Co-operation! सहकारिता!
80-90 के दशक में यह सहकारिता ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ हुआ करती थी! गांवों में इसने कभी रोजगार की कमी महसूस नहीं होने दी! जैसा कि हम सब जानते हैं, कृषि ग्रामीण परिवेश (Agro Rural Environment) का मुख्य रोजगार था…आज भी है!…और हमेशा रहेगा!
पहले बैलों की जोड़ियां लगाई जाती थीं! बैलों के दो मालिक मिलकर एक हलवाहा रखते थे! हलवाहे को आजीविका के लिए भूमि का एक टुकड़ा दे दिया जाता था और खेत में काम करते वक्त हलवाहे का नाश्ता पानी दोनों मालिकों की जिम्मेदारी थी! हलवाहे को इस बात की छूट थी कि या तो वह मजदूरी ले…या उसके एवज में बैलों को अपने यहाँ कुछ दिनों के लिए ले जाकर दूसरों के खेत जोतकर अपनी कमाई करे! इससे वह अपनी खेती भी कर लेता था और कुछ दिन दूसरों के यहाँ हल चलाकर कुछ पैसे या अनाज भी कमा लेता था! ….कभी कभी अपना कर्ज भी चुकता कर देता था!
कुछ बड़े किसान तो रिश्तेदारों के यहाँ से बैल मंगाकर खेती करते थे! जानवरों की भरमार थी और खेती पूर्णतया जैविक थी!
गन्ने से गुड़ बनाने के लिए ग्रामीणों को सोचना नहीं पड़ता था! पूरा गांव मिलकर गन्ना काट देता! बैलों को कोल्हू में जोतकर गन्ना पेरा जाता! बैलों को बदले में गन्ने का रस तथा मालिक को जलावन के लिए चेपुआ मिल जाता!
वस्तुओं के आदान प्रदान से ग्रामीण अपनी जरूरतें पूरी करते! आलू के बदले प्याज…. प्याज के बदले गुड़….अनाज के बदले पैसा! पैदावार ज्यादा हो गयी तो उसे लेकर हाट चले गए! वहां 10 लोगों से मुलाकात हो गयी! एक दूसरे का दुःख सुख जाना! वापस ख़ुशी ख़ुशी घर आ गए!
अशिक्षित होते हुए भी इनमे सामाजिक मेलजोल (Social Gathering) की भावना कूट कूट कर भरी हुई थी! लोग एक दूसरे के सुख दुःख में काम आते थे!
जरूरतें कम थीं और लोग खुशहाल थे! शुभ अशुभ अवसरों पर खाट-चौकी, गद्दा-रजाई, पत्तल-दोने, घड़े, कुल्हड़, नाई वगैरह से लेकर हलवाई तक की जरूरत गांव के लोग खुद ही देख लेते थे!
जब यही Co-operation बाजारों में बिकने लगता है तो उसे हम Corporation कहते हैं! …और इसका कर्ता धर्ता होता है कॉरपोरेट!
Corporate से ग्रामीणों की यह ख़ुशी बर्दाश्त नहीं हुई! क्योंकि उसकी कमाई नहीं हो रही थी! …तो इसके लिए इस सहकारी व्यवस्था को ख़त्म करना जरुरी था! …और उसने किया!
ग्रामीण बेरोजगारी की कहानी यही से शुरू होती है!
यहाँ आपका परिचय दो शब्दों से करवाना चाहूंगा:- बेरोजगार और बेगार!
बेगार वह है जो अपने काम में कुशल है लेकिन उसके पास कोई काम नहीं है! जरूरत पड़ने पर वह काम के लिए जायेगा! लेकिन एक शर्त के साथ! वह जिसके यहाँ काम करने जायेगा बदले में उसे भी इसके यहाँ काम करने आना पड़ेगा! जब जरूरत पड़ेगी तब आना पड़ेगा! एक तरह से उस बेगार ने मजदूरी कर के अपने लिए मजदूर की व्यवस्था कर ली है! यदि उसने पांच जगहों पर काम किया है तो जरूरत के वक्त उन पांचों लोगों को उसके यहाँ मजदूरी करनी पड़ेगी!
बेरोजगार के अंदर ये भावना नहीं होती है! कुशल वह भी है लेकिन उसे मजदूरी के बदले में पैसे या अनाज चाहिए! वह अपने ऊपर कोई उधार नहीं रखना चाहता!
एक तरफ जहाँ बेगारी सामाजिक तानेबाने को और मजबूत करती है,वही दूसरी तरफ, बेरोजगारी इस तानेबाने को उधेड़ कर रख देती है!
कॉर्पोरेट ने सबसे पहले इसी पर हमला किया!
यदि कोई कारक बेगारों को बेरोजगारों में बदल देता है तो यह व्यवस्था स्वतः ध्वस्त हो जाएगी!
…..तो कॉर्पोरेट ने कैसे किया ये सब?
Divide and Rule…..
