Congress Party: 7 नवंबर 1966 की सुबह आठ बजे से ही संसद के बाहर लोग जुटने शुरू हो गए थे। उस दिन कार्तिक मास, शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि थी, जिसे हम-आप गोपाष्ठमी नाम से जानते हैं। गौरक्षा महाभियान समिति के संचालक सनातनी करपात्री जी महाराज (Sanatani Karpatri Ji Maharaj) ने चांदनी चौक स्थित आर्य समाज मंदिर से अपना सत्याग्रह आरंभ किया।
करपात्री जी महाराज के नेतृत्व में जगन्नाथपुरी, ज्योतिष पीठ और द्वारका पीठ के शंकराचार्य, वल्लभ संप्रदाय के सातों पीठ के पीठाधिपति, रामानुज संप्रदाय, मध्व संप्रदाय, रामानंदाचार्य, आर्य समाज, नाथ संप्रदाय, जैन, बौद्ध व सिख समाज के प्रतिनिधि, निहंग सिख और हजारों की तादाद में मौजूद नागा साधुओं को पंडित लक्ष्मीनारायण जी ने चंदन तिलक लगाकर विदा कर रहे थे।
लालकिला मैदान से आरंभ होकर नई सड़क और चावड़ी बाजार से होते हुए पटेल चौक के पास से संसद भवन पहुंचने के लिये इस विशाल जुलूस ने पैदल चलना शुरू किया। रास्ते में अपने घरों से लोग फूलों की वर्षा कर रहे थे। हर गली फूलों का बिछौना बन गया था। ‘आचार्य सोहनलाल रामरंग के अनुसार, ”ये हिंदू समाज के लिये सबसे बड़ा ऐतिहासिक दिन था। इतने विवाद और अहं की लड़ाई होते हुए भी सभी शंकराचार्य और पीठाधिपतियों ने अपने छत्र, सिंहासन आदि का त्याग किया और पैदल चलते हुए संसद भवन के पास मंच पर समान कतार में बैठे। उसके बाद से आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ।
नई दिल्ली का पूरा इलाका लोगों की भीड़ से भरा था। संसद गेट से लेकर चांदनी चौक तक सिर ही सिर दिखायी दे रहे थे। कम से कम 10 लाख लोगों की भीड़ जुटी थी, जिसमें 10 से 20 हजार तो सिर्फ महिलायें ही शामिल थीं। जम्मू-कश्मीर से लेकर केरल तक के लोग गौ हत्या बंद कराने के लिये कानून बनाने की मांग को लेकर संसद के सामने जुटे थे। उस वक्त इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी और गुलजारी लाल नंदा गृहमंत्री।
गौ हत्या रोकने के लिये इंदिरा सरकार (Indira Government) केवल आश्वासन ही दे रही थी, ठोस कदम के नाम पर कोई भी कार्रवाई नहीं कर रही थी। सरकार के झूठे वादे से उकता कर संत समाज ने संसद के बाहर प्रदर्शन करने का निर्णय लिया था। 'रामरंग जी के मुताबिक, ''दोपहर एक बजे जुलूस संसद भवन पर पहुंच गया और संत समाज के संबोधन का सिलसिला शुरू हुआ। करीब तीन बजे का समय होगा, जब आर्य समाज के स्वामी रामेश्वरानंद भाषण देने के लिए खड़े हुए।
स्वामी रामेश्वरानंद ने कहा, 'ये सरकार बहरी है। ये गौ हत्या को रोकने के लिये कोई भी ठोस कदम नहीं उठायेगी। इसे झकझोरना होगा। मैं यहां उपस्थित सभी लोगों से आह्वान करता हूं कि सभी संसद के अंदर घुस जाओ और सारे सांसदों को खींच-खींच कर बाहर ले आओ, तभी गौ हत्या बंदी कानून (Cow Slaughter Ban Law) बन सकेगा।'' इतना सुनना था कि नौजवान संसद भवन की दीवार फांद-फांद कर अंदर घुसने लगे। लोगों ने संसद भवन को घेर लिया और दरवाजा तोड़ने के लिये आगे बढ़े। पुलिसकर्मी पहले से ही लाठी-बंदूक के साथ तैनात थे। पुलिस ने लाठी और आंसु गैस चलाना शुरू कर दिया। भीड़ और आक्रामक हो गयी।
इतने में अंदर से गोली चलाने का आदेश हुआ और पुलिस ने भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। संसद के सामने की पूरी सड़क खून से लाल हो गयी। लोग मर रहे थे, एक-दूसरे के शरीर पर गिर रहे थे और पुलिस की गोलीबारी जारी थी। नहीं भी तो कम से कम पांच हजार लोग उस गोलीबारी में मारे गये थे। बड़ी त्रासदी हो गयी थी और सरकार के लिये इसे दबाना जरूरी था।
