Hijab Controversy: कर्नाटक के उडुपी से शुरू हुई हिजाब पहनने की जिद ने अब जंगल की आग की तरह दूसरे राज्यों के स्कूलों को भी अपनी चपेट में ले लिया है। कई लोग इस बात को लेकर हैरान है कि मासूम बच्चों में मज़हबी ज़हर कौन घोल रहा है? ऐसे में अब एक बड़ा वर्ग ये भी सवाल उठा रहा है कि क्या इस प्रकरण की आड़ में स्कूलों में मदरसा प्रणाली (Madrasa System) लागू करने की कोशिश की जा रही है।
अब उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) से लेकर राजस्थान तक के स्कूल-कॉलेजों में मुस्लिम छात्राओं (Muslim girl students) की ओर से हिजाब पहनकर क्लास अटेंड करने की मांग उठने लगी है। ये एक ऐसा सिलसिला है जो किसी एक राज्य के स्कूल और कॉलेज तक सीमित नहीं रहेगा। सवाल ये भी है कि क्या भारत में स्कूलों का इस्लामीकरण (Islamization of Schools) करने के प्रयास किये जा रहे हैं?
अनौपचारिक रूप से भारत में एक लाख से ज्यादा मदरसे हैं, जहां मुस्लिम छात्रों को पढ़ाई के बीच में नमाज अदा करने का अधिकार है और मुस्लिम लड़कियां मदरसे में पढ़ने के लिये हिजाब और बुर्का पहन सकती हैं लेकिन एक विशेष विचारधारा के लोग अब उसी मॉडल को स्कूलों में भी लागू करना चाहते हैं। अब ये आंच उन मदरसों और स्कूलों तक पहुँचती दिख रही है, जो अब तक धार्मिक कट्टरवाद से छूटे हुए थे।
इस समय धार्मिक कट्टरवाद की ये आग देश के कई स्कूलों और कॉलेजों तक पहुंच चुकी है और मुस्लिम छात्राओं की हिजाब पहनने की जिद ने विस्फोटक रूप ले लिया है। अभी तक कर्नाटक (Karnataka), उत्तर प्रदेश और मुंबई (Mumbai) से ऐसी खबरें आ रही थीं, जहां मुस्लिम छात्राओं को स्कूल और कॉलेजों में हिजाब पहनकर क्लास अटेंड करने के लिये कहा जाता था लेकिन अब ये मामला राजस्थान तक पहुंच गया है।
हाल ही जयपुर (Jaipur) के एक प्राइवेट कॉलेज का सीसीटीवी वीडियो सामने आया, जिसमें 21 वर्षीय मुस्लिम छात्रा बुर्का पहनकर अपनी क्लास में प्रवेश करती दिखायी दे रही है। कॉलेज प्रबंधन का तर्क है कि बीते 8 सालों से छात्रों के लिये विशेष ड्रेस कोड है, कर्नाटक वाला मामला सामने आने से पहले, यहां पढ़ने वाली सभी मुस्लिम लड़कियां बुर्का और हिजाब के बिना कॉलेज में आ रही थीं।
लेकिन अब दूसरे राज्यों की तरह जयपुर के इस कॉलेज में मुस्लिम लड़कियां भी हिजाब पहनकर क्लास अटेंड करने की मांग कर रही हैं और उनका कहना है कि उनसे ये संवैधानिक अधिकार कोई नहीं छीन सकता। सोचिये ये कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन कॉलेजों में पहले से ही ड्रेस कोड लागू है, वहां अब मुस्लिम लड़कियां भी इसका पालन करने से मना कर रही हैं।
मामला सबसे पहले कर्नाटक के उडुपी (Udupi) के एक कॉलेज में शुरू हुआ, जिसे स्थानीय स्तर पर सुलझाना चाहिए था लेकिन एक खास विचारधारा के लोगों ने इसे सांप्रदायिक रूप देने की कोशिश की और इस समय हालात ये है कि हिजाब की मांग को लेकर महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, हैदराबाद, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश इनमें खासतौर से शामिल है।
हैरानी की बात ये है कि इन विरोधों का स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों से कोई लेना-देना नहीं है। अब विभिन्न राज्यों में स्थानीय स्तर पर इस्लामी संगठनों और मुस्लिम नेताओं द्वारा बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किये जा रहे है। ऐसा ही एक प्रदर्शन महाराष्ट्र के मालेगांव (Malegaon in Maharashtra) में हुआ, जिसमें हजारों की तादाद में बुर्का पहने महिलाओं ने बिना पुलिस की इज़ाजत के प्रदर्शन में हिस्सा लिया। पुलिस ने इस मामले में शिकायत दर्ज कर जांच शुरू कर दी है। बहरहाल अब बड़ा सवाल उन 15 लाख स्कूलों में पढ़ने वाले 25 करोड़ बच्चों के भविष्य को लेकर है, जिन्हें धर्म की आग में ज़बरन धकेला जा रहा है।
इस मामले में कल कर्नाटक हाईकोर्ट (Karnataka High Court) ने अहम आदेश दिया, जिसमें कोर्ट ने कहा था कि जब तक हिजाब मामले में आखिरी फैसला नहीं आ जाता, तब तक राज्य के स्कूल-कॉलेजों के सभी छात्र हिजाब और भगवा/गमछा नहीं पहनेंगे।
कोर्ट ने अपने आदेश में आगे कहा है कि भारत में विभिन्न धर्मों और भाषाओं के लोग मौजूद हैं, लेकिन इन विविधताओं के साथ भारत धर्मनिरपेक्ष देश है, जो अपने नागरिकों को अपना धर्म चुनने और उसका पालन करने का समान अधिकार देता है। लेकिन ये संवैधानिक अधिकार असीमित नहीं हैं और जरूरत के मुताबिक इन पर कुछ प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं।
यानि संविधान ने देश के नागरिकों को समान मौलिक अधिकार दिये हैं, लेकिन ये अधिकार असीमित नहीं हैं। और अगर न्यायपालिका और देश की सरकारें चाहें तो संविधान पर जरूरत के हिसाब से आंशिक प्रतिबंध लगाकर उसे व्यावहारिक बनाये रखने का काम कर सकती हैं। यहां आपको जो बात समझनी है वो ये है कि हिजाब पहनने की जिद को संवैधानिक अधिकारों से जोड़ना पूरी तरह से सही नहीं है।
मुस्लिम छात्राओं द्वारा कक्षा में हिजाब पहनना इस्लाम धर्म में अनिवार्य है या नहीं, इसका गंभीरता से अध्ययन करने की जरूरत है। इसके अलावा कोर्ट ने ये भी कहा है कि भारत सभ्य समाज है और यहां के किसी भी व्यक्ति को समाज में शांति और सौहार्द बिगाड़ने की कोशिश करने की आजादी नहीं है।
अब सवाल उन मुस्लिम छात्राओं और संगठनों से है जो संविधान और लोकतंत्र की बात करते हैं। क्या वो कर्नाटक उच्च न्यायालय के इस विचार को स्वीकार करेंगे? इसके साथ ही एक और बड़ा मुद्दा जुड़ा हुआ है – अगर देश भर के स्कूलों में धार्मिक कट्टरवाद को बढ़ावा दिया जाता है, तो स्कूलों और मदरसे में क्या अंतर होगा?
केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय के मुताबिक साल 2018-2019 में देश में मदरसों की कुल तादाद करीब 24000 थी। इनमें से करीब 5000 मदरसे ऐसे थे, जिन्हें सरकार ने मान्यता नहीं दी थी।
हालांकि ये तादाद सिर्फ उन मदरसों के लिये है, जिन्होंने सरकारी मान्यता के लिए आवेदन किया था। वैसे अनौपचारिक रूप से देश में करीब एक लाख मदरसे हो सकते हैं। और इनमें से 30 से 40 हजार मदरसे उत्तर प्रदेश में ही हैं। भारत में तीन तरह के मदरसे हैं।
पहला वो सरकार से मान्यता हासिल हैं और जिन्हें केंद्र और राज्य सरकारों से फंडिंग मिलती है।
अन्य वे हैं जो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं लेकिन इस्लामी संस्थानों और मुस्लिम समुदाय के लोगों से फंडिंग हासिल करते हैं।
और तीसरा मदरसा वे हैं, जिन्हें न तो सरकार मान्यता देती है और न ही उन्हें सरकार से फंडिंग मिलती है।
अब मुद्दा ये है कि जिन मदरसों पर सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, उनका मुख्य मकसद मुस्लिम बच्चों को इस्लामी शिक्षा देना है। ये मदरसे 12वीं कक्षा तक शिक्षा प्रदान करते हैं और सरकार से धन प्राप्त करने के लिये ये मदरसे बच्चों को गणित, विज्ञान, भूगोल और अंग्रेजी के विषय भी पढ़ाते हैं, लेकिन साथ ही बच्चों पर धार्मिक शिक्षा पर ज़्यादा जोर दिया जाता है। मदरसों में बच्चों को कम उम्र से ही कुरान में कही गयी बातों, इस्लामिक कानूनों और इस्लाम से जुड़े अन्य विषयों के बारे में पढ़ाया जाता है और इसके कारण कई बच्चे एक धर्म की शिक्षा तक ही सीमित रहते हैं। अब सोचिये अगर मदरसों का ये मॉडल स्कूलों में भी लागू हो जाये तो स्कूलों और मदरसों में क्या अंतर होगा?
भारत का संविधान अल्पसंख्यकों को अपने स्वयं के शिक्षण संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन करने की पूर्ण स्वतंत्रता देता है। संविधान के अनुच्छेद 30 में इसका विस्तार से उल्लेख किया गया है। इतना ही नहीं भारत का संविधान ये भी सुनिश्चित करता है कि अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित मदरसों और अन्य शैक्षणिक संस्थानों को सरकार से वित्तीय मदद मिले।
अब समझने वाली बात ये है कि जिन मुस्लिम छात्राओं को लगता है कि स्कूलों में उनके धर्म के मुताबिक नियम, कानून और पाठ्यक्रम नहीं हैं, तो वे मदरसों में शिक्षा क्यों नहीं लेती, जिन्हें भारत के संविधान द्वारा सभी अधिकार दिये गये हैं।
मदरसों में तो सारे नियम पहले से ही लागू हैं तो फिर स्कूलों में भी यही व्यवस्था लागू करने की मांग क्यों की जा रही है? बड़ा सवाल यही है। अभी जो हो रहा है वो ये है कि कुछ मुस्लिम छात्रायें मदरसों में शिक्षा हासिल नहीं करना चाहतीं बल्कि चाहती है कि मदरसा प्रणाली को स्कूलों में ही लागू हो।
धर्म की असल शिक्षा वो नहीं है जो आपके सोचने, समझने और तर्क करने की शक्ति को नष्ट कर देती है बल्कि धर्म की वास्तविक शिक्षा वो है जो आपको सवाल उठाने की ताकत देती है। ताकि आप खुद बेहतर चुन सके। इसलिए आपको तय करना है कि आपको अपने बच्चों को धार्मिक बनाने के नाम पर कट्टर बनाना है या धर्म का असली मतलब समझाकर उन्हें एक बेहतर इंसान बनाना है।