न्यूज़ डेस्क (शौर्य यादव): सोशल डिस्टेसिंग और कोरोना गाइडलाइंस (Social Distancing and Corona Guidelines) के चलते पुरी में इस साल रथयात्रा को लेकर काफी पशोपेश था। माननीय सर्वोच्च न्यायालय (Honorable Supreme Court) ने इंफेक्शन के हालातों और लोगों के स्वास्थ्य का आकलन करते हुए रथयात्रा के कार्यक्रम पर बीते 18 जून को रोक लगा दी थी। प्राचीन परम्परा खंड़ित ना हो, इसके लिए 19 वर्षीय मुस्लिम छात्र की अगुवाई में 21 लोगों ने मामले पर पुर्नविचार के लिए देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था (Supreme judicial institution) के सामने गुहार लगायी। मुस्लिम छात्र अर्थशास्त्र से स्नातक अन्तिम वर्ष की पढ़ाई कर रहा है। छात्र के इस रवैये से सभी भक्त भाव-विभोर है। जिसकी वज़ह से कई लोग मुस्लिम युवक आफताब हुसैन (Aftab Hussain) को भक्त सालबेग (Devotee Salbeg) का पुर्नजन्म बता रहे है।
मुस्लिम युवक का पूरा परिवार भगवान जगन्नाथ (Lord Jagannath) का अनन्य भक्त है। आफताब के दादा मुल्ताब खान ने साल 1960 के दौरान त्रिनाथ मंदिर (Trinath Temple) का निर्माण करवाया था। साथ ही मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम उन्हीं की अगुवाई में हुआ था। आफताब हुसैन की भगवान जगन्नाथ के चरणों में अखंड आस्था है। मुस्लिम होने के चलते, उन्हें कभी पुरी में भगवान जगन्नाथ के दर्शनों का सौभाग्य हासिल नहीं हो पाया है। जिसका आफताब हुसैन को भारी मलाल है। आफताब के मुताबिक- पूरी सृष्टि भगवान जगन्नाथ की आनंदमयी ऊर्जा (Blissful energy) से संचालित होती है। सभी लोग उनकी करूणामय शक्ति से रचित है चाहे ब्राह्मण (Brahmin) हो या कोई और
फिलहाल पुरी के कई लोग आफताब हुसैन को भक्त सालबेग का पुर्नजन्म बता रहे है। भक्त सालबेग की कहानी 17 शताब्दी से जुड़ी हुई है। सालबेग मुगलिया सल्तनत (Mughal Sultanate) में सिपाही के ओहदे पर थे। उनकी माँ हिन्दू ब्राह्मण थी और पिता मुस्लिम। माँ भगवान जगन्नाथ की आराधिका थी। मुस्लिम से शादी होने के बावजूद भी हिन्दू रीति-रिव़ाजों से महाप्रभु के चरणों में अपनी प्रीति अर्पित करती थी। सालबेग के पिता को इससे कोई आपत्ति नहीं थी। बड़े होकर सालबेग भी मुगलिया फौज में भर्ती हो गये। युद्ध लड़ते हुए वो एक बार बुरी तरह जख़्मी हो गये। लंबे इलाज़ के बाद भी उन्हें आराम मिलता नहीं दिख रहा था। सालबेग की माँ ने उन्हें भगवान जगन्नाथ की शरण में जाने की सलाह दी। माँ की आज्ञा पाकर सालबेग ने अपनी पीड़ा भगवान के चरण कमलों में अर्पित कर दी। सच्ची निष्ठा से प्रसन्न होकर भगवान जगन्नाथ ने सालबेग को मायानिद्रा के दौरान दर्शन दिये। अगले दिन जब सालबेग सोकर कर उठे तो उनकी सारी पीड़ा, दर्द और ज़ख्म खत्म हो चुके थे।
इस बाद तो सालबेग भगवान की आराधना में ही रम गये। कई बार उन्होनें भगवान के दर्शन करने की कोशिश की, लेकिन मुस्लिम होने के चलते पुरी के मुख्य याजकों (Chief priests) ने उन्हें हर बार रोका। जिसके चलते वो अक्सर मंदिर प्रांगण (Temple courtyard) के बाहर बैठे रहते। आखिर में जब उनके प्राण-पखेरू उड़ने लगे तो, उन्होनें कहा- अगर मेरी भक्ति निश्छल, पवित्र और सात्विक है तो जगन्नाथ स्वयं मुझे दर्शन देने आयेगें। सालबेग के मृत्यु के बाद उन्हें ग्रांड रोड़ (Grant Road) के करीब सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया गया। ये इलाका जगन्नाथ मंदिर और गुंडिचा मंदिर (Jagannath Temple and Gundicha Temple) के बीच में पड़ता है। मुस्लिम भक्त की मृत्यु के बाद जब जगन्नाथ रथ यात्रा निकली तो रथ के पहिये सालबेग की मज़ार के पास आकर थम गये। भगवान खुद भक्त के पास आकर रूक गये। लोगों ने काफी ज़ोर लगाया फिर भी रथ के पहिये नहीं हिले। इस बीच किसी ज्ञानी ने तत्कालीन पुरी महाराज (Erstwhile Puri Maharaj) को भगवान के साथ-साथ भक्त सालबेग का भी जयकारा लगवाने की सलाह दी। जैसे ही भक्त और भगवान का जयघोष हुआ रथ के पहिये चल पड़े। आज भी ये परम्परा जस की तस कायम है, भगवान के रथ को सालबेग की मज़ार के पास रोका जाता है।
मौजूदा हालातों में लोग सालबेग और आफताब हुसैन की तुलना कर रहे है। दोनों ही मुस्लिम भगवान के भक्त है लेकिन दर्शन के सौभाग्य से कोसों दूर है। एक भक्त ने जगन्नाथ को अपने पास रूकने के लिए विवश कर दिया, तो दूसरे ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाकर कोरोना महामारी (Corona epidemic) के नाज़ुक हालातों में भी रथयात्रा को मुमकिन करवाया।