नई दिल्ली (गंधर्विका वत्स): Ground Report: दिल्ली में लगे कूड़े के पहाड़ जो न सिर्फ शहर की खूबसूरती को खराब करते हैं बल्कि शर्म का बोझ भी उठाते हैं। सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने बिल्कुल सही कहा है कि कूड़े के इन ढेरों को शर्म के पहाड़ कहा गया है। हालाँकि इस बात पर चर्चा करने के बजाय कि ये पहाड़ आसपास के निवासियों का दम घोंट देते हैं, तो आइये इस पर नज़र डालें कि ये बाल कल्याण योजनाओं का दम कैसे घोंट देते हैं।
दिल्ली (Delhi) में कूड़े के ये पहाड़ बदकिस्मती से बाल श्रम के लिये ठिकाने बन गये हैं। अगर कोई भारत में बाल श्रम की गंभीर सच्चाई को देखना चाहता है तो उसे इन कूड़े के ढेरों पर जाना होगा जहां छोटे बच्चों को स्कूल बैग के बजाय अपने कंधों पर कूड़े की बोरियां ले जाते देखा जा सकता है। बाल अधिकारों के तहत शिक्षा प्रदान करने के लिये सरकार के प्रयासों और आवंटित फंड के बावजूद जब इन कूड़े के पहाड़ों में इन योजनाओं को लागू करने की बात आती है तो इन योजनाओं की असलियत महज कचरा बन जाती है। यहां तक कि सर्व शिक्षा अभियान, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ और पढ़ेगा हर बच्चा जैसी पहलों का भी इन कूड़े के ढेरों पर यही हश्र होता है।
ये कूड़े की बोरी ढ़ोने वाले ज्यादातर बच्चों ने कभी किसी स्कूल के अंदर का नजारा नहीं देखा है, फिर भी वो अपने इकट्ठा किये गये कूड़े का हिसाब-किताब रखने की कला में महारत हासिल कर चुके है।
इन कूड़े के पहाड़ों पर जैसे सैकड़ों बच्चे हैं, जिनकी उम्र 9 से 15 साल तक है। कई बच्चे अपना दिन कचरा इकट्ठा करके शुरू करते हैं और अपना दिनभर का कचरा बेचकर रात के खाने का इंतजाम करते है, इन बच्चे का जीवन इस कभी न ख़त्म होने वाले चक्र इसी चक्र के इर्द-गिर्द घूमता रहता है।
दिल्ली की भलस्वा लैंडफिल साइट (Bhalswa Landfill Site) पर जेसीबी मशीनों की मदद से कूड़े के पहाड़ों को समतल करने की पृष्ठभूमि के बीच, बाल श्रम की शर्मनाक सच्चाई सामने आती है। ये छोटे बच्ची कड़े मशक्कत से कूड़ा-कचरा छांटते हैं और अक्सर इसके नीचे वो दब भी जाते हैं। ये बच्चे अपने परिवार का पेट भरने के लिये रोजाना लगभग 10 किलोग्राम कचरा इकट्ठा करते हैं।
ये हैरत की बात हो सकती है, लेकिन अवैध होने के बावजूद इन लैंडफिल साइटों पर बाल श्रम (Child labour) खुलेआम चल रहा है। ऐसा लगता है कि एमसीडी और भलस्वा लैंडफिल साइट के जिम्मेदार अधिकारी इन बच्चों की ओर से की जाने वाली मुफ्त मजदूरी से मुनाफे मिलने के कारण आंखें मूंद लेते हैं। कबाड़ खरीदने और बेचने वाले ठेकेदारों को भी इस सिस्टम से काफी फायदा होता है।
कूड़े के पहाड़ एमसीडी (MCD) के हैं, लेकिन सवाल ये है कि कौन तय करता है कि पहाड़ पर कौन जायेगा और कौन नहीं? ये कौन तय करता है कि कूड़ा कौन इकट्ठा करेगा? अफसोस की बात है कि इन पहाड़ों में होने वाले बाल मजदूरी पर किसी का ध्यान नहीं जाता और इस पर ध्यान ही नहीं दिया जाता।
इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद हम सभी के मन में शर्म की भावना आनी चाहिये। बच्चे हमारे देश का भविष्य हैं और जब उन्हें शिक्षा के बजाय मजदूरी और कूड़ा बीनने के लिये मजबूर किया जाता है तो ये देश का अपमान बन जाता है। ये मुद्दा कानूनों और विनियमों को लागू करने में हमारी सरकार की सबसे बड़ी नाकामी से पैदा होता है। कड़े कानून होने के बावजूद व्यवस्था उन्हें लागू करने में नाकाम है।
बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम 1986 के मुताबिक, 14 वर्ष से कम उम्र के किसी भी बच्चे को किसी भी क्षमता में काम करने की मंजूरी नहीं है, खासकर कचरा स्थलों जैसे खतरनाक जगहों पर जहां उनकी जिन्दगी लगातार खतरे में बनी रहती है।