अभी महामारी का जो आलम है और उससे अपनों और अपने देशवासियों के बिछड़ने का जो अटूट सिलसिला चल रहा है, उसके बीच चुनावी (Election) हार जीत पर चर्चा करना मन में एक गहरा अपराध बोध पैदा करता है लेकिन हमारी आज की तबाही की जड़ें गुजरे वर्षों में आए चुनाव नतीजों में ही छिपी हैं। इसलिए आज जो भी संकेत मिले, उसके मतलब को हमें जरूर समझना होगा।
बेशक, पश्चिम बंगाल का नतीजा राहत देने वाला है लेकिन यह किसी संतोष या उम्मीद का कारण हो सकता है, ऐसा मानने की कोई ठोस वजह नहीं है। इसलिए कि पश्चिम बंगाल में पूरा खेल उसी पिच पर खेला गया, जो BJP ने बिछायी थी। उस पर हुए ध्रुवीकरण से पूरा मामला द्विपक्षीय बना। इसका असली नुकसान लेफ्ट- कांग्रेस गठजोड़ को हुआ है।
TMC की इस जीत में मुस्लिम वोटों का पहलू अहम है। इसलिए जिन राज्यों में मुस्लिम वोटों की संख्या पश्चिम बंगाल जितनी नहीं है, वहां आमने-सामने के ऐसे ध्रुवीकरण के बावजूद BJP के खिलाफ ऐसे नतीजे की आशा नहीं की जा सकती बल्कि इस परिणाम ने भी इस लगभग राष्ट्रीय ट्रेंड की पुष्टि की है कि, हर राज्य में BJP के पक्ष में एक तिहाई से ज्यादा मतदाताओं की मजबूत गोलबंदी कायम है। वोटों के बंटने की किसी आम स्थिति में इतने वोट चुनाव जीतने के लिए काफी होते रहे हैं।
ये जरूर है कि TMC ने यह जीत असमान धरातल के बावजूद दर्ज की है। इसलिए यह खासा महत्त्वपूर्ण है। भारत में अब चुनाव ऐसे ही माहौल में हो रहा है, जब निर्वाचन आयोग जैसी संस्था BJP के दफ्तर के रूप में काम करती दिखती है। इसके साथ पैसा- मीडिया- नफरत के एजेंडे का ध्रुवीकरण (Agenda polarization) विपक्ष के सामने होता है।
बड़े फ़लक पर देखें, तो विपक्ष वैसे भी इस बड़ी गिरोहबंदी के मुकाबले के लिए बिना की वैकल्पिक एजेंडे के खड़ा होता है। राजनीति की कोई नई दृष्टि उसने गुजरे सात वर्षों में विकसित नहीं की है। इसका उसे परिणाम भुगतना पड़ रहा है।
ये परिणाम सबसे ज्यादा कांग्रेस को भुगतना पड़ रहा है, तो इसलिए कि आइडेंटिटी पॉलिटिक्स का भी बचा-खुचा सहारा उसके पास नहीं है, जो कुछ विपक्षी दलों के पास एक सीमित सीमा में मौजूद है। वैसे अब यह साफ है कि दक्षिणी राज्यों और पश्चिम बंगाल जैसे कुछ अपवादों को छोड़ कर कल्चर पॉलिटिक्स से BJP को हराना निकट भविष्य में मुश्किल बना हुआ है।
असम में कांग्रेस की हार ने एक फिर पैगाम दिया है कि कांग्रेस नीति और कार्यक्रम के स्तर पर अपना पुनर्आविष्कार किये बिना प्रासंगिक राजनीतिक ताकत नहीं बनी रह सकती। इस दिशा में सोचने का inclination राहुल गांधी ने जरूर दिखाया है, लेकिन वे अपनी पार्टी को इसके लिए प्रेरित कर पाए हैं, इसके कोई संकेत नहीं हैं।
राहुल गांधी ने हाल में दो अमेरिकी विश्वविद्यालयों के शिक्षकों/ छात्रों से बातचीत में दो अहम बातें कहीः 1- 1990 के दशक में जो नीतियां कारगर हुईं, वे अब नहीं होंगी. 2- सिर्फ चुनाव जीत कर RSS के प्रभाव का मुकाबला करना अब असंभव सा हो गया है।
लेकिन राहुल गांधी ने अभी तक ये नहीं बताया है कि 1990 के दशक की नीतियां अब कारगर नहीं होंगी, तो आखिर अब क्या कारगर होगा? इस विषय पर कांग्रेस में कोई सोच-विचार भी हो रहा है, इसके संकेत नहीं हैं बल्कि, पार्टी आज भी 1990 के दशक के नव-उदारवादी रास्ते में फंसी हुई है जबकि ‘वॉशिंगटन कॉन्सेंसस’ के जरिए दुनिया पर जिन देशों ने ये नीतियां थोपीं, अब खुद उनके यहां इसे अस्वीकार किया जाने लगा है।
सत्ता तंत्र और जन मानस पर RSS के प्रभाव के बारे में राहुल गांधी की बात काफी हद तक सच है। यह प्रभाव अब वर्चस्व बन चुका है। जो लोग Antonio Gramsci के Cultural Hegemony के सिद्धांत से वाकिफ हैं, वे राहुल गांधी के इस आकलन को बेहतर समझ सकते हैं।
इस वर्चस्व को कैसे तोड़ा जाए, इसके सूत्र गांधीजी से सीखे जा सकते हैं। भारत में अपने 30 साल के सार्वजनिक जीवन में गांधीजी ने ज्यादातर समय अपने सुधार कार्यक्रम और उसके लिए “Organic Intellectuals” की फौज खड़ी करने में लगाया। आज की लड़ाई में भी उसका कोई विकल्प नहीं है।
वर्तमान किसान आंदोलन ने रोजी-रोटी के एक अहम मुद्दे को राष्ट्रीय चर्चा में प्रासंगिक बनाया है। उसने और उसके पहले anti-CAA protests से BJP की सोच और political economy का एंटी-थीसीसी तैयार होने की संभावना बनी। लेकिन यह विमर्श अभी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को प्रभावित करने जितना असरदार नहीं हो सका है।
इस चुनाव में अगर रोजी-रोटी के मुद्दे पर कोई सीमित वैकल्पिक विश्वसनीय विकल्प था, तो वह केरल में लेफ्ट फ्रंट ने पेश किया था। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब महामारी लोगों की मुख्य चिंता है, तब हेल्थ केयर (Health care) पर उसके अलग नजरिये ने लोगों को आकर्षित किया। यह उसके सत्ता में लौटने का मुख्य सूत्र बना। एक लिहाज से वहां ये करना आसान था, क्योंकि RSS का कल्चर वॉर केरल या तमिलनाडु में अभी उत्तर, पूर्व और पश्चिम भारत जैसा ताकतवर नहीं है।
कुल निष्कर्ष यह है कि सामने आये चुनावी नतीजों ने BJP के पसरते पांव और उससे भी ज्यादा उसके मजबूत होते वैचारिक वर्चस्व की पुष्टि की है। इसकी तुलना में उसे लगा सियासी झटका छोटा है। अगर फिर भी यह बड़ा महसूस होता है, तो सिर्फ इसलिए खुद BJP ने चुनावी pitch को बहुत high कर दिया था।
साभार – सत्येंद्र रंजन (वरिष्ठ पत्रकार)