इसे कहते है नौकरशाही और व्यवस्थापिका के बीच जहरीला गठजोड़। यहाँ अधिकारी वर्ग अपने आने वाले कल की राजनीतिक संभावनायें तलाशने में इतने मशगूल है कि अपने वास्तविक कर्तव्यों से बहुत दूर निकल चुके है। वो शायद ये भूले चुके है, वो एक लोकसेवक है। उसे जनता की सेवा करने के एवज़ में, करदाताओं की गाढ़ी कमाई से इकट्ठा किये गये टैक्स के पैसों से तनख्वाह मिलती है। जहाँ उसे जनता के प्रति ज़्यादा जवाबदेह होना चाहिए, वहाँ ये लोकसेवक उन राजनेताओं के हाथों की कटपुतलियां बन गये है। जो विधानसभाओं और संसद में बैठकर देश चला रहे है। हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारा देश लोकतांत्रिक पद्धति पर चलता है ना कि फासीवादी मूल्यों पर। यहाँ नागरिकों को अपने हक़ की लड़ाई लड़ने का पूरा अधिकार है। साथ ही कोई भी ऐसा अधिनियम जो जनभावनाओं को विरूद्ध हो या फिर देश की अखंड़ता और विविधता पर चोट पहुँचाता हो, उसके प्रतिकार का पूरा अधिकार जनमानस के पास है। देश में लोकतन्त्र सर्वोपरि है, और मात्र न्यायपालिका ही ये तय कर सकती है कि कौन दोषी है और कौन नहीं। व्यवस्था में इस तरह के अधिकारियों के लिए कोई जगह नहीं है, जो अपना काम करने के बदले राजनीतिक लाभ हासिल करने की होड़ में लगे रहते है। इस तरह के नाकारे अधिकारी व्यवस्था के लिए जोंक है। जो समाज और व्यवस्थापिका में कैंसर फैलाते है। ये देश की एकता और संप्रभुता के लिए बड़ा खतरा है।