Editorial: इंसान ने जब सभ्य होने की ओर अपने कदम बढ़ाये तो दुनिया के अलग-अलग कोने में सभ्यताओं की कोंपले फूटी। ज्ञान का फल जैसे ही आदम के हलक़ में उतरा तो मनुष्यता ने तार्किकता की ओर पहला कदम बढ़ाया। कुछ बुनियादी चीज़ों ने आदमजातों के वजूद को और रफ्तार दी। आग ने उसे गर्माहट दी, और खाने ने ताकत लेकिन अभी भी कुछ खालीपन था। कबीलों को चलाने के लिए अब उसे व्यवस्था की जरूरत थी, वर्चस्व और नेतृत्व के भाव अब उसे अच्छे से समझ में आने लगे थे। इंसान इस बात से वाकिफ था कोई प्रोमेथियस नहीं आयेगा। जातीय अस्मिताओं और सह अस्तित्व को कायम रखने के लिए समाज में शासन प्रणालियों की संभावनायें तलाशी गयी। राजशाही, सामन्तवाद, लोकतन्त्र जैसी रचनायें सामने आयी।
इन सबमें लोकतन्त्र को मानव-मन ने सहजता से स्वीकार किया। यूनान में छोटे और स्वतन्त्र राज्य और भारत में गणराज्यों और जनपदों की परम्परा लोकतन्त्र की प्रयोगशाला रहे है। शासन की स्थापित मान्यताओं के बीच से समाजवाद अंकुरित हुआ। लोकतन्त्र और समाजवाद के बीच साझा रिश्ता ये रहे है कि दोनों ने ही प्रगतिशीलता और उदारवाद के लिए दरवाज़े हमेशा खुले रखे। कुछ सत्ता प्रतिष्ठानों ने समाजवाद के दीर्घकालीन प्रयोग अपने हितों के लिए किये। ऐसे सिय़ासी नायकों ने कुछ देशों को विघटन के कगार पर ला दिया। शुरूआती दौर में समाजवाद का पहला शिकार सामन्तवाद बना।समाजवाद ऐसी विचारधारा जिसका नाम लेते ही कई चेहरे और घटनायें सामने आयेंगी। यहाँ हम उसका जिक्र नहीं करेगें।
सूत्र साधारण-सा है, समाज व्यवस्था बनाने और लागू करने में सर्वोपरि होगा। लोगों को उनकी क्षमता, योग्यता और कौशल के मुताबिक काम मिलेगा। ज़्यादा वैचारिक गहरायी में ना जाते हुए। ये छोटी सी काल्पनिक कहानी समाजवाद (socialism) के बारे में बहुत कुछ कहती है। जोसेफ स्टालिन, विंस्टन चर्चिल और फ्रैंकलिन डेलॉनो रूज़वेल्ट वैचारिक मतभेद भुलाकर सारे सिक्य़ोरिटी प्रोटोकॉल को धता बताते हुए घूमने के लिए निकल जाते है। कार की स्पीड़ और खाली रोड़ के चलते वो काफी दूर निकल जाते है। सुनसान इलाके से गुजरते हुए इनकी कार के पीछे कुछ डाकू अपनी गाड़ी लगा देते है। डाकुओं की मंशा है कि, इन लोगों का अपहरण कर मोटी फिरौती वसूली जाये। इधर ये तीनों सोचते है कि हमारे साथ गार्ड्स नहीं है।
अगर हमें कुछ हो जाता है तो, जगहंसाई होगी। तीनों इस उधेड़बुन में लगे होते है। इतने में ही रूज़वेल्ट एक कागज़ पर लिखते है कि, “अगर तुम (डाकू) लोग हमारे पीछे आना छोड़ दोगे, तो मैं तुम्हें 5 मिलियन डॉलर दूंगा ” ये लिखकर रूज़वेल्ट कागज़ उड़ा देते है। पीछे आ रहे डाकू उड़ता हुआ कागज़ लपककर उस पर लिखा संदेश पढ़ते है। फिर भी पीछा करना नहीं छोड़ते है। इसी कवायद को चर्चिल दोहराते है डाकुओं को 5 मिलियन पाउंड और यॉर्कशायर में 40 बीघा जमीन देने की पेशकश करते हुए, डाकुओं की ओर कागज़ उड़ाते है। काग़ज पर लिखा संदेश पढ़कर डाकू और तेजी से उनकी ओर बढ़ते है। अब बारी स्टालिन की थी।
