न्यूज डेस्क (शौर्य यादव): चीन (China) के भीतर तिब्बतियों (Tibetans) के मानवाधिकार के हालतों का मुद्दा साल 1951 में चीनी कब्जे के बाद से अब तक विवादास्पद मामला रहा है, जिसे चीन की ओर से तिब्बत की आज़ादी के तौर पर पेश किया जाता है। कई ऐतिहासिक नज़रिये और सोच इस मुद्दे को काफी ज्यादा पेचीदा बनाते हैं, क्योंकि इस बात पर बहस होती आयी है कि तिब्बत ऐतिहासिक रूप से संप्रभु था या नहीं। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बावजूद साल 1951 में तिब्बत के साथ सत्रह सूत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर करने की चीन की तत्कालीन जरूरतों के बारे में सवाल उठते हैं, जिसने स्वायत्तता की मंजूरी देते हुए तिब्बत को चीन के हिस्से के तौर पर मान्यता दी थी।
हालाँकि सत्रह-सूत्रीय इस समझौते ने तिब्बत को स्वायत्तता प्रदान दी, लेकिन चीन की बाद की कार्रवाइयों ने इस स्वायत्तता को लेकर खुलकर इसकी नाफरमानी की, जिसके चलते तिब्बती असंतोष और साल 1959 का विद्रोह हुआ। दलाई लामा (Dalai Lama) के निर्वासन के बाद उन्होंने समझौते को नामंजूर कर दिया, उन्होनें दावा किया कि ये ज़बरन थोपा गया था। तिब्बतियों को लेकर चीन के रवैये का पता लगता है, जिसमें साफ दिखायी देता है कि किसी बीजिंग (Beijing) में बैठे हुक्मरान अल्पसंख्यक आबादी के साथ खुलकर बदसलूकी करते आये है।
कई पहलों के जरिये शांति बहाल करने की तिब्बत की कोशिश पर चीन की ओर से बहुत कम ध्यान दिया गया, जो कि तिब्बतियों को मुख्यधारा की चीनी संस्कृति में एकीकृत करने की मांग कर रहा था। तिब्बती अशांति साल 2008 में हुए विरोध प्रदर्शनों के दौरान चरम पर पहुंच गयी, जिसके चलते दमन और कड़े प्रतिबंध लगाए गये। शी जिनपिंग के तहत चीन का नज़रिया काफी आक्रामक हो गया, धर्मों के चीनीकरण जैसी नीतियों ने तिब्बती बौद्ध धर्म (Buddhism) पर भी काफी असर डाला।
पश्चिमी मुल्कों के कई एजेंसियों के हवाले से सामने आयी कई रिपोर्टें मानवाधिकारों के उल्लंघन की ओर सीधा इशारा करती हैं, जिनमें धार्मिक स्थलों पर कम्युनिस्ट नियंत्रण, राजनीतिक विचारधारा और बौद्ध भिक्षुओं और भिक्षुणियों को हिरासत में लेना शामिल है। चीन के लगभग सभी प्रांतों में तिब्बतियों को रोजगार के लिये भी दलाई लामा को त्यागने के लिए मजबूर किया जाता है, और साथ ही मठों को कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति निष्ठा दिखाने के लिये मजबूर किया जाता है। इंटरनेट ब्लैकआउट और सेंसरशिप के साथ संचार पर भारी निगरानी रखी जाती है।
चीन के नये साइबर कानून और संचार प्रतिबंधों ने मौजूदा हालातों को और भी खराब कर दिया है, जिससे तिब्बती निगरानी को लेकर असुरक्षित हो गये हैं। द्विभाषी शिक्षा नीतियों का मकसद स्थानीय भाषाओं पर मंदारिन (Mandarin) को प्राथमिकता देकर तिब्बती संस्कृति को आत्मसात करना है, इस कवायद से सांस्कृतिक संरक्षण खास प्रभावित होता है क्योंकि तिब्बती बच्चों को सैन्य शैली के प्रशिक्षणों का सामना करने के लिये राज्य संचालित बोर्डिंग स्कूलों में रखा जाता है। पार्टी का सिद्धांत कम्युनिस्ट पार्टी को लेकर अंधानुसरण है।
अंतर्राष्ट्रीय चिंता साफ है, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र (United Nations) की रिपोर्टें तिब्बती बच्चों को हान संस्कृति में जबरन सांस्कृतिक रूप से शामिल करने पर रौशनी डालती हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका (United States of America) की ओर से तिब्बती बच्चों के इलाज के लिये चीनी अधिकारियों पर वीजा प्रतिबंध लगाना चीन के मानवाधिकार रिकॉर्ड के लिये वैश्विक जवाबदेही को रेखांकित करता है। ये कदम दिखाता है कि तिब्बती मुद्दा अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रासंगिक और अहम बना हुआ है।