सदियों पहले पश्चिमी देश जब अंधकार में थे। तब भारत के ऋषियों ने नाड़ी दोष ढूंढ लिया था और उसे गोत्र (Gotra) के रूप में विभाजित करके संसार को उत्तम ज्ञान दिया था, जिसे आज का आधुनिक चिकित्सा शास्त्र क्रोमोसोम थ्योरी (Chromosome Theory) कहता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के मुताबिक स्त्री में गुणसूत्र XX और पुरुष में XY गुणसूत्र होते हैं।
सन्तति उत्पत्ति में माना कि पुत्र हुआ (XY गुणसूत्र) अर्थात इस पुत्र में Y गुणसूत्र पिता से ही आया, ये तो निश्चित ही है क्योंकि माता में तो Y गुणसूत्र होता ही नहीं है और अगर पुत्री हुई तो (XX गुणसूत्र) यानि ये गुण सूत्र पुत्री में माता और पिता दोनों से आते हैं।
XX गुणसूत्र
XX गुणसूत्र यानि कि पुत्री, XX गुणसूत्र के जोड़े में एक X गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा X गुणसूत्र माता से आता है। इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है जिसे क्रॉसओवर कहा जाता है।
XY गुणसूत्र
XY गुणसूत्र यानि कि पुत्र, पुत्र में Y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्योंकि माता में Y गुणसूत्र है ही नहीं। दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारण पूर्ण क्रॉसओवर नहीं होता केवल 5% तक ही होता है । और 25% Y गुणसूत्र ज्यों का त्यों ही रहता है। तो महत्त्वपूर्ण Y गुणसूत्र हुआ क्योंकि Y गुणसूत्र के विषय में हमें निश्चित है कि ये पुत्र में केवल पिता से ही आया है ।
बस इसी Y गुणसूत्र का पता लगाना ही गोत्र प्रणाली का एकमात्र उदेश्य है जो लाखों सालों पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था।
वैदिक गोत्र प्रणाली और Y गुणसूत्र
अब तक हम ये समझ चुके हैं कि वैदिक गोत्र प्रणाली Y गुणसूत्र पर आधारित है यानि कि Y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक जरिया है। उदाहरण के लिए अगर किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है तो उस व्यक्ति में विद्यमान Y गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस Y गुणसूत्र के मूल हैं।
चूँकि Y गुणसूत्र स्त्रियों में नहीं होता यहीं कारण है कि विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है। वैदिक/हिन्दू संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित (Marriage Taboo) होने का मुख्य कारण यही है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वो पुरुष व स्त्री भाई बहन कहलायेगें क्योंकि उनका प्रथम पूर्वज एक ही है परन्तु ये थोड़ी अजीब बात नहीं कि जिन स्त्री और पुरुष ने एक दूसरे को कभी देखा तक नहीं और दोनों अलग अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे तो वे भाई-बहन हो गये ?
इसका मुख्य कारण एक ही गोत्र होने के कारण गुणसूत्रों में समानता का भी है। आज के आनुवंशिक विज्ञान (Genetics) के अनुसार यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनकी सन्तति आनुवंशिक विकारों के साथ उत्पन्न होगी। ऐसे दंपत्तियों की संतानों में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता। ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है।
विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यहीं बात कही गयी है कि सगोत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष (Genetic Defect) अर्थात मानसिक विकलांगता, अपंगता, गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाये जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगोत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था।
इस गोत्र का संवहन यानि उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित न कर सके, इसलिये विवाह से पहले कन्यादान कराया जाता है और गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गोत्र में उस कन्या को स्थान देता है। यही कारण था कि उस समय विधवा विवाह भी स्वीकार्य नहीं था, क्योंकि कुल गोत्र प्रदान करने वाला पति तो मृत्यु को प्राप्त कर चुका है।
इसीलिये कुंडली मिलान (horoscope matching) के समय वैधव्य पर खास ध्यान दिया जाता और मांगलिक कन्या होने पर ज्यादा सावधानी बरती जाती है। आत्मज या आत्मजा करने मिलता है
आत्म + ज अथवा आत्म + जा
आत्म = मैं , ज या जा = जन्मा या जन्मी , यानी मैं ही जन्मा या जन्मी हूँ।
यदि पुत्र है तो 95% पिता और 5% माता का सम्मिलन है। यदि पुत्री है तो 50% पिता और 50% माता का सम्मिलन है। फिर यदि पुत्री की पुत्री हुई तो वो डीएनए 50% का 50% रह जायेगा, फिर यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का 50% डीएनए रह जायेगा। इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री जन्म में ये प्रतिशत घटकर 1% रह जायेगा।
यानि कि एक पति-पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुनः पुनः जन्म लेता रहता है और यहीं है सात जन्मों का साथ जब पुत्र होता है तो पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95% गुणों को अनुवांशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5% (जो कि किन्हीं परिस्थितियों में एक % से कम भी हो सकता है) डीएनए ग्रहण करता है, और यही क्रम अनवरत चलता रहता है।
जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेते रहते हैं, अर्थात ये जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है। इसीलिये अपने ही अंश को पित्तर जन्म जन्मान्तरों तक आशीर्वाद देते रहते हैं और हम भी अमूर्त रूप से उनके प्रति श्रद्धेय भाव रखते हुए आशीर्वाद ग्रहण करते रहते हैं। यही सोच हमें जन्मों तक स्वार्थी होने से बचाती है, और सन्तानों की उन्नति के लिये समर्पित होने का सम्बल देती है ।
एक बात और माता पिता यदि कन्यादान करते हैं तो इसका ये अर्थ कदापि नहीं है कि वे कन्या को कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं बल्कि इस दान का विधान इस निमित्त किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिये और उस कुल की कुलधात्री बनने के लिये उसे गोत्र मुक्त होना चाहिये।
डीएनए मुक्त तो हो नहीं सकती क्योंकि भौतिक शरीर में वे डीएनए रहेंगे ही इसलिये मायका अर्थात माता का रिश्ता बना रहता है गोत्र यानी पिता के गोत्र का त्याग किया जाता है। तभी वो भावी वर को ये वचन दे पाती है कि उसके कुल की मर्यादा का पालन करेगी यानि उसके गोत्र और डीएनए को दूषित नहीं होने देगी वर्णसंकर (Chromaticity) नहीं करेगी क्योंकि कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिये रज का रजदान करती है और मातृत्व को प्राप्त करती है। यहीं कारण है कि प्रत्येक विवाहित स्त्री माता समान पूज्यनीय हो जाती है ।
ये रजदान भी कन्यादान की ही तरह कोटि यज्ञों के समतुल्य उत्तम दान माना गया है, जो एक पत्नी द्वारा पति को दान किया जाता है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अलावा ये संस्कारगत शुचिता (Ritual Purity) किसी अन्य सभ्यता में दृश्य ही नहीं है।