वो कागज़ पर कुछ लिखकर डाकुओं की ओर उड़ाते है। जैसे ही डाकू लपककर वो कागज़ पढ़ते है। वो तुरन्त अपना रास्ता बदलकर वापस उसी ओर लौट जाते है, जहाँ से वो आये होते है। ये देखकर चर्चिल और रूज़वेल्ट दोनों सुन्न रह जाते है। आखिर स्टालिन ने ऐसा क्या लिख दिया कि डाकू एक झटके में लौट गये। रूज़वेल्ट काफी हिम्मत जुटाकर स्टालिन से पूछते “आखिर तुमने उस कागज़ पर ऐसा क्या मंत्र लिख दिया, जिससे वो डाकू वापस भाग गये।”
स्टालिन गजब की मुस्कान चेहरे बिखरते हुए कहते है “मैनें उस कागज़ पर लिखा था, हमारे राहें समाजवाद की ओर जाती है” कुल जमा ये है कि,समाजवाद का जनवादी चेहरा उस तबके को भी समझ में आता है, जो हाशिये पर है। कुछ समाजवादी नायकों की गलती की वज़ह से इसकी मज़म्मत की जाती है। पूंजीवाद के क्रूर चेहरे के सामने समाजवाद उम्मीदों की लौ जलाता है।
मजदूर किसानों और सफेदपोश नौकरी करने वालों को ये विश्वास दिलाता है कि, उनकी मेहनत उन्हें वाज़िब दाम दिलवायेगी, दमन और हकमारी तो भूल ही जाओ। इसे कुछ इस तरह से समझिये। रोहित एक बहुत बड़ी शिपिंग कम्पनी में काम करता है। एक दिन वो ऑफिस पहुँचता है और देखता है कि, उसका बॉस अपनी नयी बुगाती कार के साथ सेल्फी ले रहा होता है। रोहित अपने बॉस के पास पहुँचता है और कहता है “अरे वाह क्या लाजवाब़ कार है”
जव़ाब में उसका बॉस कहता है “अगर तुम सारा साल जी-तोड़ मेहनत करोगे, वक्त पर टारगेट अचीव करोगे, क्लाइंट को अच्छे से डील करोगे तो अगले साल मेरे पास इससे भी अच्छी कार होगी” ये है पूंजीवादी तस्वीर। अगर यहीं हालात समाजवाद में होते तो रोहित के बॉस का जवाब कुछ यूं होता “अगर तुम सारा साल जी-तोड़ मेहनत करोगे, वक्त पर टारगेट अचीव करोगे, क्लाइंट को अच्छे से डील करोगे तो अगले साल इससे भी अच्छी कार तुम्हारे पास होगी” ये होती है समाजवादी परिकल्पना। हमारा देश लोकतांत्रिक समाजवाद की पैरवी करता है।
कुछ तथाकथित समाजवादी झंडाबरदार लोग पैदा हो गये है, जिनकी वज़ह से इस विचारधारा को जमकर गरियाया जाता है। अगर तटस्थ नजरिये से देखा जाये तो समाजवादी मॉडल को फेल करने में इसके नीति नियन्ताओं का हाथ रहा है। विश्व के कुछ देशों में समाजवाद की सुगबुगाहट होती दिख रही है। ऐसे में एक सवाल उभरता है, तेजी से उभरती वैश्विक हलचल के बीच क्या समाजवाद आखिरी उम्मीद है ?