भारत अपनी विविधता के लिए जाना जाता है। ये बात हमेशा से ही सकारात्मक रही है, यह एकता में विविधता या विविधता में एकता और दूसरे विकास से एजेंडों में समरूपता रही है। लेकिन आजादी के बाद जब देश लोकतन्त्र की शक्ल अख़्तियार कर रहा था और विकास सूचकांक ने गति पकड़नी शुरू की तो भ्रष्टचार भी साथ-साथ बढ़ने लगा। वक्त बीतने के साथ हालात बद से बदतर होते चले गये।
लोकतंत्र के स्तंभों में नौकरशाही सबसे अहम रही है, क्योंकि इसका सीधा नाता जनता के कल्याण से जुड़ा है और शायद इसलिए ही नौकरशाहों को लोकसेवक कहा जाता है। अगर हम इस पेशे को गौर से देखे तो, ये सामाजिक सेवा से जुड़ा है। व्यवस्था में सुधार कार्यों को बढ़ाना और मानव विकास करते हुए राष्ट्र का विकास करना इस पेशे की मूल आत्मा है।
निर्वाचित प्रतिनिधि जनता की सेवा करने के लिए लगभग नौकरशाही पर ही निर्भर करते हैं। धीरे-धीरे ये सिविल सेवायें व्यवस्थापिका के उच्च मूल्यों और प्रतिष्ठा से आगे निकलते हुए, समाज में गौरव हासिल करने के लिए पैसे कमाने और पद हासिल करने को होड़ में शामिल हो गयी। जिससे आमजनता के प्रति इनका सरोकार खत्म हो गया। इसीलिए यहाँ पर भष्ट्राचार को पनपने के लिए पर्याप्त अवसर मिले। विधायिका के चुने हुए प्रतिनिधियों ने कार्यपालिका के इन नुमाइन्दों को भष्ट्राचार को स्वाद चखा दिया। और यहीं शक्ति पैसा, पद से भरी अधिकारियों की वासनायें शुरू हुई। मौजमस्ती और घोटालों का ऐसा गठजोड़ बना की, सिविल सेवाओं ने अपने वास्ताविक मायने धूल में मिला दिये।
व्यवस्था में बैठे घोटालेबाज़ नौकरशाहों ने एक तरह से तख्तापलट किया और कार्यपालिका के निर्वाचित प्रतिनिधियों के कंधे पर बन्दूक रखकर चलाने लगे।
विकास की बात तो दूर इन लोगों का रूझान सिर्फ पैसा कमाने तक सीमित रह गया। जिन कामों के लिए इन्हें (लोकसेवक) लाया गया था उससे दूर ये लोग मौजमस्ती और शक्ति में वक़्त गुजारने लगे। कल्पना कीजिए कि 30 मीटर के एयरकंडीशन रूम में बैठे चार नौकरशाह एक राज्य के लिए नीतियां बनाते हैं, जबकि उन्हें इलाके आबादी का सही से इल़्म भी नहीं है और साथ ही उस इलाके को इन ब्यूरोक्रेट्स ने ट्रेनिंग सैशन से पहले कभी देखा ही नहीं था। आखिर में ये जो लोग नीतियां बनाते है वो दम तोड़ देती है। लेकिन हां हजारों करोड़ों की कमाई का धन लाभार्थियों के बजाय संगठित तरीके से भ्रष्ट हाथों तक जरूर पहुंच जाता है।
दूसरी ओर नौकरशाहों द्वारा चलाए जा रहे सिस्टम से केवल कुछ ही नागरिकों को उम्मीदों की रोशनी दिखाई देती है। भारत जैसे देश में जहाँ अभी भी कुल आबादी का 70% से अधिक ग्रामीण इलाकों में निवास करता है और 50% से अधिक आबादी गरीबी रेखा से नीचे है। गरीब जिसकी आय का कोई साधन नहीं या फिर वो 100 रूपये दिहाड़ी कमाता है अगर उसे कोई शिकायत दर्ज करवानी है तो, उसे खराब मौसम में भी कम से कम 20-30 किलोमीटर पैदल चलना होगा और संबंधित कार्यालय में संबंधित अधिकारी से मिलना होगा। तब जाकर उसकी शिकायत दर्ज होगी। लेकिन ज़्यादातर लोग ऐसा नहीं कर पाते है। जिनकी अर्जी जमा हो भी जाती है, वे आखिरकर कूड़ेदान में धूल चाट रही होती है। इसी गरीबों की उम्मीदें दम तोड़ देती है। लेकिन इसके उल्ट अगर कोई समृद्ध व्यक्ति रिश्वत के साथ अपने अर्जी देते उसका काम तुरन्त ही पूरा हो जाता है। सत्ता और पैसे के नशे में डूबे ये अधिकारी यह क्यों भूल जाते हैं कि वे लोकसेवक हैं और उनकी तनख्वाह आम जनता की गाढ़ी कमाई से मिलने वाले टैक्स के पैसों से आती है।
हाल ही में कुछ सालों में सरकार ने एक योजना के शुरू की, जिसे तहत अगर अधिकारी नकारा पाये जाते है या बुरा प्रदर्शन करे रहे है, तो उनकी सेवाओं को बिना अतिरिक्त लाभ दिये समाप्त जाऐगा। ये एक बेहतरीन शुरूआत है। इस नियन्त्रण और संतुलन की कवायद के बीच सभी नौकरशाहों को शामिल करना चाहिए। इससे सभी का मूल्याकंन हो पायेगा। पाँच सालों तक नौकरशाही सेवाओं के अनुभव रखने वाले अधिकारी के सेवाकाल को नियमित समय तक जारी रखना चाहिए उसके बाद ही कार्यक्षमताओं और कौशल के आधार पर उसके सेवाकाल में विस्तार देना चाहिए। अगर वो किसी भी तरह की कोई कमी बरतते है तो उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए। इसके अलावा इन नौकरशाहों के रिटायरमेंट के समय इनके सेवाकाल की भी जांच की जानी कि, वो नौकरी के समय कितनी उत्पादकता रखता था। अगर ये जांच सकारात्मक निकलती है तो तभी उस अधिकारी रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले फायदे देने चाहिए। नहीं तो इन फायदों को वापस ले लेना चाहिए। हाल-फिलहाल में 70 फीसदी से ज़्यादा अधिकारी अपनी नौकरी के साथ न्याय नहीं कर पा रहे है। इन लोगों में प्रोडक्टीविटी का अभाव है।
सबसे अहम समाज और राष्ट्र के कल्याण के लिए जनता के सरोकार से सीधे जुड़े अधिकारी जो अच्छा प्रदर्शन करते है, उन्हें पुरस्कृत करना चाहिए। जो लोग अच्छा प्रदर्शन करते हैं और वो ड्यूटी फर्स्ट और नेशन फर्स्ट के तर्ज पर काम करते है। ये लोग बेहतर इनाम के हक़दार है। नागरिकों के हक़ की अनदेखी करने वाले अधिकारियों को तुरन्त व्यवस्था से बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए। ऐसे लोगों को असामाजिक तत्त्व करार दे देना चाहिए।
फिर भी हम नागरिकों के रूप में इस खतरे के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं, भ्रष्ट प्रथाओं को बढ़ावा देकर और दोषपूर्ण खेल को समाप्त करते हैं। हमें परिवर्तन और प्रदर्शन के लिए खड़ा होना चाहिए जो भी हो, संगीत के बाद हमारी पीढ़ियों और इसलिए राष्ट्र द्वारा बुरी तरह से सामना किया जाएगा। राष्ट्र के प्रति सर्वोत्तम क्षमता देने की एक मजबूत आवश्यकता है ताकि नकारात्मकता को मंथन किया जाए और सकारात्मकता में परिवर्तित किया जा सके और वास्तविक विकास प्रत्येक व्यक्ति और हर किसी के लिए प्रणाली में परजीवियों के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए, एक महान राष्ट्र और महान समाज की दिशा में परिवर्तन हो जो संभावित और मानव जाति का सम्मान करता है।
हम लोग देश में बढ़ रहे इन हालातों के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार है। भ्रष्टाचार की कवायदों को बढ़ावा देकर और एक दूसरे के सिर दोष मढ़कर। परिवर्तन और प्रदर्शन जो भी हो हमें आव़ाज बुलन्द करनी होगी। इन सबके बाद जो हालात उपजेगें उसे वास्ता हमारे देश और आने वाले नस्लों से होगा। आज जरूरत है राष्ट्र के प्रति अपना सर्वस्त न्यौछावर करने की। जिससे नकारात्मक पक्षों पर विमर्श शुरू होगा और उसे सकारात्मकता में बदला जा सकेगा। देश में विकास प्रत्येक व्यक्ति का हक़ है। व्यवस्था की प्रणाली में भष्ट्राचार के जोकों की कोई जगह नहीं है। इसलिए वो बदलाव लाने होगें जिससे महान राष्ट्र और महान समाज की दशायें स्थापित हो सके। ये हालात मानव जाति का सम्मान करने के लिए उपयुक्त होगें।