पाकिस्तान (Pakistan) बेहद अहम राजनीतिक दौर से गुजर रहा है, जहां मौजूदा हालात न सिर्फ दुनिया के लिये बल्कि भारत के लिये भी चिंताजनक हैं। जब से इमरान खान की अगुवाई वाली पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ (PTI- Pakistan Tehreek-e-Insaf) सरकार गिरायी गयी और पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (PDM- Pakistan Democratic Movement) बहुदलीय गठबंधन ने सत्ता पर कब्जा कर लिया, तब से पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता कई गुना बढ़ गयी है।
एक ऐसे देश की कल्पना करें जो परमाणु सक्षम हो, परोक्ष रूप से सैन्य और इस्लामी कट्टरपंथियों की ओर से शासित हो और जहां आतंकवाद राज्य नीति है, वहां राजनीतिक अस्थिरता अपने चरम पर पहुंच जाती है। ये न सिर्फ पाकिस्तान या भारत के लिये बल्कि शेष विश्व के लिये भी खतरनाक स्थिति है। सात दशकों से ज्यादा समय से करीबी पड़ोसी और कट्टर प्रतिद्वंद्वी होने के नाते, हमारे लिये पाकिस्तान में मौजूदा सियासी बदलावों का अच्छी तरह से विश्लेषण करना उचित है। भारत को पता होना चाहिये कि पाकिस्तान में अगले कुछ महीनों में चुनाव होने पर सत्ता की कुर्सी पर किसके होने की संभावना है, और हमें उन वज़हों को समझना चाहिये जो पाकिस्तान के राजनीतिक भविष्य पर सीधा असर डालने जा रहे हैं।
पाकिस्तान लगभग किसी भी तरह का कोई विदेशी भंडार नहीं होने की वजह अपने वजूद के लिये खासा संघर्ष कर रहा है, अपनी सकल घरेलू उत्पाद से ज्यादा कर्ज, बाढ़ की स्थिति के कारण प्राकृतिक आपदाओं ने हालातों को और भी बदतर बना दिया है। आज आम आदमी को बुनियादी सुविधाओं और खाने की क्या जरूरत होगी और अगर मौजूदा शाहबाज शरीफ (Shahbaz Sharif) सरकार इसे मुहैया कराने में कामयाब होती है तो उसके लिये फिर से सत्ता पर कब्जा करना मुश्किल नहीं होगा। अन्यथा पड़ोसी मुल्क में त्रिशंकु राष्ट्रीय सभा की संभावना है। इसके अलावा चूंकि पाकिस्तान सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF- International Monetary Fund) की 1.1 बिलियन डॉलर की किश्त हासिल करने की मांगों पर सहमति ज़ाहिर की है, जो कि आम आदमी पर ज्यादा आर्थिक दबाव पैदा करेगा, चीजें और भी खराब हो सकती हैं। शरीफ सरकार के पास आने वाले महीनों में पाकिस्तान को मदद पहुंचने के लिये या तो आईएमएफ के पैसे की इंतजार करने या जिनेवा बाढ़ राहत कोष में गिरवी रखी गयी कुछ वित्तीय सहायता की उम्मीद करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इसलिए शाहबाज शरीफ चुनाव में देरी करना चाहते हैं ताकि उन्हें अपने मतदाताओं का दिल और दिमाग जीतने के लिये पर्याप्त समय मिले सके।
खास बात ये है कि आजादी के लगभग 75 सालों में पाकिस्तानी सेना (Pakistan Army) ने मुल्क पर सीधे पांच दशकों तक शासन किया, जबकि बाकी समय में वो किंग मेकर की भूमिका में थे। साल 2018 के चुनावों के दौरान इमरान खान नियाज़ी के पक्ष में बड़े पैमाने पर मतदान में धांधली की देशव्यापी रिपोर्टें थीं और उन्हें एक चयनित प्रधान मंत्री के रूप में करार दिया गया था। हालांकि सत्ता से बेदखल होने के बाद से इमरान पाकिस्तानी सेना के खिलाफ काफी मुखर रहे हैं, और ये निश्चित है कि इस बार वो सेना की पसंद नहीं होंगे। पाकिस्तान का राजनीतिक भविष्य उस पार्टी पर निर्भर करेगा जो कि रावलपिंडी (Rawalpindi) में बैठे सैन्य सिपहसालारों के करीब होगा, वहीं समझौता करने में सक्षम है। पाकिस्तानी सेना कभी भी मुल्क की सियासी तस्वीर में तटस्थ नहीं रह सकती क्योंकि ये पाकिस्तान में सबसे बड़ा व्यापारिक समूह है जो कि फौजी फाउंडेशन, शाहीन फाउंडेशन, डिफेंस हाउसिंग अथॉरिटीज, बहरिया फाउंडेशन, अस्करी बैंक लिमिटेड जैसी 50 से ज्यादा संस्थाओं को चला रहा है। रावलपिंडी में बैठे जनरलों को अपने व्यावसायिक हितों के लिये इस्लामाबाद में अपनी पसंद की सरकार चुनना मजबूरी है।