उसने ग्रामीणों और प्रकृति के बीच खाई पैदा कर दी और सबसे पहले उन ग्रामीण संसाधनों का मजाक उड़ाना शुरू किया जिनपर वह अपना दबदबा बनाना चाहता था! गंवार, बुद्धू, जाहिल….और पता नहीं क्या क्या कहना शुरू किया!
इस काम में इसकी मदद बॉलीवुड ने भी की! जताया गया कि किसान के लड़के को खूबसूरत लड़की नहीं मिल सकती! ग्रामीण कोट पैंट जुत्ते नहीं पहन सकता! चश्मा नहीं लगा सकता! धोती में भद्दा दिखता है और दातुन कुंचते वक्त तो बैल लगता है बिलकुल!
उसके बाद मेहनतकश लोगों को मशीनों के जरिये अकर्मण्य और आलसी बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई! कुंए, रहट, तालाब जैसे पानी के स्रोतों पर निर्भर रहने वाले लोगों को ज़मीन भेदकर पानी निकालना सिखाया!
लेकिन इसके लिए भूमिगत जल को प्रदूषित करना जरुरी था! इस काम के लिए कम्पोस्ट की जगह रासायनिक उर्वरक तथा कीटनाशकों को चुना गया!
गांवों के कुंवो में मौजूद शुद्ध पानी अब किसी काम का नहीं था! सही वक्त देखकर कॉर्पोरेट ने अपना ट्यूबवेल पकड़ा दिया!
मेरे पास पैसा है, गाडी है, बैंक बैलेंस है……
बताया गया कि गांवों में खेती करने से कुछ हासिल नहीं होगा! बच्चों को कुछ लायक बनाना है तो शहरों में आओ! इसके लिए गांवों को सुविधा विहीन करना जरुरी था!
इनके खर्चे बढ़ा दिए गए लेकिन फसलों के दाम नहीं बढ़ाये गए! इनको स्कूल-अस्पताल-सड़क से वंचित कर दिया और लोग शहरों की तरफ चल पड़े! जब एकाध साल बाद वापस आये तो उनके पास पैसा, बढ़िया कपड़े, जूत्ते वगैरह थे! घर में उनकी इज्जत होने लगी! ये सब देखकर गांवों के बेगार अब बेरोजगारों में तब्दील होने लगे! उन्हें भी ऐसा ही चमक दमक चाहिए था!
परिवारों के बीच झगड़े बढ़ने लगे! संयुक्त परिवार टूटने लगे! बैलों की जोड़ियां टूटने लगीं! पशुओं की आबादी कम हो गयी! जोत छोटे होते चले गए! हलवाहे खत्म होने लगे! पत्तल-दोने, घड़े बनाने वाले, नाई, हलवाई लोहार-सब के व्यवहार बदल गए! अब कोई बेगार नहीं करता! सबको अपने हिस्से की मजदूरी चाहिए!
सहकारिता से भरा समाज और इसका तानाबाना पूरी तरह से ध्वस्त हो गया!
पूरा ग्रामीण परिवेश को अकर्मण्यों और आलसियों से भर गया! बेरोजगारों की भरमार हो गयी!
…और जिस समाज में बेरोजगारों की भरमार हो जायेगी, वही से कॉर्पोरेट को सस्ते मजदूर मिलेंगे! दिहाड़ी करने एवज में उनको पैसा मिलेगा और फिर वही पैसा घूम फिर कर कॉर्पोरेट की जेब में जायेगा!
जिन गांवों के लोग गन्ने का रस पीते थे उन गांवों में शराब के ठेके खोल दिए गए! मशीनों से खेतों की जुताई होने लगी! मिटटी में मौजूद केंचुंए तथा अन्य जीव जो किसानों के मित्र माने जाते थे और खेती में मदद करते थे ….. कटते चले गए!
जो रह गए उन्हें कीटनाशकों ने मार डाला!
कॉर्पोरेट ने पालतू जानवरों को भी नहीं छोड़ा! जमीन के बिलकुल पास से काटी गयी फसल से जानवरों को चारा मिलता था! अब मशीने उन्हें तीन फ़ीट ऊपर से काटतीं हैं! बची हुई पराली जला दी जाती है!
इसके साथ ही हवा भी जहरीली हो गयी!
अब समूचा ग्रामीण परिवेश कॉर्पोरेट की चपेट में है!
अब कहीं कुंवे का पानी नहीं मिलता! सभी के यहाँ या तो चापाकल है या सबमर्सिबल पंप! अब पकते हुए गुड़ की खुशबू नहीं मिलती! पेड़ों की छाँव दिन ब दिन कम हो गयी! मुफ्त में अब कोई रामचरितमानस का पाठ तक करने नहीं आता, खेतों में काम करने की बात तो बहुत दूर है! पत्तल के दोने अब नहीं मिलते! मिलते भी हैं तो थर्मोकोल या प्लास्टिक के! कुल्हड़ में ठंडी हो रही चाय अब बीती बात हो गयी! इतवार के दिन नाई के दरवाजे पर अब कोई भीड़ नहीं लगती! पेट्रोमैक्स को फूंक मारकर जला देने वालों का भौकाल जनरेटर खा गया!
