Modi Govt. की बढ़ती नाकामियों से आरएसएस संघ परिवार में बढ़ता अंसतोष

नरेंद्र मोदी (Modi Govt.) सरकार के आर्थिक प्रदर्शन पर सियासी तौर पर धमाकेदार और सबसे विस्फोटक आलोचनात्मक प्रतिक्रिया आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबले (Dattatreya Hosabale) की ओर से सामने आयी। होसबले आरएसएस (RSS) के सरसंघचालक के पद के उत्तराधिकारी हैं। संघ परिवार (Sangh Parivar) में उनका रसूख मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) के बाद सबसे ऊंचा है। अब बड़ा यक्ष प्रश्न ये है कि भाजपा को वैचारिक खाद पानी देने वाली संस्था का बड़ा नेता आखिरकर मोदी सरकार को लेकर इतने गुस्से में क्यों हैं? उनका गुस्सा ऐसे में वक्त में सामने आया जब लोकसभा 2024 देश की दहलीज़ पर खड़े दिखायी दे रहे है।

होसबले ने केंद्र सरकार की बड़ी नाकामियों की ओर इशारा किया, जिसने लाखों आम मतदाताओं को काफी भीतर तक प्रभावित किया है। उन्होंने कहा कि गरीबी रेखा से नीचे 20 करोड़ लोगों, 40 मिलियन बेरोजगारों और अमीर गरीब के बीच बढ़ती खाई के साथ गरीबी के राक्षस को अभी तक मारा नहीं गया है। उन्होंने ये भी कहा कि देश के ज्यादातर हिस्सों में अभी भी साफ पानी और पोषण की खासा कमी है और इस तरह की गरीबी के लिये कुछ जगहों पर मोदी सरकार की नाकामियों को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराया है।

बीजेपी और आरएसएस के बीच संघर्ष का एक लंबा इतिहास रहा है, जब वाजपेयी और केएस सुदर्शन (Vajpayee and KS Sudarshan) के बीच तनाव अपने चरमबिंदु पर पहुँच गया था, जब आरएसएस नेता ने वाजपेयी और आडवाणी को युवा नेताओं के पक्ष में खड़े होने के लिये कहा था।

हालांकि 2014 में मोदी की जीत के बाद ये रंजिश दबी हुई लग रही थी। आरएसएस और भाजपा के बीच सीधा संवाद और विवाद समाधान के लिये स्थायी तंत्र बनाया गया। इस दौरान आरएसएस की दिलचस्पी देश भर में फैले अपनी शाखाओं के लिये और भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस), भारतीय किसान संघ (बीकेएस) समेत अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) जैसे आनुषांगिक संगठनों के लिये राजनीतिक सुरक्षा का स्थायी छत्र बनाना था। इसी तरह भाजपा का स्वार्थ आरएसएस के समर्पित पैदल सैनिकों (प्रचारकों और विस्तारकों) को जमीनी स्तर पर पार्टी के लिये काम पर

ये नया तालमेल इतना सहज था कि होसबले एक नई थीसिस के साथ आये और कहा कि, हम [आरएसएस] चाहते हैं कि भाजपा सभी राज्यों के चुनाव जीत ले, क्योंकि तभी इस देश में अहम सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक बदलाव होंगे। साल 2014 की चुनावी जीत को दीर्घकालिक मिशन के शुरूआती बिंदु के तौर पर देखा जाना चाहिये।

विपक्ष द्वारा मुक्त किये गये एकदलीय लोकतंत्र के इस विचार ने साल 2021 में ममता बनर्जी की हैरतअंगेज जीत के साथ पूरा किया, बावजूद इसके कि भाजपा के पैसे, बाहुबल, केन्द्रीय एजेंसियों की ताकत और पूरे बंगाल में सैकड़ों प्रचारकों को आरएसएस के दिग्गजों की अगुवाई में भेजा गया था।

मोदी ने आरएसएस की दो बुनियादी मांगों को पूरा किया है। राम जन्मभूमि मंदिर (आडवाणी की रथ यात्रा के श्रेय को पूरी तरह शून्य करते हुए और सुब्रमण्यम स्वामी की लंबी अदालती लड़ाई को भूलाकर)। उन्होंने कश्मीर पर अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की आरएसएस की लंबे समय से चली आ रही मांग का भी पूरा किया। वो लगातार संघ परिवार की बहुसंख्यक मान्यताओं का पालन करते रहे हैं। इसके साथ ही नरसंहार, लिंचिंग और साम्प्रदायिक विभाजन जैसों मामलों पर मोदी सरकार ने कठोर चुप्पी साधे रखी।

