Bhagat Singh: इतिहास के पन्नों में गूंजती इंकलाबियत की आवाज़

23 मार्च 1931 को महान क्रांतिकारियों भगत सिंह (Bhagat Singh), सुखदेव थापर और शिवराम हरि राजगुरु को ब्रिटिश सरकार ने लाहौर सेंट्रल जेल (Lahore Central Jail) में फांसी के तख़्त लटका दिया। भगत सिंह भारत को अंग्रेजों की बेड़ियों से आज़ाद देखना चाहते थे और उनके भारत में आज का पाकिस्तान और बांग्लादेश भी था। उस वक़्त भारत का विभाजन नहीं हुआ था और शायद भगत सिंह ने भी नहीं सोचा था कि जिस मुल्क के लिये वो अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं, वो एक दिन धर्म के आधार पर बंट जायेगा।

हर साल भगत सिंह की पुण्यतिथि पर जमकर पूरे देश में इंकलाबी नारे लगते है। ज़िन्दा कौमें, आज़ाद ख्यालात और ट्रेड यूनियन से जुड़े लोग आज भी उन्हें काफी जोशोखरोश के साथ याद करते है। इसी क्रम में पहली बार पाकिस्तान में शहीद भगत सिंह की याद में नारे भी लगाये गये और उनके बलिदान को भी याद किया गया। जिस जगह पर उन्हें फांसी दी गयी थी, वहां पाकिस्तानियों ने शहीदी दिवस कार्यक्रम का आयोजन किया।

आज शहीद भगत सिंह की पुण्यतिथि के मौके पर हम आपको देश के उन गद्दारों के बारे में बतायेगें जिन्होंने भगत सिंह के खिलाफ झूठी गवाही दी और जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने पुरस्कार और पैसों की माला पहनायी। उनमें से कईयों को उपहार के तौर पर 50-50 एकड़ जमीनें दी गयी। उन दिनों भी उन्हें इनाम के तौर पर 20 हजार रुपये नकद दिये गये। कुछ पुलिस अधिकारियों को पदोन्नत किया गया और कुछ लोगों को लंदन भेजकर पुरस्कृत किया गया।

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स (British Police Officer John Saunders) की हत्या के लिये फांसी दी गयी थी। इस घटना के पीछे साइमन कमीशन (Simon Commission) बड़ा कारण था। बात है साल 1928 है, जब 30 अक्टूबर को साइमन कमीशन सात अंग्रेजों के दल के साथ लाहौर पहुंचा। आयोग की स्थापना साल 1927 में भारत में संवैधानिक सुधारों पर काम करने और ब्रिटिश शासन की शक्तियों को बदलकर उन्हें मजबूत बनाने के मकसद से की गयी थी।

आयोग के सभी सदस्य जब 30 अक्टूबर को लाहौर (Lahore) पहुंचे तो आवाम़ इसका विरोध किया। विरोध का बड़ी वज़ह ये था कि इस आयोग में एक भी भारतीय शामिल नहीं था जबकि संवैधानिक सुधार भारत की व्यवस्था के बारे में थे। ऐसे में लाला लाजपत राय ने क्रांतिकारी दल की अगुवाई की और इस आयोग के खिलाफ सड़कों पर उतर आये। इस विद्रोह से अंग्रेज इतने घबरा गये कि उन्होंने इसे दबाना शुरू कर दिया।

जेम्स ए स्कॉट (James A Scott) लाहौर के पुलिस अधीक्षक थे और उन्होंने लाला लाजपत राय समेत अन्य प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज करने का फरमान जारी कर दिया। लाला लाजपत राय पर भी बेरहमी से लाठीचार्ज किया गया और वो बुरी तरह घायल हो गये। इस क्रूर लाठीचार्ज के 18 दिन बाद 17 नवंबर, 1928 को लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गयी और उनकी मृत्यु ने क्रांतिकारियों को गुस्से से भर दिया। तय हुआ कि उनकी मौत का बदला लिया जायेगा।

भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद समेत कई क्रांतिकारियों ने जेम्स स्कॉट के कत्ल की योजना बनायी। इसके लिये ठीक एक महीने बाद 17 दिसंबर की तारीख चुनी गयी। लेकिन कई इतिहासकार मानते हैं कि क्रांतिकारियों के गलत लक्ष्य ने सब कुछ बदल दिया।

अंग्रेजी सरकार ने दावा किया कि गोलियां भगत सिंह और राजगुरु ने चलाई थीं। लेकिन उनका निशाना जेम्स स्कॉट की जगह जॉन सॉन्डर्स थे, जो लाहौर के एएसपी थे और उनकी मौत हो गयी।

1928 की इस घटना में भगत सिंह और राजगुरु पकड़े नहीं गये और मामले की जांच चल रही थी। हालांकि इस जांच के बीच क्रांतिकारियों ने सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने की योजना बनायी। यानि 8 अप्रैल 1929। उस दिन क्रांतिकारी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त सेंट्रल असेंबली (Central Assembly) में शामिल हुए, जो आज का संसद भवन है।

उसने एक बम फेंका जो फट गया। ये धमाका उस समय अंग्रेजों द्वारा लाये गये नये कानून के विरोध में था, जिसके तहत ब्रिटिश सरकार बिना सबूत के लोगों को गिरफ्तार कर जेलों में रख सकती थी।

बम धमाके के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त (Batukeshwar Dutt) को गिरफ्तार कर लिया गया। और दोनों को दिल्ली के अलग-अलग थानों में रखा गया ताकि उनसे पूछताछ की जा सके। लेकिन बाद में जब ये जांच शुरू हुई तो ब्रिटिश सरकार ने दावा किया कि जॉन सॉन्डर्स की हत्या में भगत सिंह भी शामिल था। और इस मामले में उनके खिलाफ अलग से मुकदमा चला।

इसे लाहौर षडयंत्र केस के नाम से भी जाना जाता है, जो उस समय काफी मशहूर हुआ। मुकदमा 5 मई 1930 को शुरू हुआ और 11 सितंबर 1930 तक चला। आखिरकार 17 अक्टूबर, 1930 को अदालत ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा मुकर्रर की।

लेकिन इस मामले में कई ऐसी बातें हैं जो अंग्रेज सरकार ने भारत की जनता से छुपाई। साल 2018 में फांसी को लेकर पाकिस्तानी अदालत में याचिका दायर की गयी। इसमें जॉन सॉन्डर्स की हत्या के मामले में दर्ज प्राथमिकी को सार्वजनिक करने की मांग की गयी। लाहौर के अनारकली पुलिस स्टेशन में दिसंबर 1928 को इस मामले की एफआईआर दर्ज की गयी थी। और उसमें एक प्रत्यक्षदर्शी ने अपने बयान लिखवाया कि जॉन सॉन्डर्स पर गोली चलाने वाले शख़्स की लंबाई 5 फीट 5 इंच थी, जबकि भगत सिंह की ऊंचाई 5 फीट 10 इंच थी।

इसके अलावा एफआईआर में ये भी लिखा था कि हमलावर के सिर पर पगड़ी नहीं थी। भगत सिंह सिख धर्म से थे और वो पगड़ी पहनते थे। बड़ी बात ये है कि शख़्स को एफआईआर में चश्मदीद बनाया गया, वो लाहौर के उसी थाने में तैनात पुलिसकर्मी था। इस मामले से जुड़ी कुछ और बातें हैं, जो इस बात की ओर इशारा करती हैं कि इस मामले की सुनवाई के दौरान भगत सिंह के साथ नाइंसाफी हुई।

