Euro Cup Final मैच की स्क्रिप्ट और दोनों टीमों की स्ट्रैजी

यूरो कप फ़ाइनल (Euro Cup Final) में खेल शुरू होते ही इटली ने ख़ुद को एक गोल से पीछे पाया था। इंग्लैंड के उन्मादी और उद्दंड समर्थक हर्षातिरेक से झूम उठे थे। ठीक बात है। लेकिन ये भी तो पूछिये कि गोल आया कहाँ से? गोल ऐसे आया कि खेल के पहले ही मिनट में इंग्लैंड के डिफ़ेंडर हैरी मग्वायर ने अपनी लापरवाही से एक कॉर्नर दे दिया। कॉर्नर लेने इटली की टीम आगे बढ़ी। ये एक परफ़ेक्ट काउंटर-अटैक सिचुएशन होती है। इसी काउंटर-अटैक पर इंग्लैंड ने गोल किया। लेकिन ये गेम-प्लान का हिस्सा नहीं था- गैरेथ साउथगेट और रोबेर्तो मैन्चीनी (Gareth Southgate and Roberto Mancini) दोनों ही इसकी अपेक्षा नहीं कर रहे थे। अगर ये गोल हाफ़-टाइम से ऐन पहले या उसके बाद होता तो बात दूसरी थी। लेकिन खेल के दूसरे ही मिनट में गोल होने का मतलब है- अभी पूरा खेल बाक़ी है। और यक़ीन मानिये- फ़ुटबॉल में 90 मिनट अनंतकाल से कम नहीं होते।

शुरुआती दसेक मिनटों के बाद जैसे ही खेल स्थिर हुआ, इटली ने कथानक के सूत्र अपने हाथों में ले लिये। ये अवश्यम्भावी था, क्योंकि अनुभव, तकनीक और प्रतिभा के स्तर पर इटली की टीम हर मायने में इंग्लैंड से श्रेष्ठ थी। मिडफ़ील्ड में इंग्लैंड (ट्रिपियर, राइस, फ़िलिप्स) के पास इटली (वेरात्ती, जोर्जिनियो, बारेल्ला) के लिए कोई जवाब नहीं था। खेल शुरू होने से पहले जोज़े मरीनियो ने कहा था कि इटली के लेजेंडरी डिफ़ेंडर-द्वय कीलियनी और बनूची से बचने के लिए इंग्लैंड के स्ट्राइकर हैरी केन डीप में खेलेंगे। वैसा ही हुआ भी, लेकिन इससे वो निष्प्रभावी भी हो गए।

वस्तुत: रहीम स्टर्लिंग और हैरी केन ने रोल-रिवर्स कर लिये थे। स्टर्लिंग 10 नम्बर की जर्सी पहने हुए थे, लेकिन 9 नम्बर (सेंटर फ़ॉरवर्ड) की तरह खेले, हैरी केन 9 नम्बर की जर्सी पहने हुए थे, लेकिन 10 नम्बर (अटैकिंग मिडफ़ील्डर) की तरह खेले, अलबत्ता मिडफ़ील्ड से उन्हें रचनात्मक-रसद नहीं मिली।

दूसरे हाफ़ में तो इटली का बॉल-पज़ेशन 70 फ़ीसदी को पार कर गया। इतालवी खिलाड़ी चाहते तो गेंद को अपने साथ घर ले जाते और मेज़ पर गुलदान के साथ सजा देते, क्योंकि उन्होंने इस पर अपनी मिल्कियत का दावा कर दिया था। इंग्लैंड अपने हाफ़ में बंधक बनकर रह गया। उसकी अटैकिंग-क्षमता की कलई खुल गई। कहीं ना कहीं ये भी सवाल उठा कि क्या ये टीम फ़ाइनल खेलने के योग्य थी? अगर बेल्जियम, स्पेन या डेनमार्क की टीमें फ़ाइनल में होतीं तो क्या और कड़ा मुक़ाबला देखने को मिलता?

