न्यूज़ डेस्क (शौर्य यादव): आज न्यूज़ पोर्टल द प्रिन्ट (News portal The Print) में एक दिलचस्प आर्टिकल छपा। प्रिया कृष्णाकुट्टी और उन्नति शर्मा (Priya Krishnakutty and Unnati Sharma) द्वारा लिखे इस लेख में बीते रविवार रात प्राइम टाइम स्लॉट (Prime time slot) में चलने वाली डिबेट्स और प्रोग्राम कॉन्टेंट (Program content) का हवाला दिया गया। लेख में बताया गया कि, Times Now की अथर खान ने भाजपा शासित कर्नाटक और यूपी में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोली और बताया कि, किस तरह कर्नाटक के अस्पतालों में सुअर घूम रहे है। यूपी के सरकारी अस्पतालों की छतें टपक रही है। वहीं Aaj Tak ने दिल्ली में हुई बरसात की तबाही पर कार्यक्रम चलाया। दूसरी ओर Republic TV के अर्णब गोस्वामी अपनी बनी बनायी परिपाटी से हटते हुए नेहरू-गांधी परिवार को बख्शा और बॉलीवुड में फैले भाई-भतीजावाद पर कार्यक्रम किया। कंगना रनौत का इंटरव्यूह लेकर सुशांत की आत्महत्या का मसला उठाया।
इसके साथ ही आर्टिकल में Mirror Now, NDTV, TV9 भारतवर्ष पर प्रसारित हुए कार्यक्रमों का भी हवाला दिया गया। कुल मिलाकर ये आर्टिकल प्रमुख नेशनल टेलीविजन पर प्रसारित हुए कार्यक्रमों का Content Analysis था। यहाँ तक तो सब ठीक है। लेकिन द प्रिन्ट ने इस आर्टिकल के बीच अपने पाठकों से एक अपील की। जिसमें लिखा था। हम अपने पाठकों के समय, विश्वास और सदस्यता के लिए बेहद आभारी हैं। आज के दौर में गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता महंगी है, जिसके लिए पाठकों की ओर धनराशि सहयोग (भुगतान) के बेहद जरूरत होती है। आपका (पाठकों का सहयोग) समर्थन हमारे काम और The Print के भविष्य को परिभाषित करेगा।
इस पूरे आर्टिकल में दो बेहद दिलचस्प बातें छुपी हुई है। रविवार रात तकरीबन सभी नेशनल टीवी चैनलों पर चले कंटेंट का एनालिसिस और उसके बीच द प्रिंट की ये अपील है। इसके सीधे तौर पर यहीं मायने निकाले जा सकते हैं कि, वास्तविक पत्रकारिता का धर्म (Religion of real journalism) द प्रिंट निभा रहा है। भारतीय मीडिया जगत में एक अलिखित-सा नियम (An unwritten rule in the Indian media world) चलता है। जिसके तहत कोई भी मीडिया संस्थान दूसरे मीडिया संस्थान के कंटेंट और उनकी संपादन नीतियों का आलोचना (Criticism of editorial policies) नहीं करेगा। पत्रकारिता और मीडिया जगत में बंधुत्व की ये भावना (Fraternity in the media world) निजी न्यूज़ चैनलों के आगमन के साथ ही शुरू हो गयी थी। लेकिन जिस तरह से द प्रिंट के आर्टिकल में नेशनल टेलीविजन पर चले कार्यक्रमों की चीर फाड़ की गयी है, उससे यह नियम भंग (Breach of rules) होता दिख रहा है। ऊपर से द प्रिन्ट की ये अपील। लबोलुआब ये निकलता दिख रहा है कि, अन्य मीडिया संस्थानों के प्रसारित कार्यक्रमों की तुलना में खुद को वास्तविक पत्रकारिता का ध्वज़वाहक (Flag bearer of real journalism) बताकर लोगों को सदस्यता के लिए प्रेरित कहां तक उचित है?
आज दौर में आम जनता खबरें सुनने से लेकर मीडिया संस्थान के संपादकीय रूझान (Editorial trend) से अच्छी तरह वाक़िफ है। आम नागरिक को ये अच्छे से पता है कि, कौन-सा मीडिया संस्थान सरकार के पक्ष में खड़ा और कौन सरकार की आलोचना करता है। आम जनता एंकर्स का चेहरा देखकर बता देती है कि, डिबेट्स में किसका पक्ष भारी रहेगा और आखिर में क्या निष्कर्ष निकलने वाला है। पूरे देश की जनता जानती है कि, पत्रकारिता धर्म नहीं विशुद्ध व्यवसाय है। जिसमें भारी निवेश होता है। ऐसे में टीवी चैनलों का राजनीतिक पार्टियों और उद्योगपतियों की ओर झुकाव आम बात है। एजेंडा और नैरेटिव आधारित भारतीय पत्रकारिता की हकीकत किसी से छिपी नहीं है। सब कुछ जानते हुए भी सभी मीडिया ऑर्गनाइजेशन संस्थानिक भातृत्व (Institutional Fraternity) की भावना का पालन करते है। लेकिन द प्रिन्ट का ये रूख़ सबकी सोच से चार कदम आगे है। यानि कि सभी मीडिया संस्थानों का कॉन्टेंट लफ्फाज़ी है (The content of all media institutions is rhetoric) और इन सबके बीच हम श्रेष्ठ है इसलिए हमें सब्सक्राइब करें (We are the best so subscribe to us)