न्यूज़ डेस्क (यर्थाथ गोस्वामी): Pitrapaksha के दौरान पितरों (दिवंगत पूर्वज) के लिए श्रद्धापूर्वक से किया गया तर्पण, पिण्ड और दान को ही श्राद्ध कहा जाता है। स्थापित सनातन मान्यता अनुसार भगवान सूर्य के कन्याराशि आगमन के साथ ही पितृलोक वासी पूर्वज अपने पुत्र-पौत्रों का कुशल क्षेम देखने और उनके साथ अल्प समय वास करने आते है। इसलिए श्राद्धों को कनागत भी कहा जाता है। इस दौरान सर्वपितृ अमावस्या जिसे महालय अमावस्या भी कहा जाता है, इसका काफी महत्त्तव होता है। जिन दिवंगत पूर्वजों के पितृलोक (Pitrilok) गमन की तिथि जातक को ज्ञात नहीं होती उनका श्राद्ध इसी दिन किया जाता हौ। जिससे कि पितृ संतुष्ट हो धनधान्य और कुल वृद्धि की आशीष दे वापस पितृलोक की ओर गमन करते है। आदि सनातन परम्पराओं के अनुसार तीन पीढि़यों तक श्राद्ध करने का विधान निर्धारित किया गया है।
यदि शास्त्रोक्त विधि द्वारा पितरों का तर्पण न किया जाये तो उन्हें मुक्ति नहीं मिलती और उनकी आत्मा मृत्युलोक में विचरण करती रहती है। ज्योतिषशास्त्र (Astrology) में पितृ दोष को काफी गंभीर माना गया है। जिसकी वज़ह से जातकों को असफलताओं, संतानदोष, धनहानि और चारित्रिक दोष आदि के प्रबल योग बनते है। इसलिए हिन्दू धर्म में पितृदोष से मुक्ति और पितरों की शांति को काफी अहम माना गया है।
इस बार श्राद्घ समाप्त होते ही अधिकमास लग जाएगा। इस दुर्लभ ज्योतिषीय संयोग (Rare astrological coincidence) के कारण नवरात्र और पितृ पक्ष में एक माह का अन्तर आ जायेगा। हर वर्ष पड़ने वाला चातुर्मास इस बार चार महीने का ना होकर पाँच महीने का होगा। पाँच माह वाले चातुर्मास का ये संयोग 165 साल बाद बन रहा है। इस दौरान गृह प्रवेश, नामकरण, मुंडन, कर्ण-विच्छेदन, विवाह जैसे मांगलिक कार्य नहीं हो पायेगें। भगवान विष्णु चातुर्मास के दौरान पाताल लोक में निद्रासन में रहते है। जिसकी वज़ह से मृत्युलोक में नकारात्मक और तामसिक शक्तियां प्रबल (Negative and vindictive powers prevail) रहती है। वैदिक ग्रंथों में जातकों को इस स्थिति से बचने के लिए एक ही स्थान पर रहकर ईश्वर की साधना करने का प्रावधान बताया गया है। इससे शरीर का सतोगुण स्थिर रहता है। 17 सितंबर को पितृ पक्ष की समाप्ति के साथ अगले दिन यानि कि 18 सितंबर से अधिकमाह शुरू हो जायेगा। जो कि 16 अक्टूबर को समाप्त होगा। इसके बाद 17 अक्टूबर आदिशक्ति पराम्बा के शरदीय नवरात्र प्रारम्भ होगें।
श्राद्ध कर्म विधि
श्राद्ध वाले दिन जातक को प्रात: जल्दी स्नानादि नित्य कर्म से शीघ्र निवृत हो सिलाई रहित वस्त्र धारण करने चाहिए। तंदोपरान्त खास सफाई का ध्यान रखते हुए पितरों का मनसपन्द भोजन तैयार करवाया जाना चाहिए। तैयार किये गये भोजन को तिल, चावल और जौ के साथ पिंड बनाकर उन्हें अर्पित करना चाहिए। ब्राह्मण या ब्राह्मण ना मिलने की दशा में भांजे की यथा शक्ति भोजन करवाकर दान-दक्षिणा के रूप में स्वरूप धन-वस्त्र दे। आखिर में कौओं को बुलाकर उन्हें भोजन करवाये। मृत्युलोक में कौओं को पितरों का जीवित स्वरूप माना जाता है। पितृ पक्ष में, गायों, कुत्तों, चींटियों, और बिल्लियों को यथासंभव भोजन कराना चाहिए। साथ ही श्राद्ध करने वाले जातक को ब्रह्मचर्य का सख्ती से पालन करना चाहिए।
श्राद्ध के दौरान इस मंत्र का प्रयोग करें
ये बान्धवा बान्धवा वा ये नजन्मनी बान्धवा
ते तृप्तिमखिला यन्तुं यश्र्छमतत्तो अलवक्ष्छति।
श्राद्ध कर्म और पितृपक्ष से जुड़ा पौराणिक आख्यान
कुरूक्षेत्र के मैदान में वीरगति का वरण करने के बाद कर्ण की आत्मा ने स्वर्गारोहण किया। कर्ण ने अपने पूरे जीवन भर जरूरतमंदों और याचकों को केवल स्वर्ण का दान दिया था। इस वज़ह से स्वर्ग में उनकी आत्मा को खाने में सोना और गहने दिए जाते थे। दुखी होकर जब कर्ण ने देवराज इन्द्र से इसका कारण पूछा तो इन्द्र ने बताया कि, कर्ण ने अपने पूर्वजों का पितृ तर्पण ना करवाकर मात्र स्वर्ण ही दान किया। ना ही उन्हें भोजना करवाया, ना ही उनकी यथा योग्य सेवा की। ऐसे में उन्हें स्वर्ग लोग में खाने के लिए सिर्फ स्वर्ण ही दिया जा रहा है। कर्ण ने ये बात सुनकर अपने पूर्वजों के प्रति अनभिज्ञता जाहिर की। जिसकी वज़ह से वो ये सब नहीं कर पाये। आखिर में इंद्र ने कर्ण को श्राद्ध कर्म करने और पितृदोष से मुक्ति हेतु मृत्युलोक में वापस जाने की अनुमति दी। जिसके बाद कर्ण ने 16 दिनों तक पितृपक्ष की सभी विधियों, कर्म-कांड और तर्पण प्रक्रिया को पूरा किया। जिसके बाद कर्ण की आत्मा को पितृदोष से मुक्ति मिली।