Janmashtami 2021: ऐसा माना जाता है कि भगवान श्रीराम बारह कलाओं के अवतार थे तो भगवान श्री कृष्ण सोलह कलाओं के। सच तो ये है कि वह पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर थे। अवतारवाद के सिद्धान्त (Doctrine Of Embodiment) को सारे धर्म-शास्त्र मानते हैं कि जब पृथ्वी पर अत्याचार, अनाचार का बोलबाला होता है, जन-जीवन कष्टप्रद हो जाता है, धर्म की क्षति होने लगती है, तब भगवान पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
ये तो स्पष्ट हैं कि द्वापर के अन्त में भगवान श्री कृष्ण धर्म की संस्थापना के लिए अवतरित हुए, पर प्रतिवर्ष पूरे भारतवर्ष में धूमधाम, हर्षोल्लास और श्रद्धा भक्ति के साथ जन्माष्टमी मनाने का क्या मतलब है ? क्या श्रीकृष्ण प्रतिवर्ष जन्म लेते हैं ? गोकुल (Gokul) से मथुरा (Mathura) की कितनी दूरी है केवल मात्र चार कोस (सात किलोमीटर)। रोज गोपियां दूध बेचने मथुरा जाती हैं, विरह का संदेश (Message Of Separation) मथुरा स्थित कृष्ण को भेजती हैं। इतने संदेश भेजे गये कि मधुबन के कुएं भर गये हैं.”संदेशनि मधुबन कूप भरे’ पर कृष्ण बेखबर सोये हैं, एकदम निर्विकार। गोपियों का विरह पीड़ित होना उन्हें तिल-मात्र भी प्रभावित नहीं कर पाता है। कारण-वे परब्रह्म परमात्मा जो हैं। ऐसे ब्रह्म का प्रतिवर्ष जन्म लेना कोई अर्थ नहीं रखता है।
मानव की गति है – अधोगामिनी षड् विकार उसे पतनोन्मुख करने में सहायता पहुंचाते हैं। वो अनेकों मायाजाल में पड़कर भी परलोक के लिये कुछ करना चाहता है। राह प्रशस्त करने का आकांक्षी है। उसका संस्कार ऐसा है। वह इस धरती का प्राणी है, जो देवताओं के अवतार की भूमि रही है। यहां देवता भी तन धारण करने के लिए मचलते हैं। इस अवस्था में जन्माष्टमी ऐसा पावन पर्व कृष्ण की बारबार याद दिलाता है।
सत्य-असत्य के संघर्ष में कृष्ण का आदर्श उसका प्रेरक सिद्ध होता है। कृष्ण जैसे लोकनायक की अनन्त मनोहारिणी लीलायें (Eternal lovely pastimes), जन-जन में बसी है। सगुण उपासक जनता उन्हें स्मरण कर निहाल हो उठती है। उसकी आत्मा को परम शान्ति मिलती है। असत्य पर सत्य की, पाप पर पुण्य की और अधर्म पर धर्म की विजय की परम्परा बड़ी पुरातन है। पग-पग पर सबको जीवन में ऐसे संघर्षों के दौर से गुजरना पड़ता है।
'असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय' सांस्कृतिक मंत्र है । धर्म का मूल उद्देश्य है जिसका प्रमाण है-कृष्ण चरित्रा कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन लोकोपकार में बीता। ऐसे कृष्ण का प्रतिवर्ष स्मरण करना हमारी आत्मा को पवित्र करता है। आज के जीवन के सन्दर्भ में भी जन्माष्टमी की प्रासंगिकता पर कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है। जीवन ज्यों-ज्यों जटिल, उलझनपूर्ण होता गया। इस विषम परिस्थिति में कृष्ण का उपदेश 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' गीता का ये कर्मवाद कहीं फल का निषेध नहीं बताता, वरन् कर्म पर बल देता है। फलासक्ति की तीव्रता में कर्म की उपेक्षा हो जाती है। फल कैसे मिलेगा, फल तो कर्म का ही बदला हुआ रूप है।
आज की दिग्भ्रमित, निराश कुंठित पीढ़ी, क्या विध्वंसात्मक रवैया छोड़कर कर्मोन्मुख (hard working) नहीं हो सकती है ? यह पर्व उनमें कर्मण्यता का संदेश भरता है। कृष्ण ने कभी अनीति, अधर्म का साथ नहीं दिया। सदा सज्जनों की रक्षार्थ के प्रति बद्ध रहे। संकटासुर, अघासुर, कंस, बकासुर, चाणूर आदि का वध उनकी लीलाओं के अन्तर्गत आता है। हर कीमत पर अन्याय, अनैतिकता और अधर्म का नाश करना हमारा कर्तव्य है। मनुष्य देह ही इसलिए मिली है।
आज कभी हम भ्रष्टाचार विरोध दिवस मनाते हैं और कभी आत्मप्रक्षालन दिवस और धूम-धाम कर फिर उसी कीचड़ में फंसते हैं। अपने-आपको जानें-पहचानें और सत्य के नाश के लिए प्राणपण से लग जायें। आज इसी की आवश्यकता है और जन्माष्टमी भी यही संदेश देती है।