स्विट्जरलैंड – नाम सुनते ही दिमाग में खूबसूरत दिलफरेब सफेद घाटियां आती हैं, जो फिल्मों से लेकर किस्सों तक हर जगह दिलकश तस्वीर पेश करती है, लेकिन अब ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) का काला साया स्विट्जरलैंड के सफेद मैदानों पर पड़ गया है। अगर इसे नहीं रोका गया तो इस सदी के आखिर तक स्विट्जरलैंड (Switzerland) का सफेद मैदान सिर्फ परियों की कहानियों में ही रह जायेगा। ये कोई काल्पनिक खतरा नहीं है।
अब ग्लेशियर इतनी तेजी से पिघल रहे हैं कि पहली बार वहां काले पहाड़ दिखायी दे रहे हैं। जहां सैकड़ों मीटर बर्फ जमती थी, वहां पत्थर हैं। ये आल्प्स पर्वत श्रृंखला (Alps Mountain Range) है, जिसका 80 फीसदी स्विट्जरलैंड में है, इसे यूनेस्को (UNESCO) की विश्व धरोहर का दर्जा हासिल है। स्विट्जरलैंड की ये पहचान तेजी से पिघल रही है।
इस साल भीषण गर्मी ने यूरोप (Europe) को बेहाल कर दिया है। जंगल की आग और तापमान ने पूरे यूरोप में में ऐसी तबाही मचायी कि जमीन सूख गयी और पहाड़ों पर कभी न पिघलने वाली बर्फ टूटने लगी। स्विट्ज़रलैंड के ग्लेशियर पिघलने का रिकॉर्ड बना रहे हैं।
स्विट्जरलैंड के ग्लेशियर पिछले एक साल में 6 फीसदी की दर से पिघले हैं। जब ग्लेशियरों के पिघलने की दर को रिकॉर्ड करना लगभग एक सदी पहले शुरू हुआ था, तब ये ग्लेशियर एक साल में इतनी तेजी से पहले कभी नहीं पिघले थे। इससे पहले साल 2003 में स्विट्जरलैंड के ग्लेशियर एक साल में 3.8 फीसदी पिघल चुके थे। और इस साल ये दर लगभग दोगुनी हो गयी है।
ग्लोबल वार्मिंग के असर से धरती के हर हिस्से में ग्लेशियर पिघल रहे हैं। लेकिन स्विट्जरलैंड में ये इतनी तेजी से हो रहा है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो अगली सदी में स्विट्जरलैंड में सिर्फ नाम भरे के ही ग्लेशियर रह जायेगें।
1930 के दशक की शुरूआत से स्विट्जरलैंड के 1400 ग्लेशियर आधे से ज्यादा सिकुड़ चुके हैं। साल 2016 के बाद से 6 सालों में स्विट्जरलैंड के 12% ग्लेशियर गायब हो चुके हैं। अगर इसी रफ्तार से ग्लेशियर पिघलते रहे तो साल 2100 तक स्विट्जरलैंड के 80 फीसदी ग्लेशियर पिघल चुके होगें।
स्विट्जरलैंड में आल्प्स की पहाड़ियों पर दिन की चौगुनी रफ्तार से बर्फ टूटते देख वैज्ञानिकों की उम्मीदें भी टूट रही हैं। पिछले हिमयुग के अवशेष यानि दुनिया के ज़्यादातर ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के सामने घुटने टेक रहे हैं।
स्विट्जरलैंड में पिघल रहे ये ग्लेशियर न सिर्फ वैज्ञानिकों को परेशान कर रहे हैं। बल्कि लोगों को इस बात का भी डर सता रहा है कि ग्लेशियर नहीं होंगे तो उनका क्या होगा? क्योंकि स्विट्ज़रलैंड की अर्थव्यवस्था स्कीइंग और पर्यटन जैसे खेलों पर ज़्यादा निर्भर करती है। ग्लेशियर नहीं होंगे तो स्कीइंग और पर्यटन भी नहीं होगा… बर्फ की जगह इन पथरीली सड़कों को देखने के लिये कौन स्विट्जरलैंड आयेगा?
ग्लेशियर नदियों के प्राकृतिक स्रोत हैं। नदियों का वजूद इन्हीं ग्लेशियर से आता है। अगर ग्लेशियर न होते तो नदियाँ न होतीं। और सच्चाई ये है कि ग्लोबल वार्मिंग के असर से ग्लेशियर खत्म हो रहे हैं। और ये सिलसिला आज से नहीं चल रहा है। ग्लेशियरों का पिघलना कोई नई बात नहीं है। लेकिन ग्लेशियरों का न जमना चिंता का मसला है।
विश्व का 10 फीसदी हिस्सा बर्फ से ढका है। जो तेजी से गायब होता जा रहा है। 1990 के दशक में हर साल औसतन 76 ट्रिलियन टन बर्फ पृथ्वी की सतह से पिघल रही थी। साल 2021 तक आते-आते बर्फ के पिघलने की ये रफ्तार 1 लाख 20 हजार करोड़ टन सालाना हो गयी। साल 1994 से 2017 के दौरान धरती से 28 लाख करोड़ टन बर्फ पिघल चुकी है और इन 23 सालों में इससे पानी बना।
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा (NASA) के मुताबिक पिछले 100 सालों में समुद्र का स्तर 6 से 8 इंच बढ़ा है। साल 2050 तक विश्व लगभग सभी समुद्रों का जलस्तर अब से 10 से 12 इंच बढ़ जायेगा और इसका असर ये होगा कि समुद्र का पानी दुनिया के कम से कम 36 बड़े शहरों में घुसपैठ करेगा। करीब 23 करोड़ लोगों इस वज़ह विस्थापित होना पड़ेगा। इन शहरों में जापान की राजधानी टोक्यो, भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई, अमेरिका का न्यूयॉर्क शहर, तुर्की का इस्तांबुल (Turkey’s Istanbul), कोलकाता, ढाका, लंदन, बैंकॉक, मियामी, सिडनी और यहां तक कि दुबई (Dubai) जैसे बड़े और विकसित शहर शामिल हैं।
वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि अगर अंटार्कटिका, ग्रीनलैंड (Greenland) और दुनिया में मौजूद सभी ग्लेशियरों की बर्फ पिघल जाये तो समुद्र का जल स्तर 230 फीट बढ़ जायेगा और किनारे के पास बसे सभी देश और शहर पानी में डूब जायेगें।
स्विट्जरलैंड समेत दुनिया भर में जिस तरह से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, ये खतरे की घंटी है, जिसे नजरअंदाज किया गया तो भविष्य में पूरी मानव जाति का सफाया होना तय है।