लॉकडाउन के दौरान पीएम मोदी 54 दिनों में पांचवी बार आव़ाम से मुखातिब हुए। तकरीबन आधे घंटे के लाइव प्रसारण के दौरान उन्होनें दो अहम बातें कहीं। पहली लॉकडाउन से जुड़ी नयी गाइडलाइन का लागू किया जाना और दूसरा MSME सहित सभी सैक्टरों को तात्कालिक राहत देने के लिए 20 लाख करोड़ रूपये के बड़े आर्थिक पैकेज का ऐलान। मोदी सरकार का ये फैसला प्रशंसनीय और स्वागत योग्य है। अगर राहत पैकेज कारगर ढंग से लागू हो पाया तो, ये जरूर कोरोना से उपजी कोढ़ पर मलहम का काम करेगा। लेकिन लुटियंस दिल्ली के एसी कमरों में बैठे सत्तानायकों को लेकर कुछ स्थापित मान्यतायें है। जिन्हें नकारना सार्वभौमिक नियमों (Universal rules) को नकारने के बराबर होगा। जैसे ही पीएम मोदी ने राहत पैकेज का जिक्र किया तो तुरन्त ही चाणक्य द्वारा रचित ये श्लोक मेरे मन में घूमने लगे।
मत्स्या यथान्त:सलिले चरन्तो ज्ञातुं न शक्या: सलिलं पिबन्त ।
युक्तास्तथा कार्यविधौ नियुक्ता ज्ञातुं न शक्या धनमाददाना ।।
इसकी तर्जुमा कुछ यूं है। जिस तरह पानी में तैरती मछली को देखकर अन्दाजा लगाना मुश्किल है कि, वो तैरते हुए कब पानी पी लेती है। ठीक उसी तर्ज पर सरकारी महकमें में काम कर रहे मुलाज़िमों को देखकर ये हिसाब लगाना मुश्किल हो जाता है कि, कब उसने पैसा हड़प लिया। आजादी के बाद देश के 72 सालों के ज्ञात इतिहास में पूर्ववर्ती सरकारों ने कई अवसरों पर राहत पैकेज की घोषणायें की। लेकिन पहले के अनुभव सकारात्मक छवि बनाने में नाकाम रहे है। लेकिन क्या है कि जब लाशें गिरती है तो, दावतें गिद्ध उड़ाते है। ऐसे में मोदी सरकार को दोहरे मोर्चे पर काम करते हुए प्रशासनिक गिद्धों से बचना होगा। आर्थिक सहायता बांटने के साथ ये भी सुनिश्चित करना होगा कि, पैसे जरूरतमंदों तक पहुँचे। घोषित पैकेज की रकम बहुत बड़ी है। ये तकरीबन देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद का 10 फीसदी है। भले ही सरकार DBT और Online तरीके ईजाद कर ले।
जहाँ मामला पब्लिक डीलिंग (Public dealing) से जुड़ा हो। वहाँ घोटाले और भष्ट्राचार की बू उठना ब्रह्मसत्य है। हालांकि ये देखना बाकी है, किसानों और मजदूरों को कितनी सहायता राशि मिलती है। कहीं इन लोगों के लिए ऐसे नियम-कायदे ना लाद दिये जाये कि, बिवाईयां और गहरा जाये। और आखिर में जाकर ऊंट के मुँह में जीरा वाली कहावत साबित ना हो। किसान और मजदूरों के लिए नियम बेहद सरल रखने होगें। मिसाल के तौर दिल्ली सरकार ने मजदूरों में पाँच हज़ार रूपये की सहायता राशि बांटने के लिए उन्हीं श्रमिकों का पात्र माना जो पंजीकृत है। जबकि ज़मीनी हकीकत ये है कि ज़्यादातर प्रवासी मजदूर असंगठित क्षेत्रों (Unorganized sectors) में काम करते है। ऐसे में वे आधिकरिक तौर पंजीकृत नहीं हो पाते है। जानकारी की कमी और सरकारी पचड़ों में पड़ने की बजाय दिहाड़ी पर जाने को प्राथमिकता देते है। अब केजरीवाल सरकार गिने-चुने लोगों में मदद की रकम बांटकर अपनी पीठ थपथपायेगी। लेकिन बड़ी तादाद में उन प्रवासी मजूदरों का क्या जो इस अदनी सी मदद से महरूम रह गये। क्या केन्द्र मदद करने का यहीं मॉडल देशभर में लागू करेगी ? केन्द्र के लिए गैर भाजपायी राज्यों की तुष्ट रखने की बड़ी चुनौती सुरसा की तरह मुँह बायें खड़ी है। पीएम मोदी की राज्यों के मुख्यमंत्रियों से हुई वीडियों कॉन्फ्रेसिंग बैठक के दौरान ममता बनर्जी ने केन्द्र सरकार पर सौतेला व्यवहार बरतने का आरोप लगाया। अगर राहत पैकेज में आबंटन को लेकर मुखालफत की ऐसी ही आव़ाजें बुलन्द होती रही तो संघीय ढांचे में खींचतान देखने को मिलेगी।
देखना ये भी दिलचस्प रहेगा कि, मिडिल क्लास (खासतौर से गैर सरकारी क्षेत्रों में काम करने वाले) को इस राहत पैकेज का क्या फायदा मिलता है। समाज में आम धारणा है कि, बड़े पूंजीपति, कारोबारी और व्यापारी संचित जमा पूंजी से गुजर बसर कर लेते है। कर्ज ज़्यादा बढ़ा तो देश छोड़कर भाग जाते हैं। दूसरी ओर हाशिये पर जी रहे लोग गरीबी रेखा से नीचे मिलने वाले सरकारी लाभों से ज़िन्दगी काट लेते हैं। ऐसे में कमर मिडिल क्लास (Middle class) की ही टूटती है। मीडिल क्लास खुद को सामान्य दिनों में तरह-तरह के करों के तले दबा रहता है। इस वर्ग को लगता है कि हाई क्लास और लोअर क्लास दोनों का बोझ इसे ही सहना है। वायरस इंफेक्शन (Virus infection) की मार से जूझ रहे देश के लिए भले ही केन्द्र सरकार ने 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा कर दी है। लेकिन लोगों को इसका फायदा तब ही मिल पायेगा। जब इसके वितरण में पारदर्शिता हो। जरूरतमंद तक सीधे और सरल तरीके से पहुँचे।
-राम अजोर
आउटपुट प्रमुख