Delhi Election 2020: भाजपा की पाँच भूल, जिसकी वज़ह से झाड़ू की धूल में उड़ गया फूल

नई दिल्लीः अब केजरीवाल (Kejriwal) भी शीला दीक्षित (Sheela Dixit) की तरह तीसरी बार दिल्ली के सिंहासन पर बैठेगें। मनोज तिवारी लगातार जीत का दावा करते रहे लेकिन भाजपा कार्यकर्ताओं के चेहरे से मायूसी हटने का नाम नहीं ले रही है।

पिछले लोकसभा सभा चुनावों से इस बार भाजपा के सीटों और वोट प्रतिशत में भले ही बढ़ोत्तरी हुई हो, लेकिन जिस ताकत के साथ भाजपा चुनावी मैदान में उतरी थी, उसके मुताबिक वोट हासिल करने में नाकामयाब रही। अब भाजपा कार्यकारिणी हार की समीक्षा करेगी। इसी के मद्देनज़र हम भी भाजपा के हार के कुछ कारणों पर चर्चा करेगें।

कांग्रेस का आत्मसमर्पण और भाजपा में सीएम चेहरे का अभाव
कांग्रेस ने इस चुनावी समर में, वो ताकत नहीं झोंकी जिसकी उम्मीद उससे की जा रही थी। कहीं ना कहीं चुनावी प्रचार के दौरान कार्यकर्ताओं और स्टार प्रचारकों में ज़ोश की कमी दिखायी दी। दूसरी तरफ आप ने भाजपा के नेतृत्व पर लगातार सवाल उठाये कि, भाजपा का सीएम दावेदार कौन है। इसका सीधा फायदा केजरीवाल को मिला। कहीं ना कहीं कांग्रेस के वोट शिफ्ट होकर आप की झोली में आ गिरे। कांग्रेस समर्थित मुस्लिम वोट बैंक की इसमें खासी भूमिका रही।

जनमानस के मुद्दों पर पकड़ बनाये रखी
केजरीवाल ने भाजपा वाली गलती नहीं की। भाजपा राष्ट्रवाद से जुड़े भावनात्मक मुद्दों को लेकर मैदान में उतरी थी, जिससे दिल्ली का आम आदमी खुद को कनेक्ट नहीं कर पाया। लेकिन ये मुद्दे लोकसभा चुनावों के लिहाज़ से फायदेमंद हो सकते थे, लेकिन विधानसभा चुनावों के हिस्सा से इनमें वो पॉलिटिकल माइलेज नहीं थी, जिसकी उम्मीद भाजपा का शीर्ष नेतृत्व कर रहा था। दूसरी ओर केजरीवाल ने उन मुद्दों पर पकड़ बनाये रखी, जिसने वोटों को मोबालाइज़ करने में मदद की। जैसे मुफ्त पानी, मुफ्त बिजली, महिलाओं को मुफ्त यात्रा, मोहल्ला क्लीनिक, बेहतरीन शिक्षा व्यवस्था।

संयमित भाषा और सधा हुआ प्रचार
जहाँ एक ओर भाजपा प्रचार अभियान काफी आक्रामक रहा और इसी लहज़े में भाजपायी प्रचारकों ने दिल्ली में कड़ी भाषा का इस्तेमाल किया। प्रवेश वर्मा, अनुराग ठाकुर, गिरिराज सिंह और कपिल मिश्रा की बयानबाज़ियों ने कहीं ना कहीं जनता के बीच गलत छवि गढ़ने का काम किया। जिस तरह से केजरीवाल पर आरोप-प्रत्यारोपों का दौर एकाएक आया, उससे उन्हें दिल्ली की जनता की सहानुभूति के रूप में वोट मिले। पूरे प्रचार अभियान के दौरान केजरीवाल ने सभ्य भाषा और मार्यदित शब्दों को इस्तेमाल किया। और सधे हुए ढंग से जनता के सामने बने रहे। आंतकवादी कहने पर खुद को दिल्ली की जनता का बेटा कहकर इमोशनल कनेक्शन बनाये रखा। साथ पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह पर किसी तरह की बयानबाज़ी करने से बचते दिखे।

भाजपा का ओवर कॉन्फिडेंस ले डूबा
बीजेपी को लग रहा था कि वह लोकसभा चुनाव की ही तर्ज पर बड़ी जीत हासिल करेगी। तीन तलाक़ पर क़ानून बनने, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने, राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले और नागरिकता संशोधन क़ानून के बाद बीजेपी के नेताओं को लगा कि इसका उसे फ़ायदा मिलेगा। दिल्ली चुनावों से ठीक पहले राम मंदिर ट्रस्ट की घोषणा करना भी इसी कवायद का हिस्सा था। जिससे भाजपा हिन्दू वोटों को धुव्रीकरण करना चाहती थी, लेकिन उसके सारे राजनीतिक प्रयोग नाकामयाब रहे।

भाजपायी रूख़ गलत मुद्दों की ओर रहा
भाजपा ने शाहीनबाग (Shaheen Bagh) एनआरसी (NRC) और एनपीआर (NPR) मुद्दों को उठाया। जिससे कट्टर हिन्दुत्व की हवा बनाने की कवायद हुई, लेकिन यहाँ से भाजपा को हिन्दू वोट बैंक का खास लाभ नहीं मिल पाया। इस बात की तस्दीक अमित शाह के उस बयान से होती है, जिसमें उन्होनें कहा था कि, इतनी जोर से ईवीएम का बटन दबाएं कि शाहीन बाग में विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों का झटका लगे। रही सही कसर अनुराग ठाकुर (Anurag Thakur), गिरिराज सिंह (Giriraj Singh) और कपिल मिश्रा (Kapil Mishra) ने कर दी। भाजपा द्वारा उठाये गये मुद्दों से दिल्ली की जनता का जुड़ाव ना के बराबर रहा। जिसकी वज़ह से मतदाताओं के बीच एक गलत संदेश गया और साथ ही गलत छवि बनी।

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