फ़ुटबॉल में दो तरह की प्रतिस्पर्धाएँ होती हैं- लीग और कप। लीग फ़ुटबॉल को मैं शास्त्रीय शैली समझता हूँ, जिसमें 20 टीमें एक-दूसरे से दो-दो मैच खेलती हैं- होम और अवे। और इन 38 मैचों के बाद विजेता का निर्णय होता है। लीग में कभी कोई संयोग या भाग्य से विजेता नहीं बन सकता। वहीं कप-फ़ॉर्मेट में टीमें एक-दूसरे से नहीं खेलतीं, किन्हीं ग्रुप्स में खेलती हैं, जहाँ से उन्हें नॉकआउट राउंड्स के लिए क्वालिफ़ाई करना होता है। नॉकआउट में अगर वो चाहें तो टैक्टिकल-खेल दिखाकर गेम को पेनल्टी शूटआउट तक खींच ले जा सकती हैं और अपने भाग्य की आज़माइश कर सकती हैं। बहुत कुछ इस पर भी निर्भर करता है कि आपके ग्रुप में कौन-सी टीमें हैं या नॉकआउट राउंड में आपका सामना किससे हुआ है।

यही कारण है कि कप-फ़ॉर्मेट में बहुधा कोई टीम प्रतिस्पर्धा की सर्वश्रेष्ठ टीम नहीं होने के बावजूद ख़िताब जीत सकती है या फ़ाइनल तक पहुँच सकती है- जैसे कि स्वयं इटली की टीम, जो 1982 और 2006 में सर्वश्रेष्ठ टीम नहीं होने के बावजूद विश्व-कप जीती थी। तब क्रमश: ब्राज़ील और फ्रांस की टीमें बेहतर भी थीं और फ़ैन्स-फ़ेवरेट भी। किंतु इस यूरो कप में इटली की टीम निश्चय ही सबसे अच्छी टीम साबित हुई है।

रोबेर्तो मैन्चीनी ने पूरे टूर्नामेंट में 4-3-3 का फ्री-फ़्लोइंग फ़ॉर्मेशन खिलाया और इतालवी-संस्कृति के विपरीत अटैकिंग फ़ुटबॉल खेली। इटली एक से ज़्यादा गोल कर सकती थी। लेफ़्ट विंग में खेल रहे फ़ेदेरीको कीएज़ा ने इंग्लैंड की रक्षापंक्ति को एक से अधिक बार भेद दिया था। सनद रहे कि कीएज़ा बीते सीज़न में यूवेन्तस के सबसे बेहतरीन फ़ॉरवर्ड थे।

ये दुर्भाग्य ही था कि यूरो कप फ़ाइनल का निर्णय पेनल्टी शूटआउट से हुआ, क्योंकि इटली गेम-टाइम में जीतने की हक़दार थी। पेनल्टी शूटआउट एक जुए की तरह होता है। इसमें फ़ुटबॉलिंग-सौंदर्यबोध (Football-Aesthetic) की क्षति होती है और सामूहिक प्रयास क्षीण हो जाता है। बात वैयक्तिक-गुणों और संयोगों पर निर्भर हो जाती है। शूटआउट में कोई भी गोल कर सकता है और कोई भी पेनल्टी चूक सकता है, इससे खेल की उत्तम शैली, प्रतिभा, रणनीति का निर्णय नहीं होता। लेकिन नॉकआउट मुक़ाबले परिणामों के भूखे होते हैं। लीग फ़ॉर्मेट में टीमें ऐसे मौक़ों पर उचित ही पॉइंट शेयर करती हैं।

इटली की ये टीम विगत 34 मैचों से अविजित है। साल 2018 के विश्व-कप के लिए क्वालिफ़ाई नहीं कर पाने से लेकर अब यूरो कप जीतने तक इस टीम ने लम्बा सफ़र तय किया है। ये खेल के लिए भला है कि सेरी-आ (इतालवी लीग) प्रासंगिक बनी रहे और इंग्लिश प्रीमियर लीग और ला लीगा (स्पैनिश लीग) का वर्चस्व घटे।

इटली के कप्तान जिओर्जियो कीलियनी ने अपना पहला अंतरराष्ट्रीय टाइटिल जीता है। कीलियनी इस गेम के लेजेंड हैं, अगर वो बिना किसी टाइटिल के रुख़सत होते तो भला नहीं होता। जोज़े मरीनियो ने उचित ही कहा था कि कीलियनी और बनूची को हॉर्वर्ड में जाकर सेंट्रल-डिफ़ेंडिंग की कला पर लेक्चर देने चाहिये। इन्होंने इस हुनर में महारत हासिल कर ली है। फ़ुटबॉल में उम्दा डिफ़ेंडिंग कम मायने नहीं रखती। एक डिफ़ेंसिव-ब्लॉक एक गोल जितना ही महत्वपूर्ण होता है, भले वो उतना दर्शनीय ना हो।

साभार - सुशोभित

Leave a comment

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More