दूसरी ओर पंजाबियों ने पाकिस्तान बनने के समय से ही उस पर शासन किया है और पंजाब प्रांत का फैक्टर किसी भी चुनाव में अहम भूमिका निभायेगा। नेशनल असेंबली (बहुमत साबित करने के लिये जरूरी) की आधी से ज्यादा सीटें पाकिस्तानी पंजाब से आती हैं। ऐतिहासिक रूप से अगर कोई पार्टी पंजाब में जीतती है तो इस्लामाबाद में भी उसकी ही सरकार बनती है। यही वजह है कि ये न सिर्फ सभी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र है, बल्कि पिछली सत्ताधारी सरकारों का भी पक्षधर है। मौजूदा हालातों में पंजाब पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) का गढ़ नहीं रहा है और मियां शाहबाज शरीफ के लिये उस प्रांत पर अपना नियंत्रण हासिल करना खासा मुश्किल होगा, जहां वो सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे थे। जनता का रवैया, समग्र विकास और सबसे अहम इस्लामिक कट्टरपंथियों जैसे तहरीक ए लब्बैक पाकिस्तान (TLP- Tehreek-e-Labbaik Pakistan) का नज़रियां पंजाब में अहम भूमिका निभायेगा।
हालांकि पाकिस्तान में पश्तूनों और बलूचों (Pashtuns and Balochs) की काफी आबादी कम है, लेकिन उनका वोट भी अहम होगा। पाकिस्तानी सेना की ओर से इन समुदायों के खिलाफ बड़े पैमाने पर दमन की रणनीति की रौशनी में बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनवा में गंभीर आंतरिक सुरक्षा के हालत पैदा हो गये है। इन दो प्रांतों में 75 नेशनल असेंबली सीटों के साथ, आगामी चुनावों में उनकी भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता है। बलूच विद्रोही और तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान (TTP- Tehrik-e-Taliban Pakistan) पाकिस्तानी सुरक्षा बलों पर रोजाना हमले कर रहे हैं, ये एक बड़ी चुनौती भी है और आने वाले चुनावों में मतदाताओं के रवैये को तय करने में ये बड़े पैमाने पर योगदान देगा।
अपने पूर्ववर्ती बाजवा के ठीक उलट मौजूद सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर (Army Chief General Asim Munir) खुद को अराजनैतिक होने के साथ-साथ राजनीतिक नेतृत्व के साथ समान पृष्ठ पर रहने के लिये खुद को कठिन हालातों में पा रहे हैं। वो महत्वाकांक्षी है, वो कट्टर है और पाकिस्तान की आम जनता उन्हें खासा पसंद करती है। चूंकि दोनों नेता – शरीफ और इमरान खान भ्रष्टाचार से जुड़े आरोपों और पाकिस्तान में बिगड़ती आर्थिक स्थिति की जिम्मेदारी में लगे हुए हैं, इसलिये संभावना है कि पाकिस्तानी सेना देश के शासन को संभाल सकती है। पाकिस्तान में ये कोई नया चलन नहीं है और अगर ऐसा होता है तो उसे आम आदमी का भी समर्थन मिलेगा। हालाँकि ये न सिर्फ बाकी दुनिया से प्रतिबंधों को बुलावा देगा बल्कि दक्षिण एशियाई इलाके में भी नया खतरा पैदा करेगा।
इसलिए अन्य मुल्कों के ठीक उलट पाकिस्तान में राजा कौन होगा ये एक मुश्किल सवाल है और ये कई वज़हों पर निर्भर करेगा। जैसा कि इस साल चुनाव होने वाले हैं और हर कोई मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रहा है, स्थिति कैसे सामने आयेगी ये वक्त की बात है। मौजूदा हालातों में आम लोगों के सामने चुनौतियां अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और अगर पाकिस्तान की सेना तटस्थ रहती है तो नतीज़े कुछ अलग ही हो सकते है।