मल्लिकार्जुन खड़गे का कांग्रेस (Congress) अध्यक्ष के पद पर चुने जाना लगभग तय ही था। उन्होंने शशि थरूर के 1072 के मुकाबले 7897 वोट हासिल किये जैसा कि पहले ही अनुमान लगाया गया था। साथ ही सियासी गलियारों खासतौर से कांग्रेस की अगुवाई वाली विपक्षी पार्टियों में इन चुनावों की तारीफ भी हुई। मल्लिकार्जुन खड़गे सीताराम केसरी (Sitaram Kesari) के 25 साल बाद चुने जाने वाले पहले गैर-गांधी परिवार वाले अध्यक्ष बने।
गांधी परिवार के आशीर्वाद से खड़गे का जीतना तय था। सिर्फ इतना जरूर था कि थरूर को लगभग 2000 से 2,500 वोट मिलने की उम्मीद थी और ऐसा हुआ नहीं। आखिरकार उन्होंने महाराष्ट्र, तेलंगाना, तमिलनाडु और यूपी (Tamil Nadu and UP) जैसे राज्यों का बड़े पैमाने पर दौरा किया लेकिन उनकी मेहनत जाया गयी। वो पार्टी के भीतर छिपे असंतोष को भुनाने की उम्मीद कर रहे थे। यही वज़ह है कि पार्टी सांसद कार्ति चिदंबरम (Karti Chidambaram) ने थरूर का समर्थन करते हुए बयान दिया था कि “हमें बहुत खुशी है कि हमने चार अंकों के निशान – 1,072 वोटों को पार कर लिया है”
साल 2000 में जब जितेंद्र प्रसाद (Jitendra Prasad) ने सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा, तो उन्हें 94 वोट मिले थे, जो तीन अंकों के निशान तक पहुंचने में नाकाम रहे क्योंकि सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) को तब 7, 400 वोट मिले थे। साल 1997 में जब सीताराम केसरी पार्टी अध्यक्ष चुने गये थे तो उन्हें 6,224 वोट मिले थे, जबकि शरद पवार (Sharad Pawar) को 882 और राजेश पायलट (Rajesh Pilot) को 354 वोट मिले थे। ऐसे में बड़ी हैरानगी वाली बात नहीं कि चुनाव हारने वाले थरूर को लगा कि कांग्रेस पार्टी का पुनरुद्धार आज असल में शुरू हो गया है। आखिरकार देश भर में फैले 1000 से ज्यादा पार्टी प्रतिनिधियों के विश्वास को जीतना कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।
भले ही पूरी मतदाता लिस्ट कुछ ऐसी है जिसे कांग्रेस आलाकमान ने अपने हाथों से चुना था, पार्टी हलकों में दांव ये था कि अगर थरूर के पक्ष में 25 फीसदी से अधिक वोट डाले होते तो ये गांधी परिवार (Gandhi Family) के लिये बड़ी परेशानी का सबब बन सकता था। असल में गांधी परिवार को इस बात से राहत मिल सकती है कि थरूर को 10 फीसदी से ज्यादा वोट नहीं मिले क्योंकि इससे खड़गे को रिमोट से कंट्रोल करने का नैतिक अधिकार नहीं छीना जा सकता। ये मुमकिन है कि 416 वोट जानबूझकर अवैध पाये गये। थरूर की चुनाव अभियान टीम ने उत्तर प्रदेश में चुनाव के संचालन में बेहद गंभीर अनियमितताओं को पाया। उनकी टीम ने मतपेटियों के लिये अनौपचारिक मुहरों का इस्तेमाल, मतदान केंद्रों में गैरजरूरी लोगों की मौजूदगी, मतदान कदाचार और मतदान नहीं करना जैसी कवायदों की निशानदेही की और इस बारे में खत भी लिखा।
पार्टी के सूत्र मानते हैं कि महाराष्ट्र जैसे राज्यों में खड़गे की उम्मीदवारी के खिलाफ जाहिर तौर पर काफी नाराजगी थी, जिसे उन्होंने एआईसीसी महासचिव के तौर पर संभाला है। महाराष्ट्र के कांग्रेसी नेताओं ने कथित तौर पर महसूस किया कि राज्य के किसी व्यक्ति को पार्टी का नेतृत्व करने का मौका मिलना चाहिए था। सुशील कुमार शिंदे (Sushil Kumar Shinde) जैसे नेता जो कभी पार्टी के शीर्ष पद की दौड़ में थे उन्हें आगे आना चाहिये था। शायद खड़गे के खिलाफ इस नाराजगी को देखते हुए वोटों की गिनती राज्यवार नहीं की गयी थी। मुंबई और महाराष्ट्र में गांधी परिवार की लगातार उपेक्षा की जा रही है। राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की भारत जोड़ो यात्रा जिस तरह से आयोजित की गयी है, उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है।
इन्हीं मराठी कांग्रेस नेताओं में से एक ने कहा कि- ये यात्रा मराठवाड़ा और खानदेश (Marathwada and Khandesh) के कुछ हिस्सों को कवर करती है- नांदेड़ और जलगांव (Nanded and Jalgaon)। अगर राहुल जी को मोदी सरकार की नीतियों के लिये उन्हें निशाने पर लेना है, तो उन्हें मुंबई से बोलना चाहिए।
सिर्फ महाराष्ट्र के कांग्रेस नेता ही नहीं बल्कि कई राज्यों के कद्दावर कांग्रेस सिपहसालार भारत जोड़ो यात्रा के रूट पर सवाल उठा रहे है। दक्षिण गोवा के सांसद फ्रांसिसो सरडीन्हा (Francisco Sardinha) जैसे वरिष्ठ नेता ने राहुल से हिमाचल और गुजरात (Himachal and Gujarat) में अपनी यात्रा और प्रचार को छोड़ने की अपील की। हालांकि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मीडिया प्रभारी जयराम रमेश (JaiRam Ramesh) बार-बार ये कहते रहे हैं कि यात्रा का चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है, कांग्रेसी चुनावी नतीज़ों को लेकर चिंतित हैं और इस बात से पूरी तरह वाकिफ हैं कि 2022-23 में विधानसभा चुनावों की श्रृंखला में कोई भी झटका कांग्रेस को कमजोर कर सकता है। इसलिए संगठन के भीतर पहले से ही प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi), जो एआईसीसी महासचिव भी हैं, के यात्रा न करने को लेकर चिंतायें हैं। वो साफतौर पर हिमाचल विधानसभा चुनावों पर ध्यान लगा कर रही है और मुफ्त की घोषणा में आम आदमी पार्टी के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही है। वो जानना चाहती हैं कि यूपी में अपने उम्मीदों के उलट प्रदर्शन के बाद वो क्या हासिल कर सकती हैं।
ये सब कभी ना खत्म होने वाले और परेशान करने वाले सवालों को लाता है। अगर मल्लिकार्जुन खड़गे असल में सीताराम केसरी के बाद कांग्रेस के पहले गैर-गांधी अध्यक्ष हैं, तो ये भी संभव है कि वो अपने भाग्य का लिखा पूरा कर सकें। हां खड़गे के तौर पर अजीब लगता है, संभवतः केसरी की तरह ही वो आगे का रास्ता तय कर सके। यानि नेहरू-गांधी परिवार के किसी शख्स के लिये उचित समय पर पदभार संभालने के लिये रास्ता बनाना। जिस तरह केसरी को दिसंबर 1998 में इस्तीफा देने लिये मजबूर किया गया था। हो सकता है कि खड़गे की बारी जल्दी ही आ जाये।