एक तरफ संत समाज की लाशें गिरी जा रही थी। पुलिस अंधाधुंध साधुसंतों को अपने निशाने पर लिये जा रही थी। इस दृश्य से करपात्री महाराज बेहद व्यथित हो गये। साधुओं की लाशें उठाते उठाते उनकी आंखों से आंसू निकल गये, जिसके बाद उन्होनें कांग्रेस को श्राप दिया कि “मैं कांग्रेस पार्टी को श्राप देता हूँ कि एक दिन हिमालय में तपश्चर्या कर रहा एक साधु आधुनिक वेशभूषा में इसी संसद पर कब़्ज़ा करेगा और कांग्रेसी विचारधारा का नष्ट कर देगा... ये एक ब्राह्मण का श्राप है”
ट्रक बुलाकर मृत, घायल, जिंदा-सभी को उसमें ठूंसा जाने लगा। जिन घायलों के बचने की संभावना थी, उनकी भी ट्रक में लाशों के नीचे दबकर मौत हो गयी। हमें आखिरी समय तक पता ही नहीं चला कि सरकार ने उन लाशों को कहां ले जाकर फूंक डाला या जमीन में दबा डाला। पूरे शहर में कर्फ्यू लागू कर दिया गया और संतों को तिहाड़ जेल में ठूंस दिया गया।
केवल शंकराचार्य को छोड़ कर अन्य सभी संतों को तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। करपात्री जी महाराज ने जेल से ही सत्याग्रह शुरू कर दिया। जेल उनके ओजस्वी भाषणों से गूंजने लगा। उस समय जेल में करीब 50 हजार लोगों को ठूंसा गया था।
''रामरंग जी के अनुसार, ''शहर की टेलिफोन लाइन काट दी गयी। 8 नवंबर की रात मुझे भी घर से उठा कर तिहाड़ जेल पहुंचा दिया गया। नागा साधु छत के नीचे नहीं रहते, इसलिए उन्होंने तिहाड़ जेल के अदंर रहने की जगह आंगन में ही रहने की जिद की, लेकिन ठंड बहुत थी। नागा साधुओं ने जेल का गेट, फर्नीचर आदि को तोड़ कर जलाना शुरू किया।
उधर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गुलजारीलाल नंदा (Gulzarilal Nanda) पर इस पूरे गोलीकांड की जिम्मेदारी डालते हुए उनका इस्तीफा ले लिया। जबकि सच ये था कि गुलजारी लाल नंदा गौ हत्या कानून के पक्ष में थे और वो किसी भी सूरत में संतों पर गोली चलाने के पक्षधर नहीं थे लेकिन इंदिरा गांधी को तो बलि का बकरा चाहियो था! गुलजारी लाल नंदा को इसकी सजा मिली और उसके बाद कभी भी इंदिरा ने उन्हें अपने किसी मंत्रीमंडल में मंत्री नहीं बनाया।
तत्काल महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और चीन से हार के बाद देश के रक्षा मंत्री बने यशवंत राव बलवतंराव चौहान (Yashwant Rao Balvatrao Chauhan) को गृहमंत्री बना दिया गया। तिहाड़ जेल में नागा साधुओं के उत्पात की खबर सुनकर गृहमंत्री यशवंत राव बलवतंराव चौहान खुद जेल आए और उन्होंने नागा साधुओं को आश्वासन दिया कि उनके अलाव के लिये लकड़ी का इंतजाम किया जा रहा है। लकड़ी से भरे ट्रक जेल के अंदर पहुंचने और अलाव की व्यवस्था होने पर ही नागा साधु शांत हुए।
''रामरंग जी के मुताबिक, ''करीब एक महीने बाद लोगों को जेल से छोड़ने का सिलसिला शुरू हुआ। करपात्री जी महाराज को भी एक महीने बाद छोड़ा गया। जेल से निकल कर भी उनका सत्याग्रह जारी था।
पुरी के शंकराचार्य और प्रभुदत्त ब्रहमचारी जी का आमरण अनशन महीनों चला। बाद में इंदिरा सरकार ने इस आंदोलन को समाप्त करने के लिये धोखे का सहारा लिया। यशवंत राव बलवतंराव चौहान ने करपात्री जी महाराज से भेंट कर ये आश्वासन दिया कि अगले संसद सत्र में गौ हत्या बंदी कानून बनाने के लिये अध्यादेश लाया जायेगा और इसे कानून बना दिया जायेगा, लेकिन आज तक ये कानून का रूप नहीं ले सका।
''रामरंग जी कहते हैं, ''कांग्रेस शुरु से ही भारत के सनातन धर्मी संतों से नफरती रवैया प्रदर्शित करती रही है। 7 नवंबर 1966 को उसका चरम रूप देखने को मिला। बाद में सरकार ने इस पूरे घटनाक्रम को एक तरह से दबा दिया, जिसकी वजह से गौरक्षा के लिये किये गये उस बड़े आंदोलन और सरकार के खूनी कृत्य से आज की युवा पीढ़ी अनजान है।''