ये सब तबाह करने के बाद कॉर्पोरेट अपने असली रूप में आता है!
दातुन का मजाक बनाकर उसने टूथपेस्ट को हवन सामग्री बना दिया! फ़र्टिलाइज़र से जमीनों को गन्दा करने के बाद वह “ऑर्गेनिक” होने की बात कह रहा है! महिलाओं से उनकी चक्की छीनकर “चक्की वाला आटा” बेच रहा है!वनों को अंधाधुंध कटवा कर कागज बनाता है और उसी कागज पर “Go Green” जैसे स्लोगन लिखवा रहा है! भूमिगत जल को गन्दा करने के बाद लोगों को अपना RO प्लांट बेच रहा है! लोगों के हाथ से गन्ने का रस छीनकर उन्हें अब “green Tea” पीने की सलाह दे रहा है! मेहनतकश लोगों को मशीनों से घेरने के बाद सुबह शाम टहल कर कैलोरी बर्न करने की सलाह दे रहा है!
इन सबके लिए राजनैतिक संरक्षण बहुत जरुरी है! क्योंकि कॉर्पोरेट और पॉलिटिक्स एक दूसरे के पूरक हैं! राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए, खुद को स्थापित करने के लिए अरबों में चन्दा चाहिए होता है! …और ये सारा चन्दा कॉर्पोरेट देता है!
चंदा नहीं देगा तो इसको सस्ती जमीनें नहीं मिलेगी! फैक्टरियों के लिए तमाम क्लियरेंस चाहिए होते हैं, वे नहीं मिलेंगे! ….और सस्ते मजदूरों की बात मैंने ऊपर कर दी है!
ऐसा नहीं करेगा तो कॉर्पोरेट का एक अदद हेलमेट तक नहीं बिकेगा!
…तो अब सवाल उठता है कि इतनी बड़ी और बेहिसाब रकम आखिर जुटती कैसे है?
इसके लिए पॉलिटिक्स और कॉरपोरेट दोनों तिकड़म लगाते हैं! एक उदाहरण से आपको समझाता हूँ!
सीजन में कॉर्पोरेट और सरकार – दोनों अपने किसानों से कौड़ियों के भाव प्याज ख़रीदते हैं! सरकार एक बड़े हिस्से का (करोड़ों टन का) बफर स्टॉक बना देती है और कॉरपोरेट अपने हिस्से को स्टोर कर लेता है!
फिर नॉन सीजन में सरकार ने अपने हिस्से के बफर स्टॉक को गोदामों में ही सड़ा देती है, जिससे देश में प्याज की भारी किल्लत हो जाती है! …और कॉर्पोरेट को इशारा कर दिया कि अब तुम अपना प्याज मनमाने दामों पर बेचो!
लोग ज्यादा उछल कूद करते हैं तो सरकार अपने कुछ कार्यकर्ताओं को कॉर्पोरेट के हिस्से का कुछ प्याज दिलवा देती है जिसे वे मार्किट रेट से थोड़े सस्ते में बेचते हैं! लोग भी खुस हो जाते हैं कि चलो कोई तो है जो हमारे बारे में सोच रहा है! जबकि वो अभी भी चार गुना दाम देकर आया है!
यही कॉर्पोरेट अब एक महामारी लेकर आया है! राजनीति में शामिल लोगों की मदद से यह आम लोगों में इसका भय पैदा कर रहा है और सामान बेच रहा है!
मास्क, सेनेटाइजर, वालपेन्ट, गद्दे, रजाई, कंबल, साबुन, शैम्पू, चप्पल, घडी…सबको Anti-COVID बताकर बेच रहा है! इसका हर डिब्बाबंद प्रोडक्ट अचानक से इम्युनिटी बूस्टर बन गया है!
कल यही कॉर्पोरेट वैक्सीन लेकर आएगा और हेलमेट की तरह यही राजनीतिक जमात एक कानून बनायेगी कि सबको घोंपवाना अनिवार्य है! वरना चालान कटेगा!
आप ज्यादा चूं चपड़ नहीं कर पाएंगे! क्योंकि आप अकर्मण्य हो चुके हैं! कॉर्पोरेट ने आपके हाथों का बल चूस लिया है! आपको मशीनों में उलझाकर इसने आपकी इम्युनिटी बर्बाद कर दी है! मजबूरन आपको वैक्सीन लगवानी पड़ेगी! …वो भी खुद के पैसे से!
बराक ओबामा अपनी किताब में इन्ही भारतीय कॉर्पोरेट घरानों की बात कर रहे हैं!
वरना जिस देश में एक महामारी सवा लाख लोगों को लील गयी हो, उस देश के नागरिकों को “लव जिहाद” के नुकसान नही समझाए जाने चाहिए!
साभार- कपिल देव