इस मामले में भगत सिंह के खिलाफ जिन गवाहों को पेश किया गया, उनमें से चार गवाह ऐसे थे जो पहले भगत सिंह के साथ क्रांतिकारी संगठन में शामिल थे। इन लोगों के नाम हैं हंसराज वोहरा, जयगोपाल, फणींद्रनाथ घोष और मनमोहन बनर्जी। ये क्रांतिकारी भगत सिंह के खिलाफ आधिकारिक सरकारी गवाह बन गये थे और उनकी गवाही को मामले में अहम बुनियाद माना गया। जबकि सच तो ये है कि अंग्रेज सरकार ने इन लोगों को इस गवाही के लिये महंगे तोहफे दिये। जयगोपाल (Jaigopal) को 20,000 रुपये का नकद इनाम मिला, फणींद्रनाथ घोष और मनमोहन बनर्जी (Phanindranath Ghosh and Manmohan Banerjee) को चंपारण बिहार में 50-50 एकड़ मुफ्त ज़मीन मिली। हंसराज वोहरा (Hansraj Vohra) को अंग्रेजी सरकार ने अपने खर्चें पर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ने के लिये भेजा। यानि इन लोगों को भगत सिंह को फांसी दिलाने के लिये अंग्रेजी सरकार से इनाम मिला।

इसी तरह भगत सिंह की फांसी के बाद लाहौर सेंट्रल जेल के हर पुलिस अधिकारी को प्रमोशन और इनाम में अन्य सुविधाएं मिलीं। मिसाल के लिये जेल डीएसपी जेआर मॉरिस (DSP JR Morris) को किंग्स पुलिस के पदक से सम्मानित किया गया। इसके अलावा इस मामले के जांच अधिकारी शेख अब्दुल अजीज (Sheikh Abdul Aziz) को भगत सिंह की फांसी के बाद एसपी बनाया गया और फिर वो डीआईजी भी बना। ये इसलिए भी हैरत की बात है क्योंकि अंग्रेजी हुकूमत की 200 साल की गुलामी में सिर्फ वो ही एक भारतीय पुलिसकर्मी था, जो हेड कांस्टेबल के पद पर ब्रिटिश पुलिस महकमें में शामिल हुआ और डीआईजी के पद से रिटायर हुआ और वो शख्स थे शेख अब्दुल अजीज, जिन्होंने भगत सिंह के खिलाफ इस मामले की जांच की थी।

इसके अलावा जब भगत सिंह को फांसी दी जा रही थी तब लाहौर जेल के तत्कालीन उप जेल अधीक्षक मोहम्मद अकबर खान (Deputy Jail Superintendent Mohammad Akbar Khan) और उनके दो जूनियरों की आंखों में आंसू थे। जिसके बाद उन्हें अंग्रेजी सरकार ने सस्पेंड कर दिया। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अंग्रेज भगत सिंह से कितनी नफरत करते थे।

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी की तारीख 24 मार्च तय की गयी थी। लेकिन ये वो दौर था जब भगत सिंह के विचारों से अंग्रेजी शासन (British rule) कांप रहा था। लेकिन भगत सिंह के चेहरे पर हिम्मत साफ दिखायी दे रही थी और वो मुस्कुरा रहे थे।

जब उन्हें फाँसी के लिये तैयार होने की खबर आयी, तब भी इन माँ भारती के लालों के चेहरों पर कोई डर नहीं था। उनके हाव-भाव देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे वो इस पावन अवसर का लंबे वक़्त से इंतजार कर रहे हो और फांसी से पहले पूरी जेल इंकलाब ज़िदाबाद के नारों से गूंज उठी।

तभी अचानक बंदियों को अपने-अपने सेल में जाने को कहा गया। और इसके बाद चारों तरफ ये खबर फैल गयी कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी जाने वाली है। कहा जाता है कि इसके बाद जेल में सिर्फ और सिर्फ तीन लोग खुश हुए और वो थे- भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव। क्योंकि ये तीनों देश के लिये सर्वोच्च बलिदान देने वाले थे।

इन तीनों के अलावा जेल के बाकी कैदियों में मातम और सन्नाटा पसरा रहा। माँ भारती के ये तीनों बेटे हंसते हुए फांसी के फंदे पर चढ़ गये। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने देशभक्ति के गीत गाते हुए मौत को गले लगाया।

संस्थापक संपादक – अनुज गुप्ता

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