी शामिल थे, उन्होनें ये वादा किया कि पाकिस्तानी सेना उनके कल्याण को लेकर प्रतिबद्ध बनी रहेगी।
लेफ्टिनेंट जनरल असीम मुनीर अगर बाजवा-खान की लड़ाई के दौरान टूटते दिखायी देने वाले संस्थान को एक साथ लाने का कोई मौका खड़ा करना चाहते हैं तो उन्हें निश्चित रूप से खुद को रोकना होगा। उन्हें फैज हमीद और आसिफ गफूर (Faiz Hameed and Asif Ghafoor) जैसे जनरलों पर अच्छी नजर रखनी होगी, जो कि कोर कमांडर के तौर पर टेबल पर बैठे रहेंगे। मुनीर को उन्हें जनरल हैडक्वार्टर में वापस बुलाने की जरूरत होगी जहाँ उन्हें कम परेशानी हो सकती है। दूसरी बात ये होगी कि इंतजार करना और देखना होगा क्योंकि राजनेता गलतियां करते हैं। जिसके बाद ये कहा जाता है कि ‘ये पाकिस्तानी सेना है जो कि पाकिस्तान को नियंत्रित करती है’।
अपने आखिरी भाषण में बाजवा ने ये बताने करने की कोशिश करते दिखे कि सैन्य बिरादरी तक पहुंच बनायी कि ये इमरान खान थे, जिन्होंने उनकी सेवा को दागदार बनाने की कोशिश की और इसलिये पीटीआई नेता को खारिज कर दिया जाना चाहिये। जहां तक बाजवा और सेना के रिश्ते है, उन्होंने वादा किया कि वो दोनों उच्च राजनीतिक भूमिका निभाते रहेंगे। फिर भी वो चाहते थे कि उनके सुनने ये सोचें कि सेना ने राजनीति से हटने का फैसला कर लिया है।