औरत का दिन !
इसमें कोई संदेह नहीं कि समानता के संघर्ष में स्त्रियों ने बहुत लंबा रास्ता तय किया है। वे अब मानसिक मजबूती, वैचारिक दृढता (Ideological consistency) के साथ आर्थिक स्वतंत्रता भी हासिल करने लगी हैं। उनके प्रति पुरुषों के दृष्टिकोण में बदलाव (Change in outlook) भी आया है, लेकिन यह बदलाव बाहरी ज्यादा है। सच तो यह है कि स्त्रियों की असमानता की जड़ें पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता से ज्यादा उनकी बेपनाह भावुकता में है। सदियों से पुरुष सत्ता उनकी इस भावुकता से खेलती रही है। झूठी तारीफें कर हजारों सालों तक दुनिया के तमाम धर्मों और संस्कृतियों ने योजनाबद्ध तरीके से उनकी मानसिक कंडीशनिंग (Mental conditioning) की हैं। उन्हें क्षमा, त्याग, करुणा, प्रेम, सहनशीलता और ममता की प्रतिमूर्ति बनाकर। पुरुषों के साथ उनकी बराबरी की बात कोई नहीं करता। या तो वे देवी हैं या मौज-मज़े की वस्तु। अगर स्त्रियां उनकी नज़र में इतनी ही ख़ास हैं तो यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि किसी भी धर्म में अब तक तमाम अवतार, धर्मगुरु, पैगंबर (Prophet), नीतिकार पुरूष ही क्यों रहे हैं ? क्यों पुरूष ही आजतक तय करते रहे हैं कि स्त्रियां कैसे रहें, कैसे जिएं और कैसे मरें ? उन्होंने तो यहां तक तय कर रखा है कि मरने के बाद स्वर्ग या जन्नत में जाकर भी अप्सरा या हूरों के रूप में औरतों को पुरूषों का दिल ही बहलाना है। हमारे नीतिशास्त्र स्त्रियों के व्यक्तित्व और स्वतंत्र सोच को नष्ट करने के पुरुष-निर्मित औज़ार हैं जिन्हें अपनी गरिमा मानकर स्त्रियों ने स्वीकार ही नहीं किया हैं, सदियों से स्त्रीत्व (Femininity) की उपलब्धि बताकर अपनी आने वाली पीढ़ियों को हस्तांतरित (Transferred) भी करती आई हैं।
क्या दुनिया की आधी और श्रेष्ठतर आबादी को अपने इशारों पर चलाने की मर्दों की शातिर चाल को नकारने का समय नहीं आ गया है ? महिलाओं को अब अपनी भावुकता से मुक्त होकर यथार्थ की जमीन परखनी होगी। उन्हें महिमामंडन (Glorification) की नहीं, स्त्री-सुलभ शालीनता के साथ स्वतंत्र सोच, स्वतंत्र व्यक्तित्व और आक्रामकता की ज़रुरत है। स्त्री का जीवन कैसा हो, इसे स्त्री के सिवा किसी और को तय करने का अधिकार नहीं है। अगर पुरुषों के बनाए भावनात्मक जकड़न से आप निकल सकीं तो साल के तीन सौ पैसठ दिन आपके, वरना ‘महिला दिवस’ के नाम पर एक दिन की बादशाहत आपको मुबारक हो ! #womensday #महिलादिवस