फिर एकाएक ऐसा क्यों होसबले ने अचानक क्यों ये विस्फोट बयान दिया? 8 अगस्त 2022 को सरसंघचालक मोहन भागवत (Sarsanghchalak Mohan Bhagwat) के बयान भी उतने ही गंभीर है। जिसमें उसने कहा था कि एक नेता इस देश की सभी चुनौतियों का सामना करने के लिये नहीं है, चाहे वो कितना ही बड़ा क्यों न हो।

संघ परिवार में दो वरिष्ठ लोगों के लिये मोदी के व्यापार मॉडल और सरकार पर उनके अकेले नियंत्रण की खुले तौर पर आलोचना करने में क्या गलत हुआ? आरएसएस को अपनी इकाइयों से बेरोजगारी और बड़े पैमाने पर गरीबी के बारे में परेशान करने वाली जानकारियां लगातार हासिल हो रही है, जो चुनावी जनता के बीच गहरी नाराजगी पैदा कर रही है।

इसके अलावा आरएसएस का सबसे बड़ा मोर्चा संगठन बीएमएस मोदी सरकार के श्रम सुधार कानूनों और संसाधन संपन्न मुनाफा कमाने वाले निजीकरण के खिलाफ भी मुहिम चला रहा है। इसी तरह बीकेएस मोदी के कृषि सुधार एजेंडे से काफी असहज है। वो अब बिजली शुल्क नीति को लेकर गुजरात सरकार के खिलाफ प्रचार कर रहे हैं, जो किसानों को बड़े पैमाने पर लगातार परेशान कर रहा है। बीकेएस ने पिछले महीने गांधीनगर में बंद का आह्वान किया था, जहां आने वाले कुछ महीने में चुनावी बिगुल फूंका जाने वाला है।

आरएसएस का स्वदेशी जागरण मंच (एसजेएम) जहां होसबले ने अपना ये धमाकेदार बयान दिया, वो बीकेएस मोदी सरकार की नीतियों से लगातार भारी मुनाफा कमा रही बहुराष्ट्रीय कंपनियों, आईएफआई और बड़ी भारतीय कंपनियों के खासा खफा है। एसजेएम ग्रामीण प्रधान रोजगार और लघु व्यवसाय मॉडल के लिये प्रचार और जमीनी हालातों पर काम करता है। एसजेएम की कार्य प्रणाली और उसका वजूद मोदी के बड़े व्यापार मॉडल के ठीक उलट है जो कि सबसे बड़ी कॉर्पोरेट टैक्स कटौती से लगातार फलफूल रहा है।

ये जमीनी स्तर पर अलगाव और उसके सामने के संगठनों का गुस्सा आरएसएस (RSS) में डर पैदा कर रहा है कि साल 2024 के आम चुनावों में ये सब कारण भाजपा के लिये जमीन पर उतरकर आम मतदाताओं के बीच जाना मुश्किल कर देगा। अगर ऐसा होता है तो भाजपा पर आरएसएस की सरपरस्ती खतरे में पड़ सकती है। इसका साफ और सीधा मतलब है कि आरएसएस के कैडरों यानि कि प्रचारकों और विस्तारकों की विश्वसनीयता आम लोगों के बीच खत्म हो सकती है। आरएसएस ये सब अच्छे से जानता है कि सारा खेल विश्वसनीयता, छवि और सामाजिक स्वीकार्यता का है, जिस पर वो किसी तरह का कोई धब्बा नहीं लगने देना चाहती है।

एक और सिद्धांत ये है कि ये आरएसएस मोदी सरकार में ताकतवर ओहदों पर ज्यादा से ज्यादा अपने उम्मीदवारों की तैनाती चाहती है, जिसके लिये वो दबाव की रणनीति अपना रही है। भाजपा के एक बड़े धड़े को संघ का ये रवैया रास नहीं आ रहा है, जिससे खींचतान के हालात बनते दिख रहे है। दत्तात्रेय होसबले का ये कथित बयान आरएसएस और मोदी सरकार के बीच खिंचती लंबी विभाजन रेखा की बानगी भर है।

सह-संस्थापक संपादक : राम अजोर

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