Ebrahim Raisi: ईरान के नये राष्ट्रपति से मध्य एशिया, भारत और दुनिया की उम्मीदें

इब्राहिम रायसी (Ebrahim Raisi) जल्द ही ईरानी राष्ट्रपति के तौर पर कार्यभार संभालने वाले है। ऐसे में उन्हें सीधे तौर विदेश नीति और आर्थिक क्षेत्र में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। ऐसे में वो वैश्विक विदेश नीति से अलगाव रखने का जोखिम नहीं उठा सकते साथ ही उन्हें व्यावहारिक आर्थिक नीति अपनाने की भी जरूरत है।

ईरान के मौजूदा आर्थिक हालात लगातार दो सालों से नकारात्मक वृद्धि दर से घिरे हुए है। साल 2021 में इसके 1.5 फीसदी बढ़ने का अनुमान है। राजकोषीय घाटा भी ज्यादा रहा है। मुद्रास्फीति भी आसमान छू रही है (जून 2021 तक ये अनुमान 40 प्रतिशत से ज्यादा था, रोजाना की खाने पीने की चीज़ों के लिए मुद्रास्फीति 70 फीसदी से ज्यादा हो गयी) और वर्ष 2021 के लिए बेरोजगारी का अनुमान 12.4 प्रतिशत था। इसने ईरान के भीतर असंतोष और कई विरोधों को भी जन्म दिया।

जहां 2018 में जेसीपीओए/ईरान न्यूक्लियर डील के संयुक्त व्यापक कार्यक्रम से अमेरिका का हटना ईरान की अर्थव्यवस्था के लिए कारा झटका था, वहीं कोविड-19 भी ईरान की अर्थव्यवस्था के लगातार गिरावट की खाई में ले जा रहा है। ऐसे में रायसी को अमेरिका के साथ बातचीत में व्यावहारिकता दिखाने की जरूरत होगी। जबकि उन्होंने बार-बार कहा है कि वो ईरान परमाणु समझौते के विरोध में नहीं हैं, वे पश्चिम के सामने झुकेंगे नहीं (सौदे के बारे में उनका रुख निवर्तमान राष्ट्रपति हसन रूहानी से अलग होने की संभावना है)। रायसी ने ये भी इशारा दिया कि वो जेसीपीओए से शुरू से ही बातचीत करना चाहते हैं (वियना वार्ता जो कि अप्रैल 2021 से चली उसमें कई अहम प्रगति हुई और ये एक बड़ा झटका हो सकता है)

अगर अमेरिका जेसीपीओए में वापस आता है और प्रतिबंध हटा दिये जाते हैं तो ईरान के तेल निर्यात (oil export) को निश्चित रूप से बढ़ावा मिलेगा और ईरान के लिए कई दूसरे आर्थिक रास्ते खुलेंगे। दूसरी ओर अगर रायसी वार्ता में कठोर रुख अपनाते है तो अमेरिका ने संकेत दिये हैं कि वो ईरान से तेल के चीनी आयात पर प्रतिबंध लगाकर ईरान पर दबाव बना सकता है।

कई चोटी के अर्थशास्त्रियों ने साफतौर पर रायसी को बताया है कि ईरान बाहरी दुनिया के साथ अलगाववादी नजरिया अपनाने का जोखिम नहीं उठा सकता है, जो पश्चिम के लेकर काफी महीन नीति की ओर इशारा करते है जो कि जेसीपीओए मुद्दे को हल कर सकता है ताकि ईरानी अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाया जा सके।

जेसीपीओए के अलावा रायसी एक व्यावहारिक आर्थिक नीति (Practical Economic Policy) अपनाने और सलाहकारों पर निर्भर न रहने की सलाह दी गयी। अपने चुनावी अभियान के दौरान रायसी ने ईरान की अर्थव्यवस्था में दुबारा जान फूंकने के लिये कुछ नीतियों की रूपरेखा तैयार की थी। इसमें सब्सिडी वाला स्वास्थ्यतंत्र, महत्वाकांक्षी आवास कार्यक्रम, किराए में कमी और कई अन्य उपाय शामिल हैं।

उनकी कुछ नीतियां फौरी तौर पर व्यावहारिक नहीं लगती। ये नीतियां पूरी तरह से अल्पावधि कार्यक्रम (Short Term Program) पर आधारित है। इसमें कोई शक नहीं कि अमेरिकी प्रतिबंधों और कोविड-19 के अलावा लोकलुभावन नीतियों ने भी ईरान के मौजूदा संकट में काफी अहम भूमिका निभायी है। साल 2019 की आईएमएफ रिपोर्ट के मुताबिक ईरान में ऊर्जा सब्सिडी 100 बिलियन अमरीकी डालर से ज्यादा थी (ये देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1/4 वां हिस्सा है)।

आक्रामक अमेरिकी नीति के कारण ईरान हाल के सालों में चीन के काफी करीब आ गया है। इसी बात का मजबूत दोहराव है ईरान-चीन 25 साल का रणनीतिक समझौता, जिसके तहत चीन बुनियादी ढांचे और तेल पर ध्यान देने के साथ ईरान में कई अलग-अलग क्षेत्रों में 400 बिलियन अमरीकी डालर का निवेश करेगा।

पश्चिम विरोधी भावना के बावजूद बीजिंग के साथ इस समझौते में पारदर्शिता की कमी को लेकर पूर्व राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद समेत कई लोगों ने शक ज़ाहिर किया। ऐसे में तेहरान को कई देशों के साथ आर्थिक संबंधों पर ध्यान देने की जरूरत होगी।

एक देश जो इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है वो है भारत। जेसीपीओए से अमेरिका की वापसी के बाद भारत-ईरान संबंधों में गिरावट देखी गयी क्योंकि नई दिल्ली ने ईरान से तेल खरीदना बंद कर दिया। जिसके कारण खाड़ी सहयोग परिषद (Gulf Cooperation Council-GCC) में भारत की नज़दीकियां संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के साथ खासतौर से बढ़ती दिखी।

जब से जो बाइडेन प्रशासन ने कार्यभार संभाला है, नई दिल्ली तेहरान के साथ संबंधों पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है, खासतौर रूप से चाबहार पोर्ट प्रोजेक्ट (Chabahar Port Project) पर जो भारत के लिए अफगानिस्तान और मध्य एशिया के लिये एक प्रवेश द्वार होने के कारण रणनीतिक महत्व रखता  है।

भारतीय विदेश मंत्री एस.जयशंकर का मास्को के रास्ते तेहरान में ठहराव, जिसके दौरान उन्होंने नये राष्ट्रपति रायसी से मुलाकात की और ईरानी विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ़ के साथ उनकी बातचीत जिसमें अफगानिस्तान की हालातों पर चर्चा की गई थी, ये सब कड़ियां इस बिंदु का मजबूत दोहराव है। बदलती क्षेत्रीय भू-राजनीतिक स्थिति में भारत और ईरान को साझा आधार तलाशने की जरूरत है।

हालांकि हाल के सालों में दोनों के बीच मतभेद हो सकते हैं, कुछ बिंदुओं को ध्यान में रखना बेहद जरूरी है। सबसे पहले हाल के महीनों में मध्य पूर्व में भू-राजनीतिक परिदृश्य (Geopolitical Landscape) अहम तौर पर बदल गये है क्योंकि जीसीसी देश स्वयं ईरान के साथ संबंधों को सुधारने की मांग कर रहे हैं। दूसरा भारत के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध एक मजबूत संदेश देगा कि तेहरान की विदेश नीति विषम नहीं है और ये पूरी तरह से चीन पर निर्भर नहीं है। इसी तरह भारत तेहरान के साथ संबंधों को मजबूत करके तेहरान-वाशिंगटन डीसी के बीच संबंधों के बावजूद पैगाम भेजेगा कि भले ही वो वाशिंगटन के करीब चला गया हो, लेकिन वो महत्वपूर्ण विदेश नीति के मुद्दों पर नहीं झुकेगा।

ईरानी राष्ट्रपति पद का कार्यभार संभालते ही रायसी को संतुलित आर्थिक नीति की दरकार होगी। साथ ही ईरान को दूसरे मुल्कों के संबंध कायम करना पड़ेगा। इन संबंधों संतुलित और बहुपक्षीय (Balanced And Multilateral) होना बेहद जरूरी होगा। बदलते क्षेत्रीय परिदृश्य में भारत-ईरान संबंध खासतौर से काफी अहम है और दोनों पक्षों को आपसी संबंधों के सुधार पर ध्यान देना चाहिए न कि उन्हें अन्य संबंधों के साथ जोड़ना चाहिए।

राम अजोर- सह संस्थापक संपादक

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