भष्ट्राचार और गरीबी: मानव विकास के बाधक

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– कैप्टन जी.एस. राठी
सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता

मानव विकास मुख्य उद्देश्य लैंगिकता, जातीयता, पंथ और धर्म को दरकिनार करते हुए, सभी नागरिकों का समान रूप से विकास करना है। अगर मानव विकास में लगातार असमानतायें कायम रहती है तो, बढ़ती या यूं कहे स्थिर और सतत् विकास की अवधारणायें पूर्ण नहीं हो पायेगी। और असमानताओं की खाईयां यूं ही चौड़ी होती रहेगी। व्यवस्था और नागरिकों से जुड़ी मानव विकास की अवधारणा पूर्वनिर्धारित है। देश में विकास को मापने का पैमाना सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) माना जाता है। ये पैमाना सिर्फ आर्थिक गतिविधियों पर केन्द्रित सूचकांक है साथ ही भारत में इसके पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। आंकड़ो में हेराफेरी और उसे तोड़ने मरोड़ने की कवायद आसानी से की जा सकती है। लोगों को भरमाने के लिए फर्जी विकास सूचकांक बनाकर पेश करना यहाँ की रवायत रही है।

मुल्क को बड़ी आबादी के तौर पर नियामत हासिल है। हम दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला मुल्क है। यहाँ पर सरकार का किरदार इस बड़ी आबादी की मांग का बेहतर बंदोबस्त करना है। इस काम के लिए दो जरिये अख़्तियार किये जाते है। आव़ाम को लेकर हुकूमत का फर्ज और हुकूमत को लेकर आव़ाम का फर्ज। बेहतर बंदोबस्ती के साथ संसाधनों का वितरण और नागरिकों के लिए इनका एक समान बंटवारा समान विकास की अवधारणा को हकीकत में बदलता है। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सरकार द्वारा नीतियां निर्धारित की जाती है। अगर हम आजादी हासिल करने के बाद से, इन विकासात्मक पक्षों को गहन विश्लेषण करते है तो हम पाते है कि ये समग्र रूप से एक आपदा है। सत्तर साल पहले की ओर मुड़कर देखा जाये तो एक नारा उछाला जाता था, रोटी-कपड़ा-मकान सभी को मयस्सर हो। आज साल 2020 में आकर हम इन्हीं तीन चीज़ों के लिए जूझ रहे है। इस मतलब है मानव विकास के मोर्चें पर हमें बुरी तरह मुँह की खानी पड़ी। इसके पीछे क्या वज़हें थी ?

इसका सीधा-सा ज़वाब है नीतियां और उसे लागू करने के तौर-तरीके। देश की नीतियां वे चुनिंदा लोग निर्धारित करते है, जिन्हें ज़मीनी हालातों की वास्तविक समझ नहीं है। कुलीन वर्ग द्वारा तैयार की गयी नीतियों को सरकार के पास भेज दिया जाता है। इसके साथ ही बिना लक्षित वर्ग (जनता में वास्तविक लाभार्थी जाने बिना) तय किये इसे जनता के बीच बतौर जाल की तरह फेंक दिया जाता ह ।

हाशिये पर जी रहे लोगों तक पहुँचने के लिए इन नीतियों में ना ही तो कोई दिशा-निर्देश होते है और ना ही जांच एवं संतुलन की संभावनाये। आखिरकर में ये नीतियां दम तोड़ देती है। और इस तरह भष्ट्राचार वजूद में आता है। क्योंकि नीतियों का ढ़ांचा बनाने में अच्छे खासे बजट का आबंटन किया जाता है। यहाँ पर अप्रत्याशित लाभ मिलता है व्यवस्था को आगे ले जाने दलालों और उनके चेले चपाटों को। असल में व्यवस्था के रहनुमा ही वंचित वर्ग के बजाये खुद ही लाभार्थी बन जाते है। नीतियां धराशायी हो जाती है। इससे असमानताओं की खाई और भी ज़्यादा चौड़ी होती है। ये भष्ट्रचार के पनपे के लिए खाद पानी का काम करता है। “आखिर ऐसा क्यों है, राष्ट्रीय तौर जो आंकड़े देश की गिरावट से जुड़े हो, उन्हें इकट्ठा करते हुए, हम पाते है कि सामाजिक-आर्थिक असमानतायें बिल्कुल सटीक है और साथ ही उनके लक्ष्य भी। लेकिन बात जब विकास की हो तब ये आंकडे और उनका लक्षित वर्ग दोनों ही फर्जी साबित होते है?” क्योंकि ये विमर्श आव़ाम और मुल्क की ओर झुकाव नहीं रखता है। बल्कि ये तो सत्ता और ओहदे की ओर ज़्यादा झुकाव रखता है।

नीति आयोग के ताजा आंकड़े साफतौर पर बताते है कि, मुल्क के 22 सूबे पहले से ज़्यादा गरीब हो गये है और साथ ही हर पांचवा हिन्दुस्तानी गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर कर रहा है। भारत के मानव विकास से जुड़ी 2019 की रिपोर्ट के हवाले से ये बात सामने आती है कि दुनिया के 28 फीसदी गरीब यहाँ बसर करते है। इस असमानता का नतीज़ा है कि वक़्त बीतने के साथ-साथ ये खाई इस कदर चौड़ी हो गयी है, गरीबी और भष्ट्राचार सातवें आसमान पर पहुँच गया है। हालात इतने बदतर है कि गरीबी और भष्ट्राचार की काली छाया एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँच रही है। जिससे कि ये दोनों वंशानुगत अभिशाप से लगने लगे है, इनको मिटाना लगभग नामुमकिन सा लगने लगा है। भ्रष्टाचार ना सिर्फ हमें राहों से भटका रहा है बल्कि विकास की राहों में रोड़े भी अटका रहा है। इसने हालातों का इतना तोड़-मरोड़ दिया है कि, देशभर में ये कवायद संस्थागत तरीके से अन्ज़ाम दी जा रही है।

सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक विषमताएँ गहरी होती जा रही है, क्योंकि भष्ट्राचार और राजनीतिक इच्छायें अब व्यवस्था के दलालों के इर्द-गिर्द चक्कर काटती है। अब ध्यान असमानताओं को कम करने पर लगाना होगा और समान विकास की अवधारणा के पथ पर काम करना होगा। जहाँ हमारा लक्ष्य समाज का वे नागरिक होने चाहिए, जो हाशिये पर जी रहे है। इन्हीं कवायदों के कारण देश गरीब और अविकसित रह गया है। इन्हें जल्द से जल्द देखे जाने और इन पर प्रभावी बदलाव लाने की जरूरत है। अब वो दिन ज़्यादा दूर नहीं जब हमें इस असभ्य समाज के जूते पहनने के लिए मजबूर किया जायेगा और हमारे माथे पर अविकसित होने का ठप्पा लगा दिया जायेगा। आखिर ऐसा क्यों है, राष्ट्रीय तौर जो आंकड़े देश की गिरावट से जुड़े हो, उन्हें इकट्ठा करते हुए, हम पाते है कि सामाजिक-आर्थिक असमानतायें बिल्कुल सटीक है और साथ ही उनके लक्ष्य भी। लेकिन मसला जब विकास का आता है तो आंकड़े और लक्ष्य दोनों ही फर्जी साबित होते है ? क्योंकि ये विर्मश ना ही नागरिकों की ओर झुकाव रखता है, और ना ही राष्ट्र की ओर। बल्कि यहाँ तो असली दौड़ ताकत और पद हासिल करने की